महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।13.6।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।13.6।।इस प्रकार स्तुति सुनकर सम्मुख हुए अर्जुनसे भगवान् कहते हैं --, महाभूत यानी सूक्ष्मभूत? वे सब विकारोंमें व्यापक होनेके कारण महान् भी हैं और भूत भी हैं? इसलिये वे महाभूत कहे जाते हैं। स्थूल पञ्चभूत तो इन्द्रियगोचरशब्दसे कहे जायँगे? इसलिये यहाँ महाभूतशब्दसे सूक्ष्म पञ्चमहाभूतोंका ग्रहण है। महाभूतोंका कारण अहंप्रत्ययरूप अहंकार तथा अहंकारकी कारणरूपा निश्चयात्मिका बुद्धि और उसकी भी कारणरूपा अव्यक्त प्रकृति अर्थात् जो व्यक्त नहीं है ऐसी अव्यक्त नामक अव्याकृत -- ईश्वरशक्ति जो कि मम माया दुरत्यया इत्यादि वचनोंसे कही गयी है। यहाँ एव शब्द प्रकृतिको विशेषरूपसे बतलानेके लिये है और च शब्द सारे भेदका समुच्चय करनेके लिये है। अभिप्राय यह कि यही आठ प्रकारसे विभक्त हुई अपरा प्रकृति है। तथा दश इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्रादि पाँच ज्ञान उत्पन्न करनेवाली होनेके कारण ज्ञानेन्द्रियाँ और वाणी आदि पाँच कर्म सम्पादन करनेवाली होनेसे कर्मेन्द्रियाँ और एक ग्यारहवाँ संकल्पविकल्पात्मक मन तथा शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्धये पाँच इन्द्रियोंके विषय। इन सबको ही सांख्यमतावलम्बी चौबीस तत्त्व कहते हैं।
।।13.6।। -- महाभूतानि महान्ति च तानि सर्वविकारव्यापकत्वात् भूतानि च सूक्ष्माणि। स्थूलानि तु इन्द्रियगोचरशब्देन अभिधायिष्यन्ते अहंकारः महाभूतकारणम् अहंप्रत्ययलक्षणः। अहंकारकारणं बुद्धिः अध्यवसायलक्षणा। तत्कारणम् अव्यक्तमेव च? न व्यक्तम् अव्यक्तम् अव्याकृतम् ईश्वरशक्तिः मम माया दुरत्यया (गीता 7।14) इत्युक्तम्। एवशब्दः प्रकृत्यवधारणार्थः एतावत्येव अष्टधा भिन्ना प्रकृतिः। चशब्दः भेदसमुच्चयार्थः। इन्द्रियाणि दश? श्रोत्रादीनि पञ्च बुद्ध्युत्पादकत्वात् बुद्धीन्द्रियाणि? वाक्पाण्यादीनि पञ्च कर्मनिर्वर्तकत्वात् कर्मेन्द्रियाणि तानि दश। एकं च किं तत् मनः एकादशं संकल्पाद्यात्मकम्। पञ्च च इन्द्रियगोचराः शब्दादयो विषयाः। तानि एतानि सांख्याः चतुर्विंशतितत्त्वानि आचक्षते।।
।।13.6।।मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियोंके पाँच विषय ( -- यह चौबीस तत्त्वोंवाला क्षेत्र है)।
।।13.6।। पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (प्रकृति), दस इन्द्रियाँ, एक मन, इन्द्रियों के पाँच विषय।।