श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।10.39।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।10.39।। हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।10.39।।यदपि च सर्वभूतानां प्ररोहकारणं बीजं तन्मायोपाधिकं चैतन्यमहमेव। हे अर्जुन? मया विना यत्स्याद्भवेच्चरमचरं वा भूतं वस्तु तन्नास्त्येव। यतः सर्वं मत्कार्यमेवेत्यर्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।10.39।।यच्चापीति। अन्यत् किं वाच्यं मया विना किमपि नास्तीत्याह -- न तदस्ति विना मयेति। मत्प्रकृतिद्वयकार्यभूततया तथेति भावः।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।10.39।। व्याख्या--'यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदमहर्जुन'--यहाँ भगवान् समस्त विभूतियोंका सार बताते हैं कि सबका बीज अर्थात् कारण मैं ही हूँ। बीज कहनेका तात्पर्य है कि इस संसारका निमित्त कारण भी मैं हूँ और उपादान कारण भी मैं हूँ अर्थात् संसारको बनानेवाला भी मैं हूँ और संसाररूपसे बननेवाला भी मैं हूँ।भगवान्ने सातवें अध्यायके दसवें श्लोकमें अपनेको 'सनातन बीज', नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'अव्यय बीज' और यहाँ केवल 'बीज' बताया है। इसका तात्पर्य है कि मैं ज्योंकात्यों रहता हुआ ही संसाररूपसे प्रकट हो जाता हूँ और संसाररूपसे प्रकट होनेपर भी मैं उसमें ज्यों-का-त्यों व्यापक रहता हूँ।

'न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्'--संसारमें जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम, चर-अचर आदि जो कुछ भी देखनेमें आता है, वह सब मेरे बिना नहीं हो सकता। सब मेरेसे ही होते हैं अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ। इस वास्तविक मूल तत्त्वको जानकर साधककी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि जहाँ-कहीं जायँ अथवा मन-बुद्धिमें संसारकी जो कुछ बात याद आये, उन सबको भगवान्का ही स्वरूप माने। ऐसा माननेसे साधकको भगवान्का ही चिन्तन होगा, दूसरेका नहीं; क्योंकि तत्त्वसे भगवान्के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं।

यहाँ भगवान्ने कहा है कि मेरे सिवाय चर-अचर कुछ नहीं है अर्थात् सब कुछ मैं ही हूँ और अठारहवें अध्यायके चालीसवें श्लोकमें कहा है कि सत्त्व, रज और तम -- इन तीनों गुणोंके सिवाय कुछ नहीं है अर्थात् सब गुणोंका ही कार्य है। इस भेदका तात्पर्य है कि यहाँ भक्तियोगका प्रकरण है। इस प्रकरणमें अर्जुनने प्रश्न किया है कि मैं आपका कहाँकहाँ चिन्तन करूँ? इसलिये उत्तरमें भगवान्ने कहा कि तेरे मनमें जिस-जिसका चिन्तन होता है, वह सब मैं ही हूँ। परन्तु वहाँ (18। 40 में) सांख्ययोगका प्रकरण है। सांख्ययोगमें प्रकृति और पुरुष -- दोनोंके विवेककी तथा प्रकृतिमें सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी प्रधानता है। प्रकृतिका कार्य होनेसे मात्र सृष्टि त्रिगुणमयी है (टिप्पणी प0 567.2)। इसलिये वहाँ तीनों गुणोंसे रहित कोई नहीं है -- ऐसा कहा गया है।

विशेष बात

भगवान्ने 'अहमात्मा गुडाकेश' (10। 20) से लेकर 'बीजं तदहमर्जुन' (10। 39) तक जो बयासी विभूतियाँ कही हैं, उनका तात्पर्य छोटा-बड़ा, उत्तम-मध्यम-अधम बतानेमें नहीं है, प्रत्युत यह बतानेमें है कि कोई भी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि सामने आये तो उसमें भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये (टिप्पणी प0 568.1)। कारण कि मूलमें अर्जुनका प्रश्न यही था कि आपका चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ और किन-किन भावोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ? (गीता 10। 17)। उस प्रश्नके उत्तरमें चिन्तन करनेके लिये ही भगवान्ने अपनी विभूतियोंका संक्षिप्त वर्णन किया है।

जैसे यहाँ गीतामें भगवान्ने अर्जुनसे अपनी विभूतियाँ कही हैं, ऐसे ही श्रीमद्भागवतमें (ग्यारहवें स्कन्धके सोलहवें अध्यायमें) भगवान्ने उद्धवजीसे अपनी विभूतियाँ कही हैं। गीतामें कही कुछ विभूतियाँ भागवतमें नहीं आयी हैं और भागवतमें कही कुछ विभूतियाँ गीतामें नहीं आयी हैं। गीता और भागवतमें कही गयी कुछ विभूतियोंमें तो समानता है, पर कुछ विभूतियोंमें दोनों जगह अलगअलग बात आयी है; जैसे -- गीतामें भगवान्ने पुरोहितोंमें बृहस्पतिको अपनी विभूति बताया है -- 'पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्' (10। 24) और भागवतमें भगवान्ने पुरोहितोंमें वसिष्ठजीको अपनी विभूति बताया है -- 'पुरोधसां वसिष्ठोऽहम्' (11। 16। 22)। अब शङ्का यह होती है कि गीता और भागवतकी विभूतियोंका वक्ता एक होनेपर भी दोनोंमें एक समान बात क्यों नहीं मिलती? इसका समाधान यह है कि वास्तवमें विभूतियाँ कहनेमें भगवान्का तात्पर्य किसी वस्तु, व्यक्ति आदिकी महत्ता बतानेमें नहीं है, प्रत्युत अपना चिन्तन करानेमें है। अतः गीता और भागवत -- दोनों ही जगह कही हुई विभूतियोंमें भगवान्का चिन्तन करना ही मुख्य है। इस दृष्टिसे जहाँ-जहाँ विशेषता दिखायी दे, वहाँ-वहाँ वस्तु, व्यक्ति आदिकी विशेषता न देखकर केवल भगवान्की ही विशेषता देखनी चाहिये और भगवान्की ही तरफ वृत्ति जानी चाहिये।

 सम्बन्ध--अब आगेके श्लोकमें भगवान् अपनी दिव्य विभूतियोंके कथनका उपंसहार करते हैं।,

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।10.39।।बीजं प्ररोहकारणम्। एतन्मद्विभूतिज्ञानमन्तःकरणशोधकमिति सचयन्नाह -- हे अर्जुनेति। प्रकृतपसंहरन्विभूतिसंक्षेपमाह -- नेति। स्थावरजंगमं भूतं मयाविना यद्भवेत् तन्नास्ति मया त्यक्तस्य निरात्मकस्य शून्यत्वापत्तेर्मदात्मकं सर्वमित्यर्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।10.39।।सर्वभूतानां बीजमित्यनेन सर्वभूतानि मद्विभूतिरिति दर्शितम्? तदेवोपपादयति -- न तदस्तीति। मया विना भूतां किमपि नास्ति। उपादेयस्योपादानमन्तरेण स्थित्यसंभवात्।