श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।

त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।11.2।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।11.2।।  हे कमलनयन ! सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलय मैंने विस्तारपूर्वक आपसे ही सुना है और आपका अविनाशी माहात्म्य भी सुना है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।11.2।।तथा सप्तमादारभ्य दशमपर्यन्तं तत्पदार्थनिर्णयप्रधानमपि भगवतो वचनं मया श्रुतमित्याह -- भूतानां भवाप्ययावुत्पत्तिप्रलयौ त्वत्त एव भवन्तौ त्वत्त एव विस्तरशो मया श्रुतौ नतु संक्षेपेणासकृदित्यर्थः। कमलस्य पत्रे इव दीर्घे रक्तान्ते परममनोरमे अक्षिणी यस्य तव स त्वं हे कमलपत्राक्ष। अतिसौन्दर्यातिशयोल्लेखोयं प्रेमातिशयात्। न केवलं भवाप्ययौ त्वत्तः श्रुतौ। महात्मनस्तव भावो माहात्म्यमनतिशयैश्वर्यं विश्वसृष्ट्यादिकर्तृत्वेऽप्यविकारित्वं शुभाशुभकर्मकारयितृत्वेऽप्यवैषम्यं बन्धमोक्षादिविचित्रफलदातृत्वेऽप्यसङ्गौदासीन्यमन्यदपि सर्वात्मत्वादि सोपाधिकं निरुपाधिकमपि चाव्ययमक्षयं मया श्रुतमिति परिणतमनुवर्तते चकारात्।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।11.2।।भवाप्ययाविति। जगत्कारणत्वं तव मया श्रुतं? माहात्म्यमपि च सर्वं तदिदं विभूतिरूपं तव मयेति।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।11.2।। व्याख्या --भवाप्ययौ हि भूतानां त्वत्तः श्रुतौ विस्तरशो मया -- भगवान्ने पहले कहा था-- मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय हूँ, मेरे सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है (7। 6 7); सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं (7। 12); प्राणियोंके अलग-अलग अनेक तरहके भाव मेरेसे ही होते हैं (10। 4 5); सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही होते हैं और मेरेसे ही सब चेष्टा करते हैं (10। 8); प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ (10। 20); और सम्पूर्ण सृष्टियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ (10। 32)। इसीको लेकर अर्जुन यहाँ कहते हैं कि मैंने आपसे प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयका वर्णन विस्तारसे सुना है। इसका तात्पर्य प्राणियोंकी उत्पत्ति और विनाश सुननेसे नहीं है, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह सुननेसे है कि सभी प्राणी आपसे ही उत्पन्न होते हैं, आपमें ही रहते हैं और आपमें ही लीन हो जाते हैं अर्थात् सब कुछ आप ही हैं।

   'माहात्म्यमपि चाव्ययम्'-- आपने दसवें अध्यायके सातवें श्लोकमें बताया कि मेरी विभूति और योगको जो,तत्त्वसे जानता है, वह अविकम्प भक्तियोगसे युक्त हो जाता है। इस प्रकार आपकी विभूति और योगको तत्त्वसे जाननेका माहात्म्य भी मैंने सुना है।माहात्म्यको 'अव्यय' कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्की विभूति और योगको तत्त्वसे जाननेपर भगवान्में जो भक्ति होती है, प्रेम होता है, भगवान्से अभिन्नता होती है, वह सब अव्यय है। कारण कि भगवान् अव्यय, नित्य हैं तो उनकी भक्ति, प्रेम भी अव्यय ही होगा।

 सम्बन्ध --अब आगेके दो श्लोकोंमें अर्जुन विराट्रूपके दर्शनके लिये भगवान्से प्रार्थना करते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।11.2।।किंचायं वासुदेवो मम मातुलेय इति त्वयि मनुष्यत्वप्रतीत्युत्पादकल्येश्वरस्वरुपावरकस्य मोहस्य निवर्तकमपि वचो मया श्रुतमित्याशयवानाह। भवाप्ययौ उत्पत्तिप्रलयौ भूतानां त्वत्तो भवति इति त्वत्तो मया श्रुतौ।अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते इत्यादिना तदपि न संक्षेपतोऽपि त्वसकृदित्याह -- विस्तरश इति। कमलपत्रे इव विशाले रक्तान्ते अक्षिणी यस्य सः कमपपत्राक्ष इत्यङ्गीकृतकमलपत्राक्षरुपात्त्वत्तएव भूतानां पालनमिति द्योतनाय तथा संबोधयनम्। महात्मो भावो माहात्म्यमपि त्वदीयमव्ययमपक्षयरहितमैश्वर्यं मया श्रुतमिति विपरिणोमेनानुषज्जाते।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।11.2।।भवेति। तथा सप्तमाध्यायमारभ्य दशमपर्यन्तं त्वया भूतानां भवाप्ययावप्युक्तौअहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते इति तावपि मया विस्तरशरस्त्वत्तः श्रुतौ। हे कमलपत्राक्ष? अव्ययं माहात्म्यमपिन च मां तानि कर्माणि लिम्पन्ति इति विषमसृष्टिकर्तुरपि वैषम्यनैर्घृण्यदोषो नास्ति जगत्कर्तुरपि विकारगन्धो नास्ति इत्येवमादिरूपतत्पदार्थशुद्धिप्रधानं श्रुतमित्यनुषङ्गः।