श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।13.2।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।13.2।।श्रीभगवान् बोले -- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! 'यह' -- रूपसे कहे जानेवाले शरीरको 'क्षेत्र' कहते हैं और इस क्षेत्रको जो जानता है, उसको ज्ञानीलोग 'क्षेत्रज्ञ' नामसे कहते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।13.2।।

ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसा तन्निर्गुणं निष्क्रियं ज्योतिः किंचन योगिनो यदि परं पश्यन्ति पश्यन्तु ते।

अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं कालिन्दीपुलिनोदरे किमपि यन्नीलं महो धावति।।प्रथममध्यमषट्कयोस्तत्त्वंपदार्थावुक्तावुत्तरषट्कस्तु वाक्यार्थनिष्ठः सम्यग्धीप्रधानोऽधुनारभ्यते। तत्रतेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागराद्भवामि इति प्रागुक्तं। नचात्मज्ञानलक्षणान्मृत्योरात्मज्ञानं विनोद्धरणं संभवति। अतो यादृशेनात्मज्ञानेन। मृत्युसंसारनिवृत्तिर्येन च तत्त्वज्ञानेन युक्ता अद्वेष्टृत्वादिगुणशालिनः संन्यासिनः प्राग्व्याख्यातास्तदात्मतत्त्वज्ञानं वक्तव्यम्। तच्चाद्वितीयेन परमात्मना सह जीवस्याभेदमेव विषयीकरोति तद्भेदभ्रमहेतुकत्वात्सर्वानर्थस्य। तत्र जीवानां संसारिणां प्रतिक्षेत्रं भिन्नानामसंसारिणैकेन परमात्मना कथमभेदः स्यादित्याशङ्कायां संसारस्य भिन्नत्वस्य चाविद्याकल्पितानात्मधर्मत्वान्न जीवस्य संसारित्वं भिन्नत्वं चेति वचनीयं। तदर्थं देहेन्द्रियान्तःकरणेभ्यः क्षेत्रेभ्यो विवेकेन क्षेत्रज्ञः पुरुषो जीवः प्रतिक्षेत्रमेक एव निर्विकार इति प्रतिपादनाय क्षेत्रक्षेत्रज्ञविवेकः क्रियतेऽस्मिन्नध्याये। तत्र ये द्वे प्रकृती भूम्यादिक्षेत्ररूपतया जीवरूपक्षेत्रज्ञतया चापरपरशब्दवाच्ये सप्तमाध्याये सूचिते तद्विवेकेन तत्त्वं निरूपयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। इदं इन्द्रियान्तःकरणसहितं भोगायतनं शरीरं हे कौन्तेय? क्षेत्रमित्यभिधीयते। सस्यस्येवास्मिन्नसकृत्कर्मणः फलस्य निर्वृत्तेः। एतद्यो वेत्ति अहं ममेत्यभिमन्यते तं क्षेत्रज्ञमिति प्राहुः कृषीवलवत्तत्फलभोक्तृत्वात् तद्विदः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्विवेकविदः। अत्र चाभिधीयत इति कर्मणिप्रयोगेण क्षेत्रस्य जडत्वात्कर्मत्वं क्षेत्रज्ञशब्दस्य द्वितीयां विनैवेति शब्दमाहरन् स्वप्रकाशत्वात्कर्मत्वाभावमभिप्रैति। तत्रापि क्षेत्रं यैः कश्चिदप्यभिधीयते न तत्र कर्तृगतविशेषापेक्षा। क्षेत्रज्ञं तु कर्मत्वमन्तरेणैव विवेकिन एवाहुः स्थूलदृशामगोचरत्वादिति कथयितुं विलक्षणवचनव्यक्त्यैकत्र कर्तृपदोपादानेव च निर्दिशति भगवान्।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।13.2।।सूत्रवत्पूर्वमुक्तस्य द्वितीयस्यापि वृत्तिवत्। तृतीयं सर्वनिर्णयं भाष्यमाभाष्यतेऽधुना।।1।।यत्तावत्प्रथममुपपादितं प्रकृतिद्वयं परापरविवेकेन परप्रकृतिस्वरूपं सोपस्करं क्षेत्रम्? अपरप्रकृतिस्वरूपं तु चेतनः क्षेत्रज्ञ इत्यक्षरमूलस्वरूपत्वात् ज्ञेयं तत्साधनभूतं ज्ञानं चोपदिशन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। अन्यथा मध्ये प्रश्नं विना विवरणं नोपपद्येत। अत्र कैश्चिन्मूलेप्रकृतिं पुरुषं च [13।1] इति पद्यान्तरं लिख्यते तत्तूपेक्ष्यं? असम्भवेन सर्वाप्रयुक्तत्वात् पूर्वोक्तविवरणरूपत्वाच्चस्य षट्कस्य। तथाहि यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे इत्याशयात् या पूर्वं प्रकृतिरनात्मा इत्युक्ता तत्परिणामभूतमिदं शरीरं पुरुषस्य निवासभूतत्वाज्जीवनाद्वाक्षेत्रं इत्युच्यते तथाभूतमेतन्न विजानाति पुरुषो विविक्ततया तदा तु क्षेत्रित्वमात्र एव संसारी भवति। एतद्यो वा कश्चिद्विविक्ततया वेत्ति क्षेत्रं जानाति स्वं च द्रष्टारं तं तु क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः प्राहुः।यद्यपि क्षेत्रक्षेत्रज्ञज्ञानं संसारदशायामप्यस्ति तथापि न विविक्ततया? किन्तु क्षेत्रसामानाधिकरण्येन तथापि तद्भोग्यं भोक्तुरात्मनोऽर्थान्तरभूतमेव मृतशरीरे तथा दर्शनात्। किञ्चोभयोः सम्बन्धे तु तत्सम्भवति? न कैवल्ये सम्भवति। यस्य वेत्तृत्वं तस्यैव वेद्यादन्यत्वमर्थसिद्धं दृष्टचरं घटादिनो द्रष्टुरिवदेवोऽहं इत्यतिमन्दानां नाहमितिवदात्मविशेषणतैकस्वभावतया तदपृथक्सिद्धेरुपपन्नं भवति। इदं तु पार्थक्यं स्वात्मानं क्षेत्रज्ञमेव भेदेन विजानतो विदुषो भवति? न सर्वस्येति।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।13.2।। व्याख्या --   इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते -- मनुष्य यह पशु है? यह पक्षी है? यह वृक्ष है आदिआदि भौतिक चीजोंको इदंतासे अर्थात् यहरूपसे कहता है और इस शरीरको कभी मैंरूपसे तथा कभी मेरारूपसे कहता है। परन्तु वास्तवमें अपना कहलानेवाला शरीर भी इदंतासे कहलानेवाला ही है। चाहे स्थूलशरीर हो? चाहे सूक्ष्मशरीर हो और चाहे कारणशरीर हो? पर वे हैं सभी इदंतासे कहलानेवाले ही।जो पृथ्वी? जल? तेज? वायु और आकाश -- इन पाँच तत्त्वोंसे बना हुआ है अर्थात् जो मातापिताके रजवीर्यसे पैदा होता है? उसको स्थूलशरीर कहते हैं। इसका दूसरा नाम अन्नमयकोश भी है क्योंकि यह अन्नके विकारसे ही पैदा होता है और अन्नसे ही जीवित रहता है। अतः यह अन्नमय? अन्नस्वरूप ही है। इन्द्रियोंका विषय होनेसे यह शरीर इदम् (यह) कहा जाता है।पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ? पाँच कर्मेन्द्रियाँ? पाँच प्राण? मन और बुद्धि -- इन सत्रह तत्त्वोंसे बने हुएको सूक्ष्मशरीर कहते हैं। इन सत्रह तत्त्वोंमेंसे प्राणोंकी प्रधानताको लेकर यह सूक्ष्मशरीर प्राणमयकोश? मनकी प्रधानताको लेकर यह मनोमयकोश और बुद्धिकी प्रधानताको लेकर यह विज्ञानमयकोश कहलाता है। ऐसा यह सूक्ष्मशरीर भी अन्तःकरणका विषय होनेसे इदम् कहा जाता है।अज्ञानको कारणशरीर कहते हैं। मनुष्यको बुद्धितकका तो ज्ञान होता है? पर बुद्धिसे आगेका ज्ञान नहीं होता? इसलिये उसे अज्ञान कहते हैं। यह अज्ञान सम्पूर्ण शरीरोंका कारण होनेसे कारणशरीर कहलाता है -- अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणम् (अध्यात्म0 उत्तर0 5। 9)। इस कारणशरीरको स्वभाव? आदत और प्रकृति भी कह देते हैं और इसीको आनन्दमयकोश भी कह देते हैं। जाग्रत्अवस्थामें स्थूलशरीरकी प्रधानता होती है और उसमें सूक्ष्म तथा कारणशरीर भी साथमें रहता है। स्वप्नअवस्थामें सूक्ष्मशरीरकी प्रधानता होती है और उसमें कारणशरीर भी साथमें रहता है। सुषुप्तिअवस्थामें स्थूलशरीरका ज्ञान नहीं रहता? जो कि अन्नमयकोश है और सूक्ष्मशरीर भी ज्ञान नहीं रहता? जो कि प्राणमय? मनोमय एवं विज्ञानमयकोश है अर्थात् बुद्धि अविद्या(अज्ञान)में लीन हो जाती है। अतः सुषुप्तिअवस्था कारणशरीरकी होती है। जाग्रत् और स्वप्नअवस्थामें तो सुखदुःखका अनुभव होता है? पर सुषुप्तिअवस्थामें दुःखका अनुभव नहीं होता और सुख रहता है। इसलिये कारणशरीरको आनन्दमयकोश कहते हैं। कारणशरीर भी स्वयंका विषय होनेसे? स्वयंके द्वारा जाननेमें आनेवाला होनेसे इदम् कहा जाता है।

उपर्युक्त तीनों शरीरोंको शरीर कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है (टिप्पणी प0 668.1)। इनको कोश कहनेका तात्पर्य है कि जैसे चमड़ेसे बनी हुई थैलीमें तलवार रखनेसे उसकी म्यान संज्ञा हो जाती है? ऐसे ही जीवात्माके द्वारा इन तीनों शरीरोंको अपना माननेसे? अपनेको इनमें रहनेवाला माननेसे इन तीनों शरीरोंकी कोश संज्ञा हो जाती है।

इस शरीरको क्षेत्र कहनेका तात्पर्य है कि यह प्रतिक्षण नष्ट होता? प्रतिक्षण बदलता है (टिप्पणी प0 668.2)। यह इतना जल्दी बदलता है कि इसको दुबारा कोई देख ही नहीं सकता अर्थात् दृष्टि पड़ते ही जिसको देखा? उसको फिर दुबारा नहीं देख सकते क्योंकि वह तो बदल गया।शरीरको क्षेत्र कहनेका दूसरा भाव खेतसे है। जैसे खेतमें तरहतरहके बीज डालकर खेती की जाती है? ऐसे ही इस मनुष्यशरीरमें अहंताममता करके जीव? तरहतरहके कर्म करता है। उन कर्मोंके संस्कार,अन्तःकरणमें पड़ते हैं। वे संस्कार जब फलके रूपमें प्रकट होते हैं? तब दूसरा (देवता? पशुपक्षी? कीटपतङ्ग आदिका) शरीर मिलता है। जिस प्रकार खेतमें जैसा बीज बोया जाता है? वैसा ही अनाज पैदा होता है? उसी प्रकार इस शरीरमें जैसे कर्म किये जाते हैं? उनके अनुसार ही दूसरे शरीर? परिस्थिति आदि मिलते हैं। तात्पर्य है कि इस शरीरमें किये गये कर्मोंके अनुसार ही यह जीव बारबार जन्ममरणरूप फल भोगता है। इसी दृष्टिसे इसको क्षेत्र (खेत) कहा गया है।अपने वास्तविक स्वरूपसे अलग दीखनेवाला यह शरीर प्राकृत पदार्थोंसे? क्रियाओंसे? वर्णआश्रम आदिसे,इदम् (दृश्य) ही है। यह है तो इदम् पर जीवने भूलसे इसको अहम् मान लिया और फँस गया। स्वयं परमात्माका अंश एवं चेतन है? सबसे महान् है। परन्तु जब वह जड (दृश्य) पदार्थोंसे अपनी महत्ता मानने लगता है (जैसे? मैं धनी हूँ? मैं विद्वान् हूँ आदि)? तब वास्तवमें वह अपनी महत्ता घटाता ही है। इतना ही नहीं? अपनी महान् बेइज्जती करता है क्योंकि अगर धन? विद्या आदिसे वह अपनेको बड़ा मानता है? तो धन विद्या आदि ही बड़े हुए उसका अपना महत्त्व तो कुछ रहा ही नहीं वास्तवमें देखा जाय तो महत्त्व स्वयंका ही है? नाशवान् और जड धनादि पदार्थोंका नहीं क्योंकि जब स्वयं उन पदार्थोंको स्वीकार करता है? तभी वे महत्त्वशाली दीखते हैं। इसलिये भगवान् इदं शरीरं क्षेत्रम् पदोंसे शरीरादि पदार्थोंको अपनेसे भिन्न इदंता से देखनेके लिये कह रहे हैं।एतद्यो वेत्ति -- जीवात्मा इस शरीरको जानता है अर्थात् यह शरीर मेरा है? इन्द्रियाँ मेरी हैं? मन मेरा है? बुद्धि मेरी है? प्राण मेरे हैं -- ऐसा मानता है। यह जीवात्मा इस शरीरको कभी मैं कह देता है और कभी,यह कह देता है अर्थात् मैं शरीर हूँ -- ऐसा भी मान लेता है और यह शरीर मेरा है -- ऐसा भी मान लेता है।इस श्लोकके पूर्वार्धमें शरीरको इदम् पदसे कहा है और उत्तरार्धमें शरीरको एतत् पदसे कहा है। यद्यपि ये दोनों ही पद नजदीकके वाचक हैं? तथापि इदम् की अपेक्षा एतत् पद अत्यन्त नजदीकका वाचक है। अतः यहाँ इदम् पद अङ्गुलिनिर्दिष्ट शरीरसमुदायका द्योतन करता है और एतत् पद इस शरीरमें जो मैंपन है? उस मैंपनका द्योतन करता है।

तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ (टिप्पणी प0 668.3) इति तद्विदः -- जैसे दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें सत्असत्के तत्त्वको जाननेवालोंको तत्त्वदर्शी कहा है? ऐसे ही यहाँ क्षेत्रक्षेत्रज्ञके तत्त्वको जाननेवालोंको तद्विदः कहा है। क्षेत्र क्या है और क्षेत्रज्ञ क्या है -- इसका जिनको बोध हो चुका है? ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुष इस जीवात्माको क्षेत्रज्ञ नामसे कहते हैं। तात्पर्य है कि क्षेत्रकी तरफ दृष्टि रहनेसे? क्षेत्रके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही इस जीवात्माको वे ज्ञानी महापुरुष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। अगर यह जीवात्मा क्षेत्रके साथ सम्बन्ध न रखे? तो फिर इसकी क्षेत्रज्ञ संज्ञा नहीं रहेगी? यह परमात्मस्वरूप हो जायगा (गीता 13। 31)।

मार्मिक बात

यह नियम है कि जहाँसे बन्धन होता है? वहाँसे खोलनेपर ही (बन्धनसे) छुटकारा हो सकता है। अतः मनुष्यशरीरसे ही बन्धन होता है और मनुष्यशरीरके द्वारा ही बन्धनसे मुक्ति हो सकती है। अगर मनुष्यका अपने शरीरके साथ किसी प्रकारका भी अहंताममतारूप सम्बन्ध न रहे? तो वह मात्र संसारसे मुक्त ही है। अतः भगवान् शरीरके साथ माने हुए अहंताममतारूप सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये शरीरको क्षेत्र बताकर उसको इदंता(पृथक्ता) से देखनेके लिये कह रहे हैं? जो कि वास्तवमें पृथक् है ही।शरीरको इदंतासे देखना केवल अपना कल्याण चाहनेवाले साधकोंके लिये ही नहीं? प्रत्युत मनुष्यमात्रके लिये परम आवश्यक है। कारण कि अपना उद्धार करनेका अधिकार और अवसर मनुष्यशरीरमें ही है। यही कारण,है कि गीताका उपदेश आरम्भ करते ही भगवान्ने सबसे पहले शरीर और शरीरीका पृथक्ताका वर्णन किया है।इदम् का अर्थ है -- यह अर्थात् अपनेसे अलग दीखनेवाला। सबसे पहले देखनेमें आता है -- पृथ्वी? जल? तेज? वायु तथा आकाशसे बना यह स्थूलशरीर। यह दृश्य है और परिवर्तनशील है। इसको देखनेवाले हैं -- नेत्र। जैसे दृश्यमें रंग? आकृति? अवस्था? उपयोग आदि सभी बदलते रहते हैं? पर उनको देखनेवाले नेत्र एक ही रहते हैं? ऐसे ही शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्धरूप विषय भी बदलते रहते हैं? पर उनको जाननेवाले कान? त्वचा? नेत्र? जिह्वा और नासिका एक ही रहते हैं। जैसे नेत्रोंसे ठीक दीखना? कम दीखना और बिलकुल न दीखना -- ये नेत्रमें होनेवाले परिवर्तन मनके द्वारा जाने जाते हैं? ऐसे ही कान? त्वचा? जिह्वा और नासिकामें होनेवाले परिवर्तन भी मनके द्वारा जाने जाते हैं। अतः पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ (कान? त्वचा? नेत्र? जिह्वा और नासिका) भी दृश्य हैं। कभी क्षुब्ध और कभी शान्त? कभी स्थिर और कभी चञ्चल -- ये मनमें होनेवाले परिवर्तन बुद्धिके द्वारा जाने जाते हैं। अतः मन भी दृश्य है। कभी ठीक समझना? कभी कम समझना और कभी बिलकुल न समझना -- ये बुद्धिमें होनेवाले परिवर्तन स्वयं(जीवात्मा) के द्वारा जाने जाते हैं। अतः बुद्धि भी दृश्य है। बुद्धि आदिके द्रष्टा स्वयं(जीवात्मा) में कभी परिवर्तन हुआ नहीं? है नहीं? होगा नहीं और होना सम्भव भी नहीं। वह सदा एकरस रहता है अतः वह कभी किसीका दृश्य नहीं हो सकता (टिप्पणी प0 669)।इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयको तो जान सकती हैं? पर विषय अपनेसे पर (सूक्ष्म? श्रेष्ठ और प्रकाशक) इन्द्रियोंको नहीं जान सकते। इसी तरह इन्द्रियाँ और विषय मनको नहीं जान सकते मन? इन्द्रियाँ और विषय बुद्धिको नहीं जान सकते तथा बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ और विषय स्वयंको नहीं जान सकते। न जाननेमें मुख्य कारण यह है कि इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि तो सापेक्ष द्रष्टा हैं अर्थात् एकदूसरेकी सहायतासे केवल अपनेसे स्थूल रूपको देखनेवाले हैं किन्तु स्वयं (जीवात्मा) शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धिसे अत्यन्त सूक्ष्म और श्रेष्ठ होनेके कारण निरपेक्ष द्रष्टा है अर्थात् दूसरे किसीकी सहायताके बिना खुद ही देखनेवाला है।उपर्युक्त विवेचनमें यद्यपि इन्द्रियाँ? मन और बुद्धिको भी द्रष्टा कहा गया है? तथापि वहाँ भी यह समझ लेना चाहिये कि स्वयं(जीवात्मा) के साथ रहनेपर ही इनके द्वारा देखा जाना सम्भव होता है। कारण कि मन? बुद्धि आदि जड प्रकृतिका कार्य होनेसे स्वतन्त्र द्रष्टा नहीं हो सकते। अतः स्वयं ही वास्तविक द्रष्टा है। दृश्य पदार्थ (शरीर)? देखनेकी शक्ति (नेत्र? मन? बुद्धि) और देखनेवाला (जीवात्मा) -- इन तीनोंमें गुणोंकी भिन्नता होनेपर भी तात्त्विक एकता है। कारण कि तात्त्विक एकताके बिना देखनेका आकर्षण? देखनेकी सामर्थ्य और देखनेकी प्रवृत्ति सिद्ध ही नहीं होती। यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि स्वयं (जीवात्मा) तो चेतन है? फिर वह जड बुद्धि आदिको (जिससे उसकी तात्त्विक एकता नहीं है।) कैसे देखता है इसका समाधान यह है कि स्वयं जडसे तादात्म्य करके जडके सहित अपनेको मैं मान लेता है। यह मैं न तो जड है और न चेतन ही है। जडमें विशेषता देखकर यह जडके साथ एक होकर कहता है कि मैं धनवान हूँ मैं विद्वान हूँ आदि और चेतनमें विशेषता देखकर यह चेतनके साथ एक होकर कहता है कि मैं आत्मा हूँ मैं ब्रह्म हूँ आदि। यही प्रकृतिस्थ पुरुष है? जो प्रकृतिजन्य गुणोंके सङ्गसे ऊँचनीच योनियोंमें बारबार जन्म लेता रहता है (गीता 13। 21)। तात्पर्य यह निकला कि प्रकृतिस्थ पुरुषमें जड और चेतन -- दोनों अंश विद्यमान हैं। चेतनकी रुचि परमात्माकी तरफ जानेकी है किन्तु भूलसे उसने जडके साथ तादात्म्य कर लिया। तादात्म्यमें जो जडअंश है? उसका आकर्षण (प्रवृत्ति) जडताकी तरफ होनेसे वही सजातीयताके कारण जड बुद्धि आदिका द्रष्टा बनता है। यह नियम है कि देखना केवल सजातीयतामें ही सम्भव होता है अर्थात् दृश्य? दर्शन और द्रष्टाके एक ही जातिके होनेसे देखना होता है? अन्यथा नहीं। इस नियमसे यह पता लगता है कि स्वयं (जीवात्मा) जबतक बुद्धि आदिका द्रष्टा रहता है? तबतक उसमें बुद्धिकी जातिकी जड वस्तु है अर्थात् जड प्रकृतिके साथ उसका माना हुआ सम्बन्ध है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही सब अनर्थोंका मूल है। इसी माने हुए सम्बन्धके कारण वह सम्पूर्ण जड प्रकृति अर्थात् बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ? विषय? शरीर और,पदार्थोंका द्रष्टा बनता है। सम्बन्ध --   उस क्षेत्रज्ञका स्वरूप क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।13.2।।यो मायां जगदेकमोहनकरीमाश्रित्य सृष्ट्वालयं देहं जीवतयानुविश्य मतिभिः संयाति नानात्मताम्।

वन्दे तं परमार्थतः सुखधनं ब्रह्माद्वयं केवलं कृष्णं वेदशिरोभिरेव विदितं श्रीशंकरं शाश्वतम्।।1।।आकाशस्य यथा धटादिभिरसौ भेदो नचास्तत्यर्थत एवं ब्रह्माणि निर्गुणेऽतिविमले बुद्य्धादिभूः कल्पितः।

यस्मिन्नेकरसे विमायममितं तं वासुदेवं भजे सत्यानन्दचिदात्मकं गुरुगुरुं शर्वं तमोनाशकम्।।2।।देवीं भक्तजनार्थसार्थजननीं प्रत्हूदैत्यार्दिनीं प्रत्यूहदैत्यार्दिनीं भानुं भानुमृगेन्द्रसूदितमहद्विघ्नौघनागं प्रभुम्।

शुण्डावज्रनिरस्तसर्वदुरितागं पावनं मङ्गलं ध्येयं नौमि गजाननं सुरगणैरिन्द्रं गणानां विभुम्।।3।।एवं षट्कद्वयेन त्वंपदार्थ तत्पदार्थं च प्रतिपाद्याखण्डार्थप्रतिपादनाय तृतीयषट्कमारभ्यते। तत्रभूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्। एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। अहं कृतस्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। इति सप्तमेऽध्याये त्रिगुणात्मिका क्षेत्रलक्षणा संसारहेतुत्वादपरैका? अन्या च जीवभूता क्षेत्रलक्षणा ईश्वरात्मकत्वात्परेतीश्वरस्य द्वे प्रकृती सूचिते। याभ्यामीश्वरो जगदुत्पत्त्यादिहुतुत्वं प्रतिपद्यते। तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणप्रकृतिद्वयनिरुपणद्वारा तद्वत ईश्वरस्य तत्त्वनिर्णयार्थं द्वादशाध्याये चअद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च इत्यादितत्त्वज्ञविशेषणान्युक्तानि। येन पुनस्तत्त्वज्ञानेन संपन्ना यथोक्तविशेषणविशिष्टा मम प्रिया भवन्तीत्यस्तत्त्वज्ञानावधारणार्थं च श्रीभगवानुवाच -- इदमित्यादिना। इदं प्रत्यक्षादिनोपलभ्यमानं दृश्यम्। इदमोक्तं विशिनष्टि शरीरं। त्रिगुणात्मिका प्रकृतिः सर्वकार्यकारणविषयाकारेण परिणता पुरुषस्य भोगापवर्गयोरर्थयोरेव कर्तव्यतया देहेन्द्रियाद्याकारेण संहन्यते सोयं संघातः शरीरशब्देनोच्यते। इदं शरीरं हे कौन्तेय क्षतात्र्णात्क्षेत्रं? क्षिणोत्यात्मानमविद्यया त्राति तं विद्यया? क्षीयते नश्यति क्षरति अपक्षीयतेऽतोपि क्षेत्रमित्यभिधीयते। क्षेत्रवदस्मिन्कर्मफलं निष्पद्यते इति वा। यथा कुन्ती त्वत्प्रादुर्भावस्थानत्वात्क्षेत्रं तथात्मनोऽभिव्यक्तिस्थानत्वादपीदं क्षेत्रमिति संबोधनाशयः। अनेन शरीरस्यात्मनोऽन्यत्वं बोधितं क्षेत्रशब्दादुपस्थितमितिपदं क्षेत्रशब्दविषयमन्यथावैयर्थ्यात्क्षेत्रमित्येवमनेन क्षेत्रशब्देनाभिधीयते कथ्यत इत्यर्थः। दृश्यं शरीरं प्रदर्श्य ततोऽतिरिक्तं द्रष्टारमात्मानं दर्शयति। एतच्छरीरं क्षेत्रं यो वेत्ति आपदतलमस्तकं मनुष्योऽहं ममेदं शरीरमिति स्वाभाविकेन? शरीरं आत्मा दृश्यत्वात् घटवदित्यौपदेशिकेन स्वातिरिक्तत्वेन वा ज्ञानेन जानाति विषयीकरोति तं तद्विदस्तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ दृश्यत्वेन द्रष्टत्वेन विदन्तीति तथा तं क्षेत्रज्ञ इति प्राहुः क्षेत्रज्ञ इत्येवम्। क्षेत्रज्ञशब्देन तं कथयन्तीत्यर्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।13.2।।ननु अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः इति द्वितीये त्वंपदार्थस्वरूपमुक्तम्। तथा द्वादशे ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् इति तत्पदार्थस्वरूपमुक्तम्। न च तयोर्भेदः संभवति। लक्षणैक्यात्। लक्षणं हि तयोरव्यक्तत्वमचिन्त्यत्वमचलत्वं सर्वगतत्वं चेत्यादि समानम्। न च द्वयोः सर्वगतत्वं संभवति। अन्योन्यव्यावृत्तत्वेनासर्वगतत्वापत्तेः। न च लक्षणभेदाभावेऽपि तत्तदात्मगतविशेषाः सन्ति ये मुक्तात्मनां जीवेशयोश्चान्योन्यं भेदमावहन्ति स्वात्मानं च स्वाश्रयात्स्वयमेव व्यावर्तयन्तीति वाच्यम्। विशेषाणां सत्त्वे प्रमाणाभावात्। ननु मा सन्तु विशेषाः बन्धमोक्षादिव्यवस्थान्यथानुपपत्त्या तु निर्विशेषेष्वपि पुरुषेषु भेदः सिध्यति। यथोक्तं सांख्यवृद्धैःजन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव इति। जन्मादिव्यवस्थातो युगपत्प्रवृत्त्यदर्शनात् सात्विकराजसादिभेदाच्च न पुरुषैक्यमित्यर्थ इति चेन्न। व्यापकानेकात्मवादे भोगसांकर्यप्रसङ्गात्। नह्येकत्रान्तःकरणे सुखादिरूपेण परिणते तत्प्रतिसंवेदी एक एव चेतन इति नियन्तुं शक्यम्। सर्वेषां सान्निध्याविशेषेण प्रतिसंवेदनापत्तेरवर्जनीयत्वात्। श्रोत्रस्यैकस्यापि कर्णशष्कुलीरूपोपाधिभेदादिवान्तःकरणरूपोपाधिभेदादेकस्याप्यात्मनः शब्दग्रहव्यवस्थावज्जन्मादिव्यवस्थापि सेत्स्यतीति न पुरुषबहुत्वं वक्तव्यम्। ततश्च जीवेशयोर्लक्षणैक्यादभेदे सिद्धे किमुत्तरग्रन्थेन तत्प्रतिपादनार्थेनेति चेत्सत्यम्।यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत् इति श्रुतेर्विद्यावस्थायां भेदाभावेऽपि अविद्यावस्थायांअन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानाम्एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते इतिव्यवहारदशायां शास्यशासितृभावेन कर्तृकारयितृभावेन च प्रसक्तस्य जीवेश्वरयोर्भेदस्य निरासार्थत्वादुत्तरग्रन्थस्यारम्भ उपपद्यते। तत्रानुपदोक्तेन तत्पदार्थेन सहास्याभेदं वक्तुं योग्यतायै भास्यभासकभावेन क्षेत्रात्क्षेत्रज्ञस्य कुम्भाद्भास्वत इव विवेकं दर्शयति -- इदमिति। इदमनात्मत्वेन भास्यं घटाद्यहंकारान्तं शरीरं विशरणधर्मि हे कौन्तेय? क्षेत्रं क्षिणोत्यात्मानमविद्यया त्रायते च विद्ययेति क्षेत्रं कर्मबीजप्ररोहस्थानं क्षेत्रशब्देनोच्यते। एतद्यो वेत्ति भासयति तं चिदात्मानं क्षेत्रज्ञ इत्यन्वर्थसंज्ञं प्राहुः। के प्राहुः। तद्विदः क्षेत्रक्षेत्रज्ञविदः। एतेन गच्छामि पश्यामि भुञ्जे इत्यनुभवाद्देहेन्द्रियाहंकाराः प्रतीतितो भासककोटिनिविष्टा इव भान्ति तथापि तेषां तत्त्वतो भास्यत्वलक्षणोऽनात्मभावः सिद्धः।