श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.42 -- 3.43।। इन्द्रियोंको (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धिसे भी पर है, वह (काम) है। इस तरह बुद्धिसे पर - (काम-) को जानकर अपने द्वारा अपने-आपको वशमें करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.42।। (शरीर से) परे (श्रेष्ठ) इन्द्रियाँ कही जाती हैं;  इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है, और जो बुद्धि से भी परे है, वह है आत्मा।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।3.42।।ननु यथाकथंचिद्बाह्येन्द्रियनियमसंभवेप्यान्तरतृष्णात्यागोऽतिदुष्कर इति चेत्। न। रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तत इत्यत्र परदर्शनस्य रसाभिधानीयकतृष्णात्यागसाधनस्य प्रागुक्तेः। तर्हि कोऽसौ परो यद्दर्शनात्तृष्णानिवृत्तिरित्याशङ्क्य शुद्धमात्मानं परशब्दवाच्यं देहादिभ्यो विविच्य दर्शयति श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्च स्थूलं जडं परिच्छिन्नं बाह्यं च देहमपेक्ष्य पराणि सूक्ष्मत्वात्प्रकाशकत्वाद्व्यापकत्वाह्यापकत्वादन्तःस्थत्वाच्च प्रकृष्टान्याहुः पण्डिताः श्रुतयो वा। तथेन्द्रियेभ्यः परं मनः संकल्पविकल्पात्मकं तत्प्रवर्तकत्वात्। तथा मनसस्तु परा बुद्धिरध्यवसायात्मिका। अध्यवसायो हि निश्चयस्तत्पूर्वकएव संकल्पादिर्मनोधर्मः। यस्तु बुद्धेः परतस्तद्भासकत्वेवनावस्थितः यं देहिनमिन्द्रियादिभिराश्रयैर्युक्तः कामो ज्ञानावरणद्वारा मोहयतीत्युक्तं स बुद्धेर्द्रष्टा पर आत्मास एष इह प्रविष्टः इतिवद्व्यवहितस्यापि देहिनस्तदा परामर्शः। अत्रार्थे श्रुतिःइन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः। महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः।। इति। अत्रात्मनः परत्वस्यैव वाक्यतात्पर्यविषयत्वादिन्द्रियादिपरत्वस्याविवक्षितत्वात्। इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था इति स्थानेऽर्थेभ्यः पराणीन्द्रियाणीति विवक्षाभेदेन भगवदुक्तं न विरुध्यते। बुद्धेरस्मदादिव्यष्टिबुद्धेः सकाशान्महानात्मा समष्टिबुद्धिरूपः परःमनो महान्मतिर्ब्रह्मा पूर्बूद्धिः ख्यातिरीश्वरः इति वायुपुराणवचनात्। महतो हैरण्यगर्भ्या बुद्धेः परमव्यक्तमव्याकृतं सर्वजगद्बीजं मायाख्यंमायां तु प्रकृतिं विद्यात् इति श्रुतेःतद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत् इति च। अव्यक्तात्सकाशात्सकलजडवर्गप्रकाशकः पुरुषः पूर्ण आत्मापरः तस्मादपि कश्चिदन्यः परः स्यादित्यत आह पुरुषान्न परं किंचिदिति। कुत एवं। यस्मात् सा काष्ठा समाप्तिः। सर्वाधिष्ठानत्वात्सा परा गतिः।सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् इत्यादिश्रुतिप्रसिद्धा परा गतिरपि सैवेत्यर्थः। तदेतत्सर्वं यो बुद्धेः परतस्तु स इत्यनेनोक्तम्।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.42।। इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि पञ्च देहं स्थूलं बाह्यं परिच्छिन्नं च अपेक्ष्य सौक्ष्म्यान्तरत्वव्यापित्वाद्यपेक्षया पराणि प्रकृष्टानि आहुः पण्डिताः। तथा इन्द्रियेभ्यः परं मनः संकल्पविकल्पात्मकम्। तथा मनसः तु परा बुद्धिः निश्चयात्मिका। तथा यः सर्वदृश्येभ्यः बुद्ध्यन्तेभ्यः आभ्यन्तरः यं देहिनम् इन्द्रियादिभिः आश्रयैः युक्तः कामः ज्ञानावरणद्वारेण मोहयति इत्युक्तम्। बुद्धेः परतस्तु सः सः बुद्धेः द्रष्टा परमात्मा।।ततः किम्

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।3.42।। तृतीय अध्याय के अन्तिम दो श्लोकों में व्यास जी ने उस परिपूर्ण साधना की ओर संकेत किया है जिसके अभ्यास से कोई भी साधक सफलतापूर्वक अपने शत्रु काम को खोजकर उसका नाश कर सकता है।

यद्यपि भगवद्गीता के प्रारम्भ के अध्यायों में ही हम ध्यानविधि के विस्तृत विवेचन की अपेक्षा नहीं कर सकते फिर भी इन श्लोकों में भगवान् आत्मप्राप्ति के उपाय रूप ध्यानविधि की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं।

बाह्य जगत् की वस्तुओं की तुलना में हमारे लिए अपनी इन्द्रियाँ अधिक महत्त्व की होती हैं। कर्मेन्द्रियों की अपेक्षा ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक श्रेष्ठ और सूक्ष्म हैं। हमारा सबका अनुभव है कि मन ही इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है अत यहाँ मन को इन्द्रियों से सूक्ष्म और परे कहा गया है।निसन्देह मन के विचरण का क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत है फिर भी उसकी अपनी सीमाएँ हैं। एक ज्ञान के पश्चात् अन्य ज्ञान को प्राप्त कर हम अपने मन की सीमा बढ़ाते हैं और विजय के इस अभियान में बुद्धि ही सर्वप्रथम मन के वर्तमान ज्ञान की सीमा रेखा को पार करके उसके लिए ज्ञान के नये राज्यों को विजित करती है। इस दृष्टि से बुद्धि की व्यापकता और भी अधिक विस्तृत है इसलिए बुद्धि को मन से श्रेष्ठतर कहा गया है। जो बुद्धि के भी परे तत्त्व है उसे ही आत्मा कहते हैं।बुद्धिवृत्तियों को प्रकाशित करने वाला चैतन्य बुद्धि से भी सूक्ष्म होना ही चाहिये। उपनिषदों में कहा गया है कि इस चैतन्यस्वरूप आत्मा के परे और कुछ नहीं है। ध्यानसाधनामें शरीर मन और बुद्धि उपाधियों से अपने तादात्म्य को हटाकर आत्मस्वरूप में स्थित होने का सजग प्रयत्न किया जाता है। ये सभी प्रयत्न तब समाप्त हो जाते हैं जब सब मिथ्या वस्तुओं की ओर से अपना ध्यान हटाकर हम निर्विषय चैतन्यस्वरूप बनकर स्थित हो जाते हैं।भगवान् आगे कहते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.42।।पहले इन्द्रियोंको वशमें करके कामरूप शत्रुका त्याग कर ऐसा कहा सो किसका आश्रय लेकर इसका त्याग करना चाहिये यह बतलाते हैं पण्डितजन बाह्य परिच्छिन्न और स्थूल देहकी अपेक्षा सूक्ष्म अन्तरस्थ और व्यापक आदि गुणोंसे युक्त होनेके कारण श्रोत्रादि पञ्च ज्ञानेन्द्रियोंको पर अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं। तथा इन्द्रियोंकी अपेक्षा संकल्पविकल्पात्मक मनको श्रेष्ठ कहते हैं और मनकी अपेक्षा निश्चयात्मिका बुद्धिको श्रेष्ठ बताते हैं। एवं जो बुद्धिपर्यन्त समस्त दृश्य पदार्थोंके अन्तरव्यापी है जिसके विषयमें कहा है कि उस आत्माको इन्द्रियादि आश्रयोंसे युक्त काम ज्ञानावरणद्वारा मोहित किया करता है वह बुद्धिका ( भी ) द्रष्टा परमात्मा ( सबसे श्रेष्ठ ) है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।3.42।।शत्रुहनने आयुधरूपं ज्ञानं वक्तुं ज्ञेयमाह इन्द्रियाणीति।असङ्गज्ञानासिमादाय तरातिपारं इति ह्युक्तम्। शरीरादिन्द्रियाणि पराणि उत्कृष्टानि। न केवलं बुद्धेः परः श्रुत्युक्तप्रकारेणाव्यक्तादपि अव्यक्तात्पुरुषः परः कठो.3।11 इति हि श्रुतिः। न च तत्र तत्रोक्तैकदेशज्ञानमात्रेण भवति मुक्तिः। सार्वत्रिकगुणोपसंहारो हि भगवता गुणोपसंहारपादेऽभिहितःआनन्दादयः प्रधानस्य ब्र.सू.3।3।11 इत्यादिना। तथा चान्यत्रअपौरुषेयवेदेषु विष्णुवेदेषु चैव हि। सर्वत्र ये गुणाः प्रोक्ताः सम्प्रदायागताश्च ये। सर्वैस्तैः सह विज्ञाय ये पश्यन्ति परं हरिम्। तेषामेव भवेन्मुक्तिर्नान्यथा तु कथञ्चन इति गारुडे। तस्मादव्यक्तादपि परत्वेन ज्ञेयः। न चात्र जीव उच्यतेरसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 2।59 इत्युक्तत्वात्।अविज्ञाय परं मत्तो जयः कामस्य वै कुतः इति च। अतः परमात्मज्ञानमेवात्र विवक्षितम्। आत्मानं मनः।आत्मना बुद्ध्या।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।3.42।।ज्ञानविरोधे प्रधानानि इन्द्रियाणि आहुः यत इन्द्रियेषु विषयव्यापृतेषु आत्मनि ज्ञानं न प्रवर्तते इन्द्रियेभ्यः परं मनः इन्द्रियेषु उपरतेषु अपि मनसि विषयप्रवणे आत्मज्ञानं न संभवति। मनसः तु परा बुद्धिः मनसि विषयान्तरविमुखे अपि विपरीताध्यवसायप्रवृत्तायां बुद्धौ न आत्मज्ञानं प्रवर्तते। सर्वेषु बुद्धिपर्यन्तेषु उपरतेषु अपि इच्छापर्यायः कामो रजःसमुद्भवो वर्तते चेत् स एव एतानि इन्द्रियादीनि अपि स्वविषयेषु वर्तयित्वा आत्मज्ञानं निरुणद्धि तदिदम् उच्यते यो बुद्धेः परतः तु सः इति बुद्धेः अपि यः परः स काम इत्यर्थः।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

3.42 See Comment under 3.43

English Translation by Shri Purohit Swami

3.42 It is said that the senses are powerful. But beyond the senses is the mind, beyond the mind is the intellect, and beyond and greater than intellect is He.

English Translation By Swami Sivananda

3.42 They say that the senses are superior (to the body); superior to the senses is the mind; superior to the mind is the intellect; one who is superior even to the intellect is He (the Self).