श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।13.8।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।13.8।।यहाँ पहले उस ( क्षेत्रज्ञ ) के जाननेका उपायरूप जो अमानित्व आदि साधनसमुदाय है? जिसके होनेसे उस ज्ञेयको जाननेके लिये मनुष्य योग्य अधिकारी बन जाता है? जिसके परायण हुआ संन्यासी ज्ञाननिष्ठ कहा जाता है और जो ज्ञानका साधन होनेके कारण ज्ञान नामसे पुकारा जाता है? उस अमानित्वादि गुणसमुदायका भगवान् विधान करते हैं --, अमानित्व -- मानीका भाव अर्थात् अपना बड़प्पन प्रकट करना जो मानित्व है? उसका अभाव अमानित्व कहलाता है। अदम्भित्व -- अपने धर्मको प्रकट करना दम्भित्व है उसका अभाव अदम्भित्व कहा जाता है। अहिंसा -- हिंसा न करना अर्थात् प्राणियोंको कष्ट न देना। क्षमा -- दूसरोंका अपने प्रति अपराध देखकर भी विकाररहित रहना। आर्जव -- सरलता? अकुटिलता। आचार्यकी उपासना -- मोक्षसाधनका उपदेश करनेवाले गुरुका शुश्रूषा आदि प्रयोगोंसे सेवन करना। शौच -- शारीरिक मलोंको मिट्टी और जल आदिसे साफ करना और अन्तःकरणके रागद्वेष आदि मलोंको प्रतिपक्षभावनासे दूर करना। स्थिरता -- स्थिरभाव? मोक्षमार्गमें ही निश्चित निष्ठा कर लेना। आत्मविनिग्रह -- आत्माका अपकार करनेवाला और आत्मा शब्दसे कहे जानेवाला? जो कार्यकरणका संघातरूप यह शरीर है? इसका निग्रह अर्थात् इसे स्वाभाविक प्रवृत्तिसे हटाकर सन्मार्गमें ही नियुक्त कर रखना।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।13.8।। --,अमानित्वं मानिनः भावः मानित्वमात्मनः श्लाघनम्? तदभावः अमानित्वम्। अदम्भित्वं स्वधर्मप्रकटीकरणं दम्भित्वम्? तदभावः अदम्भित्वम्। अहिंसा अहिंसनं प्राणिनामपीडनम्। क्षान्तिः परापराधप्राप्तौ अविक्रिया। आर्जवम् ऋजुभावः अवक्रत्वम्। आचार्योपासनं मोक्षसाधनोपदेष्टुः आचार्यस्य शुश्रूषादिप्रयोगेण सेवनम्। शौचं कायमलानां मृज्जलाभ्यां प्रक्षालनम् अन्तश्च मनसः प्रतिपक्षभावनया रागादिमलानामपनयनं शौचम्। स्थैर्यं स्थिरभावः? मोक्षमार्गे एव कृताध्यवसायत्वम्। आत्मविनिग्रहः आत्मनः अपकारकस्य आत्मशब्दवाच्यस्य कार्यकरणसंघातस्य विनिग्रहः स्वभावेन सर्वतः प्रवृत्तस्य सन्मार्गे एव निरोधः आत्मविनिग्रहः।।किञ्च --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।13.8।।मानित्व-(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव-) का न होना, दम्भित्व-(दिखावटीपन-) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।13.8।। अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम।।