अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।4.29 -- 4.30।। दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका पूरक करके, प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका हवन करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।
।।4.30।। दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले हैं, जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके हैं।।
।।4.30।।तदेवमुक्तानां द्वादशधा यज्ञविदां फलमाह यज्ञान्विदन्ति जानन्ति विन्दन्ति लभन्ते वेति यज्ञविदो यज्ञानां ज्ञातारः कर्तारश्च। यज्ञैः पूर्वोक्तैः क्षपितं नाशितं कल्मषं पापं येषां ते यज्ञक्षपितकल्मषाः। यज्ञान्कृत्वाऽवविष्टे कालेऽन्नममृतशब्दवाच्यं भुञ्जत इति यज्ञशिष्टामृतभुजः। ते सर्वेऽपि सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नित्यं संसारान्मुच्यन्त इत्यर्थः।
।।4.30।। अपरे नियताहाराः नियतः परिमितः आहारः येषां ते नियताहाराः सन्तः प्राणान् वायुभेदान् प्राणेषु एव जुह्वति यस्य यस्य वायोः जयः क्रियते इतरान् वायुभेदान् तस्मिन् तस्मिन् जुह्वति ते तत्र प्रविष्टा इव भवन्ति। सर्वेऽपि एते यज्ञविदः यज्ञक्षपितकल्मषाः यज्ञैः यथोक्तैः क्षपितः नाशितः कल्मषो येषां ते यज्ञक्षपितकल्मषाः।।एवं यथोक्तान् यज्ञान् निर्वर्त्य
।।4.30।। कुछ ऐसे साधक होते हैं जो आहार संयम के द्वारा कामक्रोधादि से उत्पन्न मन की उत्तेजनाओं को संयमित करने का अभ्यास करते हैं। भारत में आहार संयम की विधि अपरिचित और नई नहीं है। प्राचीन ऋषियों को अन्न के पोषक तत्त्वों के विषय में पूर्ण ज्ञान था। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने समाज के विभिन्न स्तर के व्यक्तियों के स्वभाव एवं कार्यों के लिए उपयुक्त शाकसब्जियों तथा धान्यों का भी वैज्ञानिक पद्धति से वर्गीकरण किया था। केवल विचार ही नहीं वरन् उन्होंने प्रयोग करके यह दर्शाया भी था कि आहार संयम के द्वारा किस प्रकार मनुष्य अपने गुणों तथा व्यवहार को परिष्कृत करके सांस्कृतिक उन्नति कर सकता है।यज्ञविद शब्द से तात्पर्य उन साधकों से है जो उपर्युक्त साधनों को समझ कर उनमें से सभी अथवा कुछ साधनों का ही अभ्यास निस्वार्थ भावना से करते हैं। ऐसे ही लोग इनसे लाभान्वित होंगे। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि यज्ञ के द्वारा मनुष्य पापमुक्त होगा और न कि इनसे सीधे ही परमात्मा की प्राप्ति होगी।देहादि अनात्म पदार्थों के साथ तादात्म्य से उत्पन्न अहंका देह तथा बाह्य विषयों में आसक्त हुआ अनेक प्रकार के संकल्प करता रहता है। इन संकल्पों के अनुरूप ही कर्म और फलोपभोग से वासनायें उत्पन्न होती हैं जो सदैव मनुष्य को विषयों में प्रवृत्त करती हैं। यही पाप है जो मनुष्य को पशु के स्तर तक गिरा देता है। उपर्युक्त यज्ञों के अनुष्ठान से न केवल विद्यमान वासनायें नष्ट होती हैं वरन् नवीन विनाशकारी वासनायें भी नहीं उत्पन्न होती।संक्षेप में निष्कर्ष निकलता है कि ये समस्त यज्ञ साध्य न होकर अन्तकरण की शुद्धि के साधनमात्र हैं। चित्त शुद्ध होने पर निदिध्यासन के अभ्यास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। अनेक साधक लोग अज्ञानवश किसी एक विशेष साधना में ही इतना आसक्त हो जाते हैं कि उनकी आगे की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।इन सभी यज्ञों में पुरुषार्थ अर्थात् स्वयं का प्रयत्न अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् कहते हैं
।।4.30।।तथा अन्य कितने ही नियताहारी अर्थात् जिनका आहार नियमित किया हुआ है ऐसे परिमित भोजन करनेवाले प्राणोंको यानी वायुके भिन्नभिन्न भेदोंको प्राणोंमें ही हवन किया करते हैं। भाव यह है कि वे जिसजिस वायुको जीत लेते हैं उसीमें वायुके दूसरे भेदोंको हवन कर देते हैं यानी वे सब वायुभेद उसमें विलीनसे हो जाते हैं। ये सभी पुरुष यज्ञोंको जाननेवाले और यज्ञोंद्वारा निष्पाप हो गये होते हैं अर्थात् उपर्युक्त यज्ञोंद्वारा जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं वे यज्ञक्षपितकल्मष कहलाते हैं।
।।4.30 4.31।।नियताहारत्वेनैव प्राणशोषात्प्राणान् प्राणेषु जुह्वति। यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञः कठ.3।13 इत्यादिश्रुत्युक्तप्रकारेण वा। अन्यदपि ग्रन्थान्तरे सिद्धम्।यदस्याल्पाशनं तेन प्राणाः प्राणेषु वै हुताः इति।
।।4.30।।अपरे कर्मयोगिनः प्राणायामेषु निष्ठां कुर्वन्ति। ते च त्रिविधाः पूरकरेचककुम्भकभेदेन। अपानेजुह्वति प्राणम् इति पूरकः प्राणे अपानम् इति रेचकः प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणान् प्राणेषु जुह्वति इति कुम्भकः। प्राणायामपरेषु त्रिषु अपि अनुषज्यते नियताहारा इति। द्रव्ययज्ञप्रभृतिप्राणायामपर्यन्तेषु कर्मयोगभेदेषु स्वसमीहितेषु प्रवृत्ता एते सर्वेसहयज्ञैः प्रजाः सृष्ट्वा (गीता 3।10) इति अभिहितमहायज्ञपूर्वकनित्यनैमित्तिककर्मरूपयज्ञविदः तन्निष्ठाः तत एव क्षपितकल्मषाः।