अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।11.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।11.1।। अर्जुन बोले -- केवल मेरेपर कृपा करनेके लिये ही आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मतत्तव जाननेका वचन कहा, उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है।
।।11.1।।
न नेत्राकृतिर्यत्र यस्या न चान्तो न चादिश्च तैरन्यता नो विभूतेः।
ममाभेदता येन दत्ताऽव्यवाया गुरुं काशिराजं भजेऽजं स्वराजम्।।पूर्वाध्याये नानाविभूतीरुक्त्वाविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् इति विश्वात्मकं पारमेश्वरं रूपं भगवतान्तेऽभिहितं श्रुत्वा परमोत्कण्ठितस्तत्साक्षात्कर्तुमिच्छन्पूर्वोक्तमभिनन्दन्नर्जुन उवाच -- मदनुग्रहायेति। ममानुग्रहाय शोकनिवृत्त्युपकाराय परमं निरतिशयपुरुषार्थपर्यवसायि गुह्यं गोप्यं यस्मैकस्मैचिद्वक्तुमनर्हमपि अध्यात्मसंज्ञितं अध्यात्ममिति शब्दितमात्मानात्मविवेकविषयमशोच्यानन्वशोचस्त्वमित्यादिषष्ठाध्यायपर्यन्तं त्वंपदार्थप्रधानं यत्त्वया परमकारुणिकेन सर्वज्ञेनोक्तं वचो वाक्यं तेन वाक्येनाहमेषां हन्ता मयैते हन्यन्त इत्यादिविविधविपर्यासलक्षणो मोहोऽयमनुभवसाक्षिको विगतो विनष्टो मम। तत्रासकृदात्मनः सर्वविक्रियाशून्यत्वोक्तेः।
।।11.1।।अथातोऽष्टभिरध्यायैर्गुणैराश्रयधर्मतः। पुष्ट्यात्मना भगवता मोचितः स इतीर्यते।।1।।
स्वनिगमवचसा महिमज्ञाने भक्त्या स्वधर्ममर्यादा। कुण्डलावृतमुखभगवत्समाश्रयेणैव धर्मतः पुष्टिः।।2।।
मर्यादावचने पुष्टिः स्वकार्यार्थप्रदर्शने। इति मर्यादया मिश्रं पुष्टिरूपं प्रदर्श्यते।।3।।पूर्वाध्यायान्ते परमासाधारणयोगः विभूतेरक्षरैश्वर्यस्य स्वस्य विष्टभ्याहमिति श्लोके योगाख्यमैश्वर्यमुदीरितं तद्विशिष्टरूपं दिदृक्षुः पूर्वोक्तमभिनन्दयन्नर्जुन उवाच मदनुग्रहायेति चतुर्भिः। गुह्यमध्यात्मसंज्ञितंअहं सर्वस्य प्रभवः [10।8] इति स्वमाहात्म्यनिरूपकं मर्यादारूपं यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मम गतो मोहः ऐश्वर्याज्ञानरूपः। माहात्म्यनिरूपकं वाक्यमेव ते श्रुतं? न तु तथा स्वरूपं दृष्टं तवेति भावः।
।।11.1।। व्याख्या--'मदनुग्रहाय'--मेरा भजन करनेवालोंपर कृपा करके मैं स्वयं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ (गीता 10। 11) -- यह बात भगवान्ने केवल कृपा-परवश होकर कही। इस बातका अर्जुनपर बड़ा प्रभाव प़ड़ा, जिससे अर्जुन भगवान्की स्तुति करने लगे (10। 12 -- 15)। ऐसी स्तुति उन्होंने पहले गीतामें कहीं नहीं की। उसीका लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ कहते हैं कि केवल मेरेपर कृपा करनेके लिये ही आपने ऐसी बात कही है (टिप्पणी प0 573.2)।
'परमं गुह्यम्'--अपनी प्रधान-प्रधान विभूतियोंको कहनेके बाद भगवान्ने दसवें अध्यायके अन्तमें अपनी ओरसे कहा कि मैं अपने किसी अंशसे सम्पूर्ण जगत्को, अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डोंको व्याप्त करके स्थित हूँ (10। 42) अर्थात् भगवान्ने खुद अपना परिचय दिया कि मैं कैसा हूँ। इसी बातको अर्जुन परम गोपनीय मानते हैं
'अध्यात्मसंज्ञितम्'-- दसवें अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि जो मेरी विभूति और योगको तत्त्वसे जानता है अर्थात् सम्पूर्ण विभूतियोंके मूलमें भगवान् ही हैं और सम्पूर्ण विभूतियाँ भगवान्की सामर्थ्यसे ही प्रकट होती हैं तथा अन्तमें भगवान्में ही लीन हो जाती हैं -- ऐसा तत्त्वसे जानता है, वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है। इसी बातको अर्जुन अध्यात्मसंज्ञित मान रहे हैं (टिप्पणी प0 573.3)।
'यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम'--सम्पूर्ण जगत् भगवान्के किसी एक अंशमें है -- इस बातपर पहले अर्जुनकी दृष्टि नहीं थी और वे स्वयं इस बातको जानते भी नहीं थे, यही उनका मोह था। परन्तु जब भगवान्ने कहा कि सम्पूर्ण जगत्को अपने एक अंशमें व्याप्त करके मैं तेरे सामने बैठा हूँ, तब अर्जुनकी इस तरफ दृष्टि गयी कि भगवान् कितने विलक्षण हैं! उनके किसी एक अंशमें अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, उसमें स्थित रहती हैं और उसीमें लीन हो जाती हैं, और वे वैसे-के-वैसे रहते हैं! इस मोहके नष्ट होते ही अर्जुनको यह खयाल आया कि पहले जो मैं इस बातको नहीं जानता था, वह मेरा मोह ही था (टिप्पणी प0 574)। इसलिये अर्जुन यहाँ अपनी दृष्टिसे कहते हैं कि भगवन्! मेरा यह मोह सर्वथा चला गया है। परन्तु ऐसा कहनेपर भी भगवान्ने इसको (अर्जुनके मोहनाशको) स्वीकार नहीं किया; क्योंकि आगे उनचासवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि तेरेको व्यथा और मूढभाव (मोह) नहीं होना चाहिये -- 'मा ते व्यथा मा च विमूढभावः।'
सम्बन्ध-- मोह कैसे नष्ट हो गया-- इसीको आगेके श्लोकमें विस्तारसे कहते हैं।
।।11.1।।एवं विभूतीर्निरतिशयैश्वर्य च श्रुत्वा साक्षात्कर्तुमिच्छन्नर्जुन उवाच मदनुग्रहार्थ परममुत्कृष्टं परमपुरुषार्थसाधनत्वात् गोप्यमध्यात्मसंक्षितं वजस्त्वंपदार्थप्रधानमशोच्यानित्यादि यत्त्वयोक्तं तेन ममायं मोहोऽहंममेतिप्रत्ययजनकः कर्तृत्वादिहहितात्मस्वरुपावरको विगतो विशेषेण निवृत्तः।
।।11.1।।पूर्वस्मिन्नध्याये योगो विभूतिश्च व्याख्येयत्वेन प्रतिज्ञातौएतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति इति।आत्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। भूयः कथय इतीतरेण च श्रोतव्यत्वेन प्रार्थितौ। तत्रअहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः इति संक्षेपेण योगो भगवता सर्वभूताधारत्वलक्षण उक्तः प्राग्विभूतिकथनात्। तदन्ते चविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् इति कुसूलेन धान्यमिव मयेदं जगद्विष्टब्धमित्युक्त्या स एव स्मारितस्तदेव भगवतः सर्वभूताधारत्वं साक्षात्कर्तुकामोऽर्जुन उवाच -- मदनुग्रहायेति। मयि अनुग्रहोऽनुकम्पा तदर्थं मदनुग्रहाय। परमं सद्यः शोकमोहनिवर्तकत्वेनोत्कृष्टं गुह्यं गोप्यं अध्यात्मसंज्ञितमात्मानात्मविवेकार्थं शास्त्रमध्यात्मं तत्संज्ञितं यत्त्वया वचःअशोच्यानन्वशोचः इत्यादिना षष्ठाध्यायपर्यन्तं त्वंपदार्थशुद्धिप्रधानंनायं हन्ति न हन्यते इत्यात्मनोऽकर्तृत्वाभोक्तृत्वप्रतिपादकं तेन मम मोहोऽविवेकोऽयं विशेषेण गतो नष्टः। अत्र प्रथमे पादेऽक्षराधिक्यमार्षम्।