श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्ितमान्मे प्रियो नरः।।12.19।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.19।।जो शत्रु और मित्रमें तथा मान-अपमानमें सम है और शीतउष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःखमें सम है एवं आसक्तिसे रहित है, और जो निन्दा-स्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील, जिस-किसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट, रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममता-आसक्तिसे रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।12.19।।तुल्येति। किंच निन्दा दोषकथनं स्तुतिर्गुणकथनं ते दुःखसुखजनकतया तुल्ये यस्य स तथा। मौनी संयतवाक् नतु शरीरयात्रानिर्वाहाय वाग्व्यापारोऽपेक्षित एव नेत्याह। संतुष्टो येनकेनचित्स्वप्रयत्नमन्तरेणैव बलवत्प्रारब्धकर्मोपनीतेन शरीरस्थितिहेतुमात्रेणाशनादिना संतुष्टः निवृत्तस्पृहः। किंच अनिकेतो नियतनिवासरहितः। स्थिरा परमार्थवस्तुविषया मतिर्यस्य स स्थिरमतिः ईदृशो यो भक्तिमान् स मे प्रियो नरः। अत्र पुनःपुनर्भक्तेरुपादानं भक्तिरेवापवर्गस्य पुष्कलं कारणमिति द्रढयितुम्।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।12.19।।तुल्येति। स्वनिन्दास्तुती तुल्ये यस्य? न भगवत इति ()। तथा मौनी संयतवाक्। स्वयं च येनकेनचित् सन्तुष्टः? भगवति तु तेनैवोपभोगं साधयमानः। अनिकेत इतितादृशस्य गृहस्थानं विनाशकं इति सूचयति। एवं बाधराम्भावनयाऽनिकेतत्वमुक्तम्। तत्रापिबाधसम्भावनायां तु नैकान्ते वास इष्यते इत्याशयेनास्य विष्णोर्निकेतने प्रतिमायां मन्दिरे वा भगवदीयेषु तन्निवासेषु वा स्थिरा मतिर्यस्येत्येकं वा पदम्।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।12.19।। व्याख्या--'समः शत्रौ च मित्रे च'--यहाँ भगवान्ने भक्तमें व्यक्तियोंके प्रति होनेवाली समताका वर्णन किया है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने तथा राग-द्वेषसे रहित होनेके कारण सिद्ध भक्तका किसीके भी प्रति शत्रु-मित्रका भाव नहीं रहता। लोग ही उसके व्यवहारमें अपने स्वभावके अनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलताको देखकर उसमें मित्रता या शत्रुताका आरोप कर लेते हैं। साधारण लोगोंका तो कहना ही क्या है, सावधान रहनेवाले साधकोंका भी उस सिद्ध भक्तके प्रति मित्रता और शत्रुताका भाव हो सकता है। परंतु भक्त अपने-आपमें सदैव पूर्णतया सम रहता है। उसके हृदयमें कभी किसीके प्रति शत्रु-मित्रका भाव उत्पन्न नहीं होता।

मान लिया जाय कि भक्तके प्रति शत्रुता और मित्रताका भाव रखनेवाले दो व्यक्तियोंमें धनके बँटवारेसे सम्बन्धित कोई विवाद हो जाय और उसका निर्णय करानेके लिये वे भक्तके पास जायँ, तो भक्त धनका बँटवारा करते समय शत्रुभाववाले व्यक्तिको कुछ अधिक और मित्र-भाववाले व्यक्तिको कुछ कम धन देगा। यद्यपि भक्तके इस निर्णय-(व्यवहार-) में विषमता दीखती है, तथापि शत्रु-भाववाले व्यक्तिको इस निर्णयमें समता दिखायी देगी कि इसने पक्षपातरहित बँटवारा किया है। अतः भक्तके इस निर्णयमें विषमता (पक्षपात) दीखनेपर भी वास्तवमें यह (समताको उत्पन्न करनेवाला होनेसे) समता ही कहलायेगी।

  उपर्युक्त पदोंसे यह भी सिद्ध होता है कि सिद्ध भक्तके साथ भी लोग (अपने भावके अनुसार) शत्रुता-मित्रताका व्यवहार करते हैं और उसके व्यवहारसे अपनेको उसका शत्रु-मित्र मान लेते हैं। इसीलिये उसे यहाँ शत्रु-मित्रसे रहित न कहकर 'शत्रु-मित्रमें' सम कहा गया है।

  'तथा मानापमानयोः'-- मान-अपमान परकृत क्रिया है, जो शरीरके प्रति होती है। भक्तकी अपने कहलानेवाले शरीरमें न तो अहंता होती है, न ममता। इसलिये शरीरका मानअपमान होनेपर भी भक्तके अन्तःकरणमें कोई विकार (हर्ष-शोक) पैदा नहीं होता। वह नित्य-निरन्तर समतामें स्थित रहता है।

   'शीतोष्णसुखदुःखेषु समः'-- इन पदोंमें दो स्थानोंपर सिद्ध भक्तकी समता बतायी गयी है --

   (1) शीत-उष्णमें समता अर्थात् इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंसे संयोग होनेपर अन्तःकरणमें कोई विकार न होना।(2) सुख-दुःखमें समता अर्थात् धनादि पदार्थोंकी प्राप्ति या अप्राप्ति होनेपर अन्तःकरणमें कोई विकार न होना।'शीतोष्ण' शब्दका अर्थ 'सरदी-गरमी' होता है। सरदी-गरमी त्वगिन्द्रियके विषय हैं। भक्त केवल त्वगिन्द्रियके विषयोंमें ही सम रहता हो, ऐसी बात नहीं है। वह तो समस्त इन्द्रियोंके विषयोंमें सम रहता है। अतः यहाँ 'शीतोष्ण' शब्द समस्त इन्द्रियोंके विषयोंका वाचक है। प्रत्येक इन्द्रियका अपने-अपने विषयके साथ संयोग होनेपर भक्तको उन (अनुकूल या प्रतिकूल) विषयोंका ज्ञान तो होता है, पर उसके अन्तःकरणमें, हर्ष-शोकादि विकार नहीं होते। वह सदा सम रहता है।

   साधारण मनुष्य धनादि अनुकूल पदार्थोंकी प्राप्तिमें सुख तथा प्रतिकूल पदार्थोंकी प्राप्तिमें दुःखका अनुभव करते हैं। परन्तु उन्हीं पदार्थोंके प्राप्त होने अथवा न होनेपर सिद्ध भक्तके अन्तःकरणमें कभी किञ्चिन्मात्र भी राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विकार नहीं होते। वह प्रत्येक परिस्थितिमें सम रहता है।

   'सुख-दुःखमें' सम रहने तथा 'सुख-दुःखसे' रहित' होने -- दोनोंका गीतामें एक ही अर्थमें प्रयोग हुआ है। सुख-दुःखकी परिस्थिति अवश्यम्भावी है; अतः उससे रहित होना सम्भव नहीं है। इसलिये भक्त अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियोंमे सम रहता है। हाँ, अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर अन्तःकरणमें जो हर्ष-शोक होते हैं, उनसे रहित हुआ जा सकता है। इस दृष्टिसे गीतामें जहाँ 'सुख-दुःखमें' सम होनेकी बात आयी है, वहाँ सुखदुःखकी परिस्थितिमें सम समझना चाहिये और जहाँ सुखदुःखसे रहित होनेकी बात आयी है, वहाँ (अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितिकी प्राप्तिसे होनेवाले) हर्ष-शोकसे रहित समझना चाहिये।

   'सङ्गविवर्जितः'-- सङ्ग शब्दका अर्थ सम्बन्ध (संयोग) तथा आसक्ति दोनों ही होते हैं। मनुष्यके लिये यह सम्भव नहीं है कि वह स्वरूपसे सब पदार्थोंका सङ्ग अर्थात् सम्बन्ध छोड़ सके; क्योंकि जबतक मनुष्य जीवित रहता है, तबतक शरीर-मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ उसके साथ रहती ही हैं। हाँ, शरीरसे भिन्न कुछ पदार्थोंका त्याग स्वरूपसे किया जा सकता है। जैसे किसी व्यक्तिने स्वरूपसे प्राणीपदार्थोंका सङ्ग छो़ड़ दिया, पर उसके अन्तःकरणमें अगर उनके प्रति किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति बनी हुई है, तो उन प्राणीपदार्थोंसे दूर होते हुए भी वास्तवमें उसका उनसे सम्बन्ध बना हुआ ही है। दूसरी ओर, अगर अन्तःकरणमें प्राणीपदार्थोंकी किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं है, तो पास रहते हुए भी वास्तवमें उनसे सम्बन्ध नहीं है। अगर पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही मुक्ति होती, तो मरनेवाला हरेक व्यक्ति मुक्त हो जाता क्योंकि उसने तो अपने शरीरका भी त्याग कर दिया परन्तु ऐसी बात है नहीं। अन्तःकरणमें आसक्तिके रहते हुए शरीरका त्याग करनेपर भी संसारका बन्धन बना रहता है। अतः मनुष्यको सांसारिक आसक्ति ही बाँधनेवाली है, न कि सांसारिक प्राणीपदार्थोंका स्वरूपसे सम्बन्ध।

   आसक्तिको मिटानेके लिये पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करना भी एक साधन हो सकता है; किंतु खास जरूरत आसक्तिका सर्वथा त्याग करनेकी ही है। संसारके प्रति यदि किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति है, तो उसका चिन्तन अवश्य होगा। इस कारण वह आसक्ति साधकको क्रमशः कामना, क्रोध, मूढ़ता आदिको प्राप्त कराती हुई उसे पतनके गर्तमें गिरानेका हेतु बन सकती है (गीता 2। 62 63)।

   भगवान्ने दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें 'परं दृष्ट्वा निवर्तते'पदोंसे भगवत्प्राप्तिके बाद आसक्तिकी सर्वथा निवृत्तिकी बात कही है। भगवत्प्राप्तिसे पहले भी आसक्तिकी निवृत्ति हो सकती है, पर भगवत्प्राप्तिके बाद तो आसक्ति सर्वथा निवृत्त हो ही जाती है। भगवत्प्राप्त महापुरुषमें आसक्तिका सर्वथा अभाव होता ही है। परन्तु भगवत्प्राप्तिसे पूर्व साधनावस्थामें आसक्तिका सर्वथा अभाव होता ही नहीं -- ऐसा नियम नहीं है। साधनावस्थामें भी आसक्तिका सर्वथा अभाव होकर साधकको तत्काल भगवत्प्राप्ति हो सकती है। (गीता 5। 21 16। 22)।

   आसक्ति न तो परमात्माके अंश शुद्ध चेतनमें रहती है और न जड-(प्रकृति-) में ही। वह जड और चेतनके सम्बन्धरूप 'मैं'-पनकी मान्यतामें रहती है। वही आसक्ति बुद्धि, मन, इन्द्रियों और विषयों-(पदार्थों-) में प्रतीत होती है। अगर साधकके 'मैं'-पनकी मान्यतामें रहनेवाली आसक्ति मिट जाय, तो दूसरी जगह प्रतीत होनेवाली आसक्ति स्वतः मिट जायगी। आसक्तिका कारण अविवेक है। अपने विवेकको पूर्णतया महत्त्व न देनेसे साधकमें आसक्ति रहती है। भक्तमें अविवेक नहीं रहता। इसलिये वह आसक्तिसे सर्वथा रहित होता है।

   अपने अंशी भगवान्से विमुख होकर भूलसे संसारको अपना मान लेनेसे संसारमें राग हो जाता है और राग होनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है। संसारसे माना हुआ अपनापन सर्वथा मिट जानेसे बुद्धि सम हो जाती है। बुद्धिके सम होनेपर स्वयं आसक्ति रहित हो जाता है।

मार्मिक बात

वास्तवमें जीवमात्रकी भगवान्के प्रति स्वाभाविक अनुरक्ति (प्रेम) है। जबतक संसारके साथ भूलसे माना हुआ अपनेपनका सम्बन्ध है, तबतक वह अनुरक्ति प्रकट नहीं होती, प्रत्युत संसारमें आसक्तिके रूपमें प्रतीत होती है। संसारकी आसक्ति रहते हुए भी वस्तुतः भगवान्की अनुरक्ति मिटती नहीं। अनुरक्तिके प्रकट होते ही आसक्ति (सूर्यका उदय होनेपर अंधकारकी तरह) सर्वथा निवृत्त हो जाती है। ज्यों-ज्यों संसारसे विरक्ति होती है, त्यों-ही-त्यों भगवान्में अनुरक्ति प्रकट होती है। यह नियम है कि आसक्तिको समाप्त करके विरक्ति स्वयं भी उसी प्रकार शान्त हो जाती है, जिस प्रकार लकड़ीको जलाकर अग्नि। इस प्रकार आसक्ति और विरक्तिके न रहनेपर स्वतः-स्वाभाविक अनुरक्ति-(भगवत्प्रेम-) का स्रोत प्रवाहित होने लगता है। इसके लिये किञ्चिन्मात्र भी कोई उद्योग नहीं करना पड़ता। फिर भक्त सब प्रकारसे भगवान्के पूर्ण समर्पित हो जाता है। उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान्की प्रियताके लिये ही होती हैं। उससे प्रसन्न होकर भगवान् उस भक्तको अपना प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त उस प्रेमको भी भगवान्के ही प्रति लगा देता है। इससे भगवान् और आनन्दित होते हैं तथा पुनः उसे प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त पुनः उसे भगवान्के प्रति लगा देता है। इस प्रकार भक्त और भगवान्के बीच प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके आदान-प्रदानकी यह लीला चलती रहती है।

   'तुल्यनिन्दास्तुतिः'-- निन्दा-स्तुति मुख्यतः नामकी होती है। यह भी परकृत क्रिया है। लोग अपने स्वभावके अनुसार भक्तकी निन्दा या स्तुति किया करते हैं। भक्तमें अपने कहलानेवाले नाम और शरीरमें लेशमात्र भी अहंता और ममता नहीं होती। इसलिये निन्दास्तुतिका उसपर लेशमात्र भी असर नहीं पड़ता। भक्तका न तो अपनी स्तुति या प्रशंसा करनेवालेके प्रति राग होता है और न निन्दा करनेवालेके प्रति द्वेष ही होता है। उसकी दोनोंमें ही समबुद्धि रहती है।

   साधारण मनुष्योंके भीतर अपनी प्रशंसाकी कामना रहा करती है, इसलिये वे अपनी निन्दा सुनकर दुःखका और स्तुति सुनकर सुखका अनुभव करते हैं। इसके विपरीत (अपनी प्रशंसा न चाहनेवाले) साधक पुरुष निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं। परन्तु नाममें किञ्चिन्मात्र भी अपनापन न होनेके कारण सिद्ध भक्त इन दोनों भावोंसे रहित होता है अर्थात् निन्दास्तुतिमें सम होता है। हाँ, वह भी कभीकभी लोकसंग्रहके लिये साधककी तरह (निन्दामें सावधान तथा स्तुतिमें लज्जित होनेका) व्यवहार कर सकता है।

  

   भक्तकी सर्वत्र भगवद्बुद्धि होनेके कारण भी उसका निन्दा-स्तुति करनेवालोंमें भेदभाव नहीं होता। ऐसा भेदभाव न रहनेसे ही यह प्रतीत होता है कि वह निन्दास्तुतिमें सम है।भक्तके द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभकर्मोंके होनेमें वह केवल भगवान्को हेतु मानता है। फिर भी उसकी कोई निन्दा या स्तुति करे, तो उसके चित्तमें कोई विकार पैदा नहीं होता।

   'मौनी'-- सिद्ध भक्तके द्वारा स्वतःस्वाभाविक भगवत्स्वरूपका मनन होता रहता है, इसलिये उसको 'मौनी' अर्थात् मननशील कहा गया है। अन्तःकरणमें आनेवाली प्रत्येक वृत्तिमें उसको वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) सब कुछ भगवान् ही हैं -- यही दीखता है। इसलिये उसके द्वारा निरन्तर ही भगवान्का मनन होता है।

   यहाँ 'मौनी' पदका अर्थ वाणीका मौन रखनेवाला नहीं माना जा सकता; क्योंकि ऐसा माननेसे वाणीके द्वारा भक्तिका प्रचार करनेवाले भक्त पुरुष भक्त ही नहीं कहलायेँगे। इसके सिवाय अगर वाणीका मौन रखनेमात्रसे भक्त होना सम्भव होता, तो भक्त होना बहुत ही आसान हो जाता और ऐसे भक्त अंसख्य बन जाते; किंतु संसारमें भक्तोंकी संख्या अधिक देखनेमें नहीं आती। इसके सिवाय आसुर स्वभाववाला दम्भी व्यक्ति भी हठपूर्वक वाणीका मौन रख सकता है। परन्तु यहाँ भगवत्प्राप्त सिद्ध भक्तके लक्षण बताये जा रहे हैं। इसलिये यहाँ 'मौनी' पदका अर्थ 'भगवत्स्वरूपका मनन करनेवाला' ही मानना युक्तिसंगत है।

   'संतुष्टो येन केनचित्'-- दूसरे लोगोंको भक्त 'संतुष्टो येन केनचित्' अर्थात् प्रारब्धानुसार शरीरनिर्वाहके लिये जो कुछ मिल जाय, उसीमें संतुष्ट दीखता है परन्तु वास्तवमें भक्तकी संतुष्टिका कारण कोई सांसारिक पदार्थ, परिस्थिति आदि नहीं होती। एकमात्र भगवान्में ही प्रेम होनेके कारण वह नित्यनिरन्तर भगवान्में ही संतुष्ट रहता है। इस संतुष्टिके कारण वह संसारकी प्रत्येक अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिमें सम रहता है क्योंकि उसके अनुभवमें प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भगवान्के मङ्लमय विधानसे ही आती है। इस प्रकार प्रत्येक परिस्थितिमें नित्यनिरन्तर संतुष्ट रहनेके कारण उसे 'संतुष्टो येन केनचित्' कहा गया है।

   'अनिकेतः'-- जिनका कोई निकेत अर्थात् वासस्थान नहीं है, वे ही अनिकेत हों -- ऐसी बात नहीं है। चाहे गृहस्थ हों या साधुसंन्यासी, जिनकी अपने रहनेके स्थानमें ममताआसक्ति नहीं है, वे सभी अनिकेत हैं। भक्तका रहनेके स्थानमें और शरीर (स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर) में लेशमात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिये उसको 'अनिकेतः' कहा गया है।

   'स्थिरमतिः'-- भक्तकी बुद्धिमें भगवत्तत्त्वकी सत्ता और स्वरूपके विषयमें कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान) नहीं होता। अतः उसकी बुद्धि भगवत्तत्त्वके ज्ञानसे कभी किसी अवस्थामें विचलित नहीं होती। इसलिये उसको 'स्थिरमतिः' कहा गया है। भगवत्तत्त्वको जाननेके लिये उसको कभी किसी प्रमाण या शास्त्रविचार, स्वाध्याय आदिकी जरूरत नहीं रहती क्योंकि वह स्वाभाविकरूपसे भगवत्तत्त्वमें तल्लीन रहता है।

   स्थिरबुद्धि होनेमें कामनाएँ ही बाधक होती हैं (गीता 2। 44)। अतः कामनाओंके त्यागसे ही स्थिरबुद्धि होना सम्भव है (गीता 2। 55)। अन्तःकरणमें सांसारिक (संयोगजन्य) सुखकी कामना रहनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है। यह आसक्ति संसारको असत्य या मिथ्या जान लेनेपर भी मिटती नहीं जैसे -- सिनेमामें दीखनेवाले दृश्य(प्राणीपदार्थों) को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है अथवा जैसे भूतकालकी बातोंको याद करते समय मानसिक दृष्टिके सामने आनेवाले दृश्यको मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जबतक भीतरमें सांसारिक सुखकी कामना है, तबतक संसारको मिथ्या माननेपर भी संसारकी आसक्ति नहीं मिटती। आसक्तिसे संसारकी स्वतन्त्र सत्ता दृढ़ होती है। सांसारिक सुखकी कामना मिटनेपर आसक्ति स्वतः मिट जाती है। आसक्ति मिटनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और एक भगवत्तत्त्वमें बुद्धि स्थिर हो जाती है।

   'भक्तिमान्मे प्रियो नरः -- भक्तिमान्' पदमें भक्ति शब्दके साथ नित्ययोगके अर्थमें 'मतुप्' प्रत्यय है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यमें स्वाभाविकरूपसे भक्ति (भगवत्प्रेम) रहती है। मनुष्यसे भूल यही होती है कि वह भगवान्को छोड़कर संसारकी भक्ति करने लगता है। इसलिये उसे स्वाभाविक रहनेवाली भगवद्भक्तिका रस नहीं मिलता और उसके जीवनमें नीरसता रहती है। सिद्ध भक्त हरदम भक्तिरसमें तल्लीन रहता है। इसलिये उसको 'भक्तिमान्' कहा गया है। ऐसा भक्तिमान् मनुष्य भगवान्को प्रिय होता है।

   'नरः'पद देनेका तात्पर्य है कि भगवान्को प्राप्त करके जिसने अपना मनुष्यजीवन सफल (सार्थक) कर लिया है, वही वास्तवमें नर (मनुष्य) कहलानेयोग्य है। जो मनुष्यशरीरको पाकर सांसारिक भोग और संग्रहमें ही लगा हुआ है, वह नर (मनुष्य) कहलानेयोग्य नहीं है।

   [इन दो श्लोकोंमें भक्तके सदा-सर्वदा समभावमें स्थित रहनेकी बात कही गयी है। शत्रुमित्र, मानअपमान, शीतउष्ण, सुख-दुःख और निन्दास्तुति -- इन पाँचों द्वन्द्वोंमें समता होनेसे ही साधक पूर्णतः समभावमें स्थित कहा जा सकता है।]प्रकरणसम्बन्धी विशेष बात

   भगवान्ने पहले प्रकरणके अन्तर्गत तेरहवेंचौदहवें श्लोकोंमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंका वर्णन करके अन्तमें 'यो मद्भक्तः स मे प्रियः' कहा, दूसरे प्रकरणके अन्तर्गत पन्द्रहवें श्लोकके अन्तमें 'यः स च मे प्रियः' कहा, तीसरे प्रकरणके अन्तर्गत सोलहवें श्लोकके अन्तमें 'यो मद्भक्तः स मे प्रियः' कहा, चौथे प्रकरणके अन्तर्गत सत्रहवें श्लोकके अन्तमें 'भक्तिमान् यः स म प्रियः' कहा और अन्तिम पाँचवें प्रकरणके अन्तर्गत अठारहवेंउन्नीसवें श्लोकोंके अन्तमें 'भक्तिमान् मे प्रियो नरः' कहा। इस प्रकार भगवान्ने पाँच बार अलगअलग मे प्रियः पद देकर सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको पाँच भागोंमें विभक्त किया है। इसलिये सात श्लोकोंमें बताये गये सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको एक ही प्रकरणके अन्तर्गत नहीं समझना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि यदि यह एक ही प्रकरण होता, तो एक लक्षणको बारबार न कहकर एक ही बार कहा जाता, और 'मे प्रियः' पद भी एक ही बार कहे जाते।पाँचों प्रकरणोंके अन्तर्गत सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें रागद्वेष और हर्षशोकका अभाव बताया गया है। जैसे, पहले प्रकरणमें 'निर्ममः' पदसे रागका,'अद्वेष्टा' पदसे द्वेषका और 'समदुःखसुखः' पदसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। दूसरे प्रकरणमें 'हर्षामर्षभयोद्वेगैः' पदसे रागद्वेष और हर्षशोकका अभाव बताया गया है। तीसरे प्रकरणमें 'अनपेक्षः' पदसे रागका,'उदासीनः' पदसे द्वेषका और 'गतव्यथः' पदसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। चौथे प्रकरणमें 'न काङ्क्षति' पदोंसे रागका,'न द्वेष्टि' पदोंसे द्वेषका और 'न हृष्यति' तथा 'न' 'शोचति' पदोंसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। अन्तिम पाँचवें प्रकरणमें 'सङ्गविवर्जितः' पदसे रागका,'संतुष्टः' पदसे एकमात्र भगवान्में ही सन्तुष्ट रहनेके कारण द्वेषका और 'शीतोष्णसुखदुःखेषु समः' पदोंसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है।अगर सिद्ध भक्तोंके लक्षण बतानेवाला (सात श्लोकोंका) एक ही प्रकरण होता, तो सिद्ध भक्तमें रागद्वेष, हर्षशोकादि विकारोंके अभावकी बात कहीं शब्दोंसे और कहीं भावसे बारबार कहनेकी जरूरत नहीं होती। इसी तरह चौदहवें और उन्नीसवें श्लोकमें 'सन्तुष्टः' पदका तथा तेरहवें श्लोकमें 'समदुःखसुखः' और अठारहवें श्लोकमें शीतोष्णसुखदुःखेषु समः पदोंका भी सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें दो बार प्रयोग हुआ है, जिससे (सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंका एक ही प्रकरण माननेसे) पुनरुक्तिका दोष आता है। भगवान्के वचनोंमें पुनरुक्तिका दोष आना सम्भव ही नहीं। अतः सातों श्लोकोंके विषयको एक प्रकरण न मानकर अलगअलग पाँच प्रकरण मानना ही युक्तिसंगत है।

   इस तरह पाँचों प्रकरण स्वतन्त्र (भिन्नभिन्न) होनेसे किसी एक प्रकरणके भी सब लक्षण जिसमें हों, वही भगवान्का प्रिय भक्त है। प्रत्येक प्रकरणमें सिद्ध भक्तोंके अलगअलग लक्षण बतानेका कारण यह है कि साधनपद्धति, प्रारब्ध, वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदिके भेदसे सब भक्तोंकी प्रकृति(स्वभाव) में परस्पर थोड़ाबहुत भेद रहा करता है। हाँ, रागद्वेष, हर्षशोकादि विकारोंका अत्यन्ताभाव एवं समतामें स्थिति और समस्त प्राणियोंके हितमें रति सबकी समान ही होती है।

   साधकको अपनी रुचि, विश्वास, योग्यता, स्वभाव आदिके अनुसार जो प्रकरण अपने अनुकूल दिखायी दे, उसीको आदर्श मानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनानेमें लग जाना चाहिये। किसी एक प्रकरणके भी यदि पूरे लक्षण अपनेमें न आयें, तो भी साधकको निराश नहीं होना चाहिये। फिर सफलता अवश्यम्भावी है।

सम्बन्ध --पीछेके सात श्लोकोंमें भगवान्ने सिद्ध भक्तोंके कुल उनतालीस लक्षण बताये। अब आगेके श्लोकमें भगवान् अर्जुनके प्रश्नका स्पष्ट रीतिसे उत्तर देते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।12.19।।किंचैतदपि तत्त्वविदो विशेषणमित्याह -- तुल्येति। दोषानुर्णनं निन्दा। गुणानुकीर्तनं स्तुतिः। तुल्ये निन्दास्तुती यस्य सः निन्दास्तुतिभ्यां विषादं हर्षं च न प्राप्नोतीत्यर्थः। अतएव स्वयमपि कस्यचिन्निन्दां स्तुतिं वा न करोतीत्याह। मौनी यतवाक्। ननु वाग्व्यापारस्य चित्तानुकूलपदार्थलाभार्थमपेक्षितत्वात्कथं मौनीति चेत्तत्राह। संतुष्टो येनकेनचित् प्रारब्धवशादागतेन शरीरस्थिहेतुमात्रेण समीचीनेनासमीचीनेन वा सभ्यक् तुष्टः तदतिरिक्ते तृष्णाशून्यस्तदभावाच्च विषयप्राप्त्यर्थवाग्यव्यापारादिवर्जित इत्यर्थः। तथाच स्मृतिः -- येनकेनचिदाच्छन्नो येनकेनचिदाशितः। यत्रक्वचनशायी स्यात्तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। इति। वासस्थानमपि तस्य नियतं नास्तीत्याह। अनिकेतः निकेत आश्रयो निवासो नियतो न विद्यते यस्यः सः। तथाच स्मृत्यन्तरंन कुड्यां नोदके सङ्गो न चैले न त्रिपष्करे। नागारे नासने नान्ने यस्य वै मोक्षवित्तु सः।।इति। एतत्सर्वं कुत इत्यत आह। स्थिरमतिः। स्थिरमतिः स्थिरा परमार्थविषया मतिर्यस्य सः दृढतया परमात्मनि यस्य मतिः। स्थिता स इति यावत्। यत स्थिरमतिरिति वा। एतादृशो भक्तिमान्नरो मे प्रियः।तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते इति तत्त्वविदो भक्तस्य श्रैष्ठ्यमुपक्षितं तदेव द्रढयितुं पुनःपुनस्ततस्यैवान्येषां विशेषणानां विशेष्यत्वेन स्वप्रमास्पदत्वेन च ग्रहणम्। तथाच भाष्यंउत्तमां परमार्थज्ञानलक्षणां भक्तिमास्थितास्तेऽतीव मे प्रिया इत्यादि। पुनः पुनःर्भक्तर्गहणमपवर्गमार्गस्य परमार्थज्ञानस्योपायत्वार्थमिति तु भाष्यटीकाकृतः।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।12.19।।सर्वारम्भपरित्यागीत्येतद्व्याचष्टे -- तुल्येति। शिष्टेषु विगीतो न स्यामिति वा लोकेषु प्रख्यातः स्यामिति वा इदं मे भूयादिति वा कामयमानः किंचिदारभते नत्वयम्। तुल्यनिन्दास्तुतित्वात्संतुष्टत्वाच्च। मौनी संन्यासी। अतएवानिकेतो गृहशून्यः कुटीमपि वासार्थं नारभते। यतः स्थिरमतिः स्थितप्रज्ञो भक्तिमान्योगी मे मम प्रियो नरः पुरुषः।