लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।5.25।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।5.25।। जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित वशमें है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।
।।5.25।। जितेन्द्रिय होकर जब मनुष्य ध्यानभ्यास करता है तब वह अपने मन की सभी पापपूर्ण वासनाओं को धो डालता है जिन्होनें आत्मस्वरूप को आवृत्त कर रखा है और जिसके कारण सत्य के विषय में असंख्य संशय उत्पन्न होते हैं। मन के शुद्ध होने पर आत्मानुभव भी सहजसिद्ध हो जाता है। आत्मज्ञान का उदय होने के साथ ही आवरण और विक्षेप रूप अज्ञान की आत्यंतिक निवृत्ति होकर स्वरूप में अवस्थान प्राप्त हो जाता है।विकास के सर्वोच्च शिखरआत्मस्थिति को प्राप्त करने के पश्चात् देह त्याग तक ज्ञानी पुरुष का क्या कर्तव्य होता है इस विषय में सामान्य धारणा यह है कि वह जगत् में विक्षिप्त के समान अथवा पाषाण प्रतिमा के समान रहेगा दिन में कमसेकम एक बार भोजन करेगा और घूमता रहेगा। लोग ऐसे पुरुष को समाज पर भार समझते हैं। परन्तु वेदों में मनुष्य के लिए कोई जीवित प्रेत का लक्ष्य नहीं बताया गया है और न ऋषियों ने किसी ऐसे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया है।आत्मसाक्षात्कार कोई दैवनिर्धारित शवगर्त की ओर धीरेधीरे बढ़ने वाला दुखद संचलन नहीं वरन् सत्य के राजप्रासाद तक पहँचने की सुखद यात्रा है। यह सत्य जीव का स्वयं सिद्ध स्वरूप ही है जिसके अज्ञान से वह अपने से ही दूर भटक गया था। आत्मानुभव में स्थित ज्ञानी पुरुष का सम्पूर्ण जीवन मनुष्यों का आत्म अज्ञान दूर करने और आत्मवैभव को प्रकट करने में समर्पित होता है। इसका संकेत भगवान् के शब्दों में सर्वभूत हिते रता के द्वारा किया गया है।यह लोक सेवा उसका स्वनिर्धारित कार्य और मनोरंजन दोनों ही है। उपाधियों के द्वारा सब की सेवा में अपने को समर्पित करते हुए ज्ञानी पुरुष स्वयं अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहता है।भगवान् आगे कहते हैं
5.25 लभन्ते obtain, ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom, ऋषयः the Rishis, क्षीणकल्मषाः those whose sins are destroyed, छिन्नद्वैधाः whose dualities are torn asunder, यतात्मानः those who are selfcontrolled, सर्वभूतहिते in the welfare of all beings, रताः rejoicing.
Commentary:
Sins are destroyed by the performance of Agnihotra (a daily obligatoyr ritual) and other Yajnas (vide notes on verse III. 13) without expectation of their fruits and by other selfless services. The duties vanish by constant meditation on the nondual Brahman. He never hurts others in thought, word and deed, and he is devoted to the welfare of all beings as he feels that all beings are but his own Self. (Cf.XII.4)