अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।2.17।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.17।। उस वस्तु को तुम अविनाशी जानों, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इस अव्यय का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।।
।।2.17।।तो जो निस्सन्देह सत् है और सदैव रहता है वह क्या है इसपर कहा जाता है
नष्ट न होना जिसका स्वभाव है वह अविनाशी है। तु शब्द असत्से सत्की विशेषता दिखानेके लिये है।
उसको तू ( अविनाशी ) जान समझ किसको जिस सत् शब्दवाच्य ब्रह्मसे यह आकाशसहित सम्पूर्ण विश्व आकाशसे घटादिके सदृश व्याप्त है।
इस अव्ययका अर्थात् जिसका व्यय नहीं होता जो घटताबढ़ता नहीं उसे अव्यय कहते हैं उसका विनाशअभाव ( करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है )।
क्योंकि यह सत् नामक ब्रह्म अवयवरहित होनेके कारण देहादिकी तरह अपने स्वरूपसे नष्ट नहीं होता अर्थात् इसका व्यय नहीं होता।
तथा इसका कोई निजी पदार्थ नहीं होनेके कारण निजी पदार्थोंके नाशसे भी इसका नाश नहीं होता जैसे देवदत्त अपने धनकी हानिसे हानिवाला होता है ऐसे ब्रह्म नहीं होता।
इसलिये कहते हैं कि इस अविनाशी ब्रह्मका विनाश करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है। कोई भी अर्थात् ईश्वर भी अपने आपका नाश नहीं कर सकता।
क्योंकि आत्मा ही स्वयं ब्रह्म है और अपने आपमें क्रियाका विरोध है।
।।2.17।।
अविनाशि न विनष्टुं शीलं यस्येति। तु शब्दः असतो विशेषणार्थः। तत् विद्धि विजानीहि। किम् येन सर्वम् इदं जगत् ततं व्याप्तं सदाख्येन ब्रह्मणा साकाशम् आकाशेनेव घटादयः। विनाशम् अदर्शनम् अभावम्। अव्ययस्य न व्येति उपचयापचयौ न याति इति अव्ययं तस्य अव्ययस्य। नैतत् सदाख्यं ब्रह्म स्वेन रूपेण व्येति व्यभिचरति निरवयवत्वात् देहादिवत्। नाप्यात्मीयेन आत्मीयाभावात्।
यथा देवदत्तो धनहान्या व्येति न तु एवं ब्रह्म व्येति। अतः अव्ययस्य अस्य ब्रह्मणः विनाशं न कश्चित् कर्तुमर्हति न कश्चित् अत्मानं विनाशयितुं शक्नोति ईश्वरोऽपि। आत्मा हि ब्रह्म स्वात्मनि च क्रियाविरोधात्।।
किं पुनस्तदसत् यत्स्वात्मसत्तां व्यभिचरतीति उच्यते