श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।14.2।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।14.2।।इस ( ज्ञानद्वारा प्राप्त हुई ) सिद्धिकी अव्यभिचारिता -- नित्यता दिखलाते हैं --, इस उपर्युक्त ज्ञानका भलीभाँति आश्रय लेकर? अर्थात् ज्ञानके साधनोंका अनुष्ठान करके? मुझ परमेश्वरकी समानताको -- मेरे साथ एकरूपताको प्राप्त हुए पुरुष सृष्टिके उत्पत्तिकालमें भी? फिर उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकालमें -- ब्रह्माके विनाशकालमें भी व्यथाको प्राप्त नहीं होते? अर्थात् गिरते नहीं। यह फलका वर्णन ज्ञानकी स्तुतिके लिये किया गया है। यहाँ साधर्म्य का अर्थ समानधर्मता नहीं है क्योंकि गीताशास्त्रमें क्षेत्रज्ञ और ईश्वरका भेद स्वीकार नहीं किया गया।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।14.2।। --,इदं ज्ञानं यथोक्तमुपाश्रित्य? ज्ञानसाधनम् अनुष्ठाय इत्येतत्? मम परमेश्वरस्य साधर्म्यं मत्स्वरूपताम् आगताः प्राप्ताः इत्यर्थः। न तु समानधर्मता साधर्म्यम्? क्षेत्रज्ञेश्वरयोः भेदानभ्युपगमात् गीताशास्त्रे। फलवादश्च अयं स्तुत्यर्थम् उच्यते। सर्गेऽपि सृष्टिकालेऽपि न उपजायन्ते। न उत्पद्यन्ते। प्रलये ब्रह्मणोऽपि विनाशकाले न व्यथन्ति च व्यथां न आपद्यन्ते? न च्यवन्ति इत्यर्थः।।क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगः ईदृशः भूतकारणम् इत्याह --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।14.2।।इस ज्ञानका आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मताको प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्गमें भी पैदा नहीं होते और महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होते।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।14.2।। इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे स्वरूप (सार्धम्यम्) को प्राप्त पुरुष सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते और प्रलयकाल में व्याकुल भी नहीं होते हैं।।