क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।13.3।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।13.3।।हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! तू सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मेरेको ही समझ; और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है, वही मेरे मतमें ज्ञान है।
।।13.3।।एवं देहेन्द्रियादिविलक्षणं स्वप्रकाशं क्षेत्रज्ञमभिधाय तस्य पारमार्थिकं रूपमादाय परमात्मनैक्यमाह -- क्षेत्रज्ञमिति। सर्वक्षेत्रेषु य एकः क्षेत्रज्ञः स्वप्रकाशः चैतन्यरूपो नित्यो विभुश्च तमविद्याध्यारोपितकर्तृत्वभोर्क्तृत्वादिसंसारधर्ममाविद्यकरूपपरित्यागेन मामीश्वरमसंसारिणमद्वितीयब्रह्मानन्दरूपं विद्धि जानीहि। हे भारत? एवंच क्षेत्रं मायाकल्पितं मिथ्या? क्षेत्रज्ञश्च परमार्थसत्यस्तद्भ्रमाधिष्ठानमिति क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्यज्ज्ञानं तदेव मोक्षसाधनत्वाज्ज्ञानं अविद्याविरोधि प्रकाशरूपं मम मतं अन्यत्त्वज्ञानमेव तदविरोधित्वादित्यभिप्रायः। अत्र जीवेश्वरयोराविद्यको भेदः पारमार्थिकस्त्वभेद इत्यत्र युक्तयो भाष्यकृद्भिर्वर्णिताः। अस्माभिस्तु ग्रन्थविस्तरभयात्प्रागेव बहुधोक्तत्वाच्च नोपन्यस्ताः।
।।13.3।।यस्य च भवति स क्षेत्रज्ञ इह मत्स्वभावापन्न इत्याह -- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीति। नहि क्षेत्रिभावेन संसृष्टो जीवः क्षेत्रं स्वतो विविक्तं जानाति? यः कश्चिज्जानाति तं मां विद्धि मदंशत्वान्मद्रूपं पुरुषं जानीहि भगवद्गुणाविर्भावात्तद्गुणसारत्वात्तु तद्व्यपदेशः प्राज्ञवत् [ब्र.सू.2।3।29] इति सूत्रितत्वात्। आदरार्थमेतज्ज्ञानं स्तौतिक्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम इति मदिच्छासम्मतं रक्षेत्।
।।13.3।। व्याख्या -- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत -- सम्पूर्ण क्षेत्रों(शरीरों)में मैं हूँ -- ऐसा जो अहंभाव है? उसमें मैं तो क्षेत्र है (जिसको पूर्वश्लोकमें एतत् कहा है) और हूँ मैंपनका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है (जिसको पूर्वश्लोकमें वेत्ति पदसे जाननेवाला कहा है)। मैं का सम्बन्ध होनेसे ही हूँ है। अगर मैं का सम्बन्ध न रहे तो हूँ नहीं रहेगा? प्रत्युत है रहेगा। कारण कि है ही मैंके साथ सम्बन्ध होनेसे हूँ कहा जाता है। अतः वास्तवमें क्षेत्रज्ञ(हूँ) की परमात्मा(है) के साथ एकता है। इसी बातको भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें मेरेको ही क्षेत्रज्ञ समझो।मनुष्य किसी विषयको जानता है? तो वह जाननेमें आनेवाला विषय ज्ञेय कहलाता है। उस ज्ञेयको वह किसी करणके द्वारा ही जानता है। करण दो तरहका होता है -- बहिःकरण और अन्तःकरण। मनुष्य विषयोंको बहिःकरण(श्रोत्र? नेत्र आदि) से जानता है और बहिःकरणको अन्तःकरण(मन? बुद्धि आदि) से जानता है। उस अन्तःकरणकी चार वृत्तियाँ हैं -- मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार। इन चारोंमें भी अहंकार सबसे सूक्ष्म है? जो कि एकदेशीय है। यह अहंकार भी जिससे देखा जाता है? जाना जाता है? वह जाननेवाला प्रकाशस्वरूप क्षेत्रज्ञ है। उस अहंभावके भी ज्ञाता क्षेत्रज्ञको साक्षात् मेरा स्वरूप समझो। यहाँ विद्धि पद कहनेका तात्पर्य है कि हे अर्जुन जैसे तू अपनेको शरीरमें मानता है और शरीरको अपना मानता है? ऐसे ही तू अपनेको मेरेमें जान (मान) और मेरेको अपना मन। कारण कि तुमने शरीरके साथ जो एकता मान रखी है? उसको छोड़नेके लिये मेरे साथ एकता माननी बहुत आवश्यक है।जैसे यहाँ भगवान्ने क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि पदोंसे क्षेत्रज्ञकी अपने साथ एकता बतायी है? ऐसे ही गीतामें अन्य जगह भी एकता बतायी है जैसे -- दूसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें भगवान्ने शरीरी(क्षेत्रज्ञ)के लिये कहा कि जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है? उसको तुम अविनाशी समझो -- अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् और नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें अपने लिये कहा कि मेरेसे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है -- मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। यहाँ तो भगवान्ने क्षेत्रज्ञ(अंश) की अपने (अंशीके) साथ एकता बतायी है और आगे इसी अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें शरीरसंसार(कार्य) की प्रकृति(कारण) के साथ एकता बतायेंगे। तात्पर्य है कि शरीर तो प्रकृतिका अंश है? इसलिये तुम इससे सर्वथा विमुख हो जाओ और तुम मेरे अंश हो? इसलिये तुम मेरे सम्मुख हो जाओ।शरीरकी संसारके साथ स्वाभाविक एकता है। परन्तु यह जीव शरीरको संसारसे अलग मानकर उसके साथ ही अपनी एकता मान लेता है। परमात्माके साथ क्षेत्रज्ञकी स्वाभाविक एकता होते हुए भी शरीरके साथ माननेसे यह अपनेको परमात्मासे अलग मानता है। शरीरको संसारसे अलग मानना और अपनेको परमात्मासे अलग मानना -- ये दोनों ही गलत मान्यताएँ हैं। अतः भगवान् यहाँ विद्धि पदसे आज्ञा देते हैं कि क्षेत्रज्ञ मेरे साथ एक है? ऐसा समझो। तात्पर्य है कि तुमने जहाँ शरीरके साथ अपनी एकता मान रखी है? वहीं मेरे साथ अपनी एकता मान लो? जो कि वास्तवमें है।शास्त्रोंमें प्रकृति? जीव और परमात्मा -- इन तीनोंका अलगअलग वर्णन आता है परन्तु यहाँ अपि पदसे भगवान् एक विलक्षण भावकी ओर लक्ष्य कराते हैं कि शास्त्रोंमें परमात्माके जिस सर्वव्यापक स्वरूपका वर्णन हुआ है? वो तो मैं हूँ ही? इसके साथ ही सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञरूपसे पृथक्पृथक् दीखनेवाला भी मैं ही हूँ। अतः प्रस्तुत पदोंका यही भाव है कि क्षेत्रज्ञरूपसे परमात्मा ही है -- ऐसा जानकर साधक मेरे साथ अभिन्नताका अनुभव करे।स्वयं संसारसे भिन्न और परमात्मासे अभिन्न है। इसलिये यह नियम है कि संसारका ज्ञान तभी होता है? जब उससे सर्वथा भिन्नताका अनुभव किया जाय। तात्पर्य है कि संसारसे रागरहित होकर ही संसारके वास्तविक स्वरूपको जाना जा सकता है। परन्तु परमात्माका ज्ञान उनसे अभिन्न होनेसे ही होता है। इसलिये परमात्माका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करानेके लिये भगवान् क्षेत्रज्ञके साथ अपनी अभिन्नता बता रहे हैं। इस अभिन्नताको यथार्थरूपसे जाननेपर परमात्माका वास्तविक ज्ञान हो जाता है।क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम -- क्षेत्र(शरीर) की सम्पूर्ण संसारके साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ(जीवात्मा) की मेरे साथ एकता है -- ऐसा जो क्षेत्रक्षेत्रज्ञका ज्ञान है? वही मेरे मतमें यथार्थ ज्ञान है।मतं मम कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें अनेक विद्याओंका? अनेक भाषाओँका? अनेक लिपियोंका? अनेक कलाओंका? तीनों लोक और चौदह भुवनोंका जो ज्ञान है? वह वास्तविक ज्ञान नहीं है। कारण कि वह ज्ञान सांसारिक व्यवहारमें काममें आनेवाला होते हुए भी संसारमें फँसानेवाला होनेसे अज्ञान ही है। वास्तविक ज्ञान तो वही है? जिससे स्वयंका शरीरसे सम्बन्धविच्छेद हो जाय और फिर संसारमें जन्म न हो? संसारकी परतन्त्रता न हो। यही ज्ञान भगवान्के मतमें यथार्थ ज्ञान है।
सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके ज्ञानको ही अपने मतमें ज्ञान बताकर अब भगवान् क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागको सुननेकी आज्ञा देते हैं।
।।13.3।।एवं दृश्यानां दुःखादीनामनात्मधर्मत्वसिद्धये द्रष्टारं शरीराद्य्वतिरिक्तं प्रदर्श्य किमेतावन्मात्रेण ज्ञानेन ज्ञातव्यौ एतावन्मात्रेणऐव ज्ञानेन मोक्षस्य सांख्याभिमतत्वादित्याशङ्कानिरासायात्मनः सर्वदेहेष्वैक्योक्तिपूर्वकं स्वेन परमार्तेनाक्षरेण परब्रह्मणा भेदं दर्शयति -- क्षेत्रज्ञं चापीति। क्षेत्रज्ञं क्षेत्रज्ञातारं दृश्यात्क्षेत्राच्छरीरान्निष्कृष्टं द्रष्टारम्। चापीति निपातौ जीवस्याक्षरत्वज्ञानस्य शरीरादन्यत्वाज्ञानेन समुच्चायार्थौ भिन्नकमौ। न सांख्यवद्दृश्यादन्यमेव क्षेत्रज्ञं विद्धि जानीहि किंतु मां मदभिन्नं चापि क्षेत्रज्ञं विद्धीति संबन्धः। यद्वा चकारः क्षेत्रज्ञज्ञानं समुच्चिनोति। अपिरेवार्थः। सर्वक्षेत्रेषु द्रष्टारं क्षेत्रज्ञमन्यं विद्धि तं च मामसंसारिणं परमेश्वरमेव विद्धीत्यर्थः। सर्वक्षेत्रेषु यः क्षेत्रेज्ञः ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानेकक्षेत्रोपाधिप्रविभक्तस्तं निरस्तसमस्तोपाधिमेदं सदसदादिशब्दप्रत्ययागोचरं मां विद्धीत्यभिप्रायः। यथा भरतवंशोद्भवत्वाद्भारतस्त्वं तथा मयि कल्पितः क्षेत्रज्ञोऽहमेवेति ध्वनयन्संबोधयति -- भारतेति। उत्तमवंश्यत्वादेतज्ज्ञातुं योग्योऽसीति वा संबोधनाशयः। नन्वेतत्किमर्थं ज्ञातव्यमित्यपेक्षायां मोक्षानन्यसाधनसम्यग्ज्ञानत्वेन मदभिप्रेतत्वादित्याह -- क्षेत्रेति। यस्माद्दृश्यद्रष्टृप्रत्यगभिन्नपरमात्मयाथात्म्यव्यतिरेकेण ज्ञानगोचरस्यावशिष्टस्यान्यस्यासत्वात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञेयभूतयोर्यज्ज्ञानं क्षेत्रमात्मनि कल्पितं दृश्यं क्षेत्रज्ञश्च परमेश्वराभिन्नः प्रत्यगात्मा तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ येन ज्ञानेन गोचरीक्रियेते तज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमिति मम वासुदेवस्य परमेश्वरस्य विष्णोः शास्त्रयोनेभिप्रेतमित्यर्थः। ननु जीवेश्वरयोरेकत्वे सर्वक्षेत्रेष्वेक ईश्वरो नान्यस्तद्य्वतिरिक्तो भोक्तेति जीवस्येश्वरेन्तर्भावो न वक्तुं शक्यः। संसारालम्बनस्य जीवस्येश्वरादन्यस्याभावे संसारस्य निरालम्बनत्वानुपपत्त्या परस्यैव संसारित्वप्रसङ्गात्। संसाररिणि जीवे ईश्वरस्यान्तर्भावोऽपि न शक्यते वक्तुम्। संसारिणोऽन्यस्याभावात् तस्य चापहतपाप्मत्वादिगुणकस्य विपरीतगुणकत्वेन ग्रहणानुपत्त्या संसारित्वस्यानिष्टत्वेन संसाराभावप्रसङ्गात्। नच प्रसङ्गद्वयमपीष्टमिति वाच्यम्। संसारभावेतयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति इत्यादिबन्धशास्त्रस्य,तद्धेतुकर्मविषयककर्मकाण्डस्य चानर्थक्यापत्तेः ईश्वराश्रिते च संसारेअनश्रन्नन्यो अभिचाकशीत इतीश्वरासंसारित्वबोधकस्य शास्त्रस्य मोक्षतद्धेतुज्ञानप्रतिपादकस्य च ज्ञानकाण्डस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गाच्च। किचं प्रत्यक्षादिविरोधादपि संसारभावप्रसङ्गस्यानिष्टत्वं सुखदुःखतद्धेतुलक्षणस्य संसारस्य प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानत्वात्। संसारः विचित्रहेतुकः विचित्रकार्यत्वात् प्रासादादिवदित्यनुमानाच्च संसाराभावप्रसङ्गस्यानिष्टत्वं तस्मादात्मेश्वरैकत्वमनुपपत्तिग्रस्तत्वान्न युक्तम्। अपिच जीवेश्वरयोरैक्यमेव न संभवति परोक्षापरोक्षत्वादिविरुद्धधर्मवत्त्वात् ईश्वराद्भिन्नोऽहं कर्ता भोक्ता चेति सर्वप्रमाणोपजीव्येन ज्येष्ठेन प्रत्यक्षेण गहीतस्य प्रत्ययस्य वाक्यप्रमाणजन्यज्ञानेन बाधायोगाच्च। तस्मात्क्षेत्रज्ञं तापि मां विद्धीत्यादिवदतो भगवतो नात्मेश्वरैकत्वबोधने तात्पर्यं किंतु प्रतिमादिषु विष्ण्वादिदर्शनमिव क्षेत्रज्ञे मद्दृष्टिर्विधेयेति चेन्न। ज्ञानाज्ञानयोः स्वरुपतः फलतश्चान्यत्वोपपत्त्या जीवेश्वरयोरैक्येऽप्यज्ञानकृतं संसारित्वं ज्ञानकृतमसंसारित्वमिति विभागेनानुपपत्त्यभावात् विरुद्धधर्माणां ब्रह्मण्यध्यस्तत्वात् शुद्धचैतन्ययोरभेदस्याविरुद्धत्वाच्च। तथा चदूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता। विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवो लोलुपन्तः। श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ संपरीत्य विविनक्ति धीरः। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमादृणीते इति श्रुतिभ्यां स्वरुपतः फलतश्च विलक्षणत्वेन विद्याविद्ये निर्दिष्टे। दूरं दूरेण महातन्तरेण विपरीते विवेकाविवेकात्मत्वात् तमःप्रकाशवत्परस्परव्यावृत्तात्मिके विषूची विषूच्यौ नानागती बन्धमोक्षहेतुत्वाद्भिन्नफले। के ते इत्यत आह। अविद्या या च विद्येति। ज्ञातागता पण्डितैस्तत्र विद्याभीप्सितं विद्यार्थिनं नचिकेतसं त्वा त्वामहं मन्ये। यस्मादाविद्वद्विप्रलोभनः कामा अप्सरःप्रभृतयो बहवोऽपि त्वां न लोलुपन्तः श्रेयोमार्गाद्विच्छेदं न कृतवन्तः साधनतः फलतश्च मन्दबुद्धीनां दुर्विवेकरुपत्वात्। व्यामिश्रीभूते इव श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यं आ इतः प्राप्नुतः। अतो हंस इवाम्भसः पयस्तौ श्रेयःप्रेयः पदार्थौ संपरीत्य सम्यक् परिगम्य मनसालोक्य धीरो धीमान् गुरुलाघवं विवनक्ति पृथक्करोति विविच्य च धीरः श्रेयो हि श्रेयो मोक्षलक्षणमेवाभिवृणीते प्रेयसोऽम्यर्हितत्वात्। यस्तु मन्दोऽल्पबुद्धिः सदसद्विवेकासामर्थ्याद्योगक्षेमात् योगक्षेमनिमित्तं शरीराद्युपचयरक्षणनिमित्तं प्रेयः पशुपुत्रादिलक्षणं वृणीते इति श्रुत्योरर्थः। किंचद्वाविमावथ पन्थानौ इत्यादिवदता वेदव्यासेनात्र च निष्ठाद्वयं दर्शयता भगवता ते विलक्षणोऽभिहिते। अत्राविद्या च संसारहेतुभूता सहकार्येण मोक्षहेतुभूतया विद्यया हातव्येति श्रुतिस्मृतिन्यायेभ्योऽवगम्यते। तथाच श्रुतयःइह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति नचेदिहावेदीन्महती विनष्टिःतमेवं विद्वानमृत इह भवतितमेव विदत्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनायविद्वान्न विबेति कुतश्चनउदरमन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवतिमृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यतिअविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितंमन्यमानाः। दंद्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाःअसूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये केचात्महनो जनाःतरति शोकमात्मवित्ब्रह्माविदाप्नोति परम्ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवतिअन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न सवेद यथा गशुरेव स देवानाम्आत्मवित् यः स इदं सर्वं भवतिभिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति इत्याद्याः सहस्त्रशः। स्मृतयश्चअज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवःअन्यथा सन्तमात्मानं योऽन्यथा प्रतिद्यते। किं तेन न कुतं पापं चौरेणात्मापहारिणाज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परं। इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। समं पश्यन्हि सर्वत्र इत्याद्याः अनर्थनिवृत्तिर्ज्ञानफलमनर्थप्राप्तिरज्ञानफलमित्येतदन्वयव्यतिरेकन्यायादपि सिध्यति। तदुक्तं पुरोणेसर्पान्कुशाग्राणि तथोदपानं ज्ञात्वा मनुष्याः परिवर्जयन्ति। अज्ञानतस्तं च पतन्ति केचिज्ज्ञाने फलं पश्य यथा विशिष्टम् इति। इह जीवदवस्थायाम्। चेच्छब्देन विद्योदयतौर्लम्यं द्योत्यते। अवेदीदहं ब्रह्मेति ज्ञातवान्। अथ ज्ञानानन्तरमेव सत्यमवितथमबाध्यं कैवल्यमस्ति स्यात्। नचेदिहावेदीत् इह चेन्न विजानीयात् तर्हि महती विनष्टिः जन्ममरणादिल क्षणा संसृतिरस्ति। तमेव परमात्मानमेव विदत्वा ज्ञात्वा विदत्वैवेति वा अतिमृत्युमेति मृत्युमत्येति अतिक्रामति मुच्यते। अयनाय मोक्षाय। उदरमत्यल्पमपि। अविद्यायामन्तरे मध्ये धनीभूत इव तमसि वर्तमानाः पुत्रधनादितृष्णापशशतैरावेष्ठ्यमानाः स्वयं धीरा धीमन्तो नत्वन्यैर्धीरत्वेनाभिमता अपण्डितमात्मानं पण्डितं शास्त्रकुशलं मन्यमाना ये एतादृशास्ते दंद्रम्यमाणा अत्यन्तं कुटिलामनेकुरुपां गतिं गच्छन्तः परियन्ति जरामरणादिदुःखे परिगच्छन्ति। यतो मूढा अविवेकिनः। तत्र दृष्टान्तः। अन्धेनैव दृष्टिहीनेनैव विषमे पथि नीयमाना यथान्धाः महान्तमनर्थं प्राप्नवन्ति तद्वदिति कठिनश्रुत्यक्षरार्थः। तथाच देहेन्द्रियाद्यनात्मसु आत्मबुद्धिमतोऽज्ञस्य रागद्वेषादिप्रयुक्तस्य धर्माधर्मानुष्ठानकर्तुः जन्ममरणादिलक्षणसंसारभाक्त्वं देहेन्द्रियादिव्यतिरिक्तात्मदर्शिनो रागद्वेषादिप्रहाणापेक्षधर्माधर्मप्रवृत्त्युपशमात् मोक्षभाक्त्वं श्रतिस्मृतिन्यायादवगतं न केनचित् वादिना कयाचिदपि युक्त्या वारयितुं शक्यम्। एवंचोक्तप्रकारेण ज्ञानाज्ञानयोः स्वरुपतः कार्यतश्च भेदे सति वस्तुतः क्षेत्रज्ञस्यैवेश्वरस्य सतोऽविद्याकृतबुद्य्धाद्युपाधिमेदात्संसारित्वमाविद्यकमाभासरुपं प्रातिभासिकं सिध्यति। यथा पुरःस्थिते वस्तुतः स्थाणावविद्याकृतेऽतस्मिंस्तद्वुद्धिलक्षणे पुरुष इति निश्चये जातेपि पुरुषधर्मः शिरःपाण्यादिमत्त्वं न स्थाणोर्भवति तद्धर्मो वक्रत्वादिमत्त्वं वा न पुरुषस्य दृश्यते। तथा देहाद्यनात्मस्वात्मभावनिश्चयेऽविद्याकृते सर्वजन्तुप्रसिद्धे जाते न चैतन्यं देहादिधर्मो देहादेर्धर्मो न वा जाड्यजरामरणादिचैतन्यस्य। ननु जाड्यादेरनात्मधर्मत्वेऽपि सुखादेरात्मधर्मत्वं किं न,स्यादितिचेन्न।कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्नीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मनएव इति श्रुत्या विमतं सुखदुःखमोहात्मकत्वादिरात्मनो धर्मो न भवति। अविद्याकृतत्वाविशेषात् जराभृत्युवदिति युक्त्या च सुखदुःखादीनामनात्मधर्मत्वसिद्धेः। ननु स्थाणुपुरुषयोर्ज्ञेययोरेव सतोर्ज्ञात्राऽविद्ययान्योन्यस्मिन्नध्यस्तत्वोद्देहात्मनोस्तु ज्ञेयज्ञात्रोरेवाध्यासात् दृष्टान्तदार्ष्टन्तिकयोर्वैषम्येण स्थाणौ पुरुषत्ववदाविद्यकत्वं देहादेरयुक्तम्। अध्यासव्यापकस्योभयोर्ज्ञेयत्वस्य व्यावृत्त्या व्याप्यस्याध्यासस्यापि व्यावृत्तेः। तस्माद्देहधर्मो ज्ञेयोऽपि सुखादिरात्मनो भवतीति चेदुच्यते। अविद्याध्यासमात्रं हि दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः साधर्म्यं विवक्षितं उभयोर्ज्ञेयत्वं तु नाध्यासव्यापकम्। स्वप्ने ज्ञातरि ज्ञेयाध्यासदर्शनात् सुखदुःखमोहेच्छदीनां देहादेः क्षेत्रस्य धर्माणामात्मधर्मत्वं चेत्तर्हि विशेषहेत्वभावादचैतन्यं जरामरणादिकं चात्मनो दर्वारं स्यात्। सुखादेरात्धर्मत्वाभावे तु विमतं सुखादिकमात्मधर्धो न भवति अविद्यारोपितत्वात् आगमापायित्वात् दृश्यत्वाज्जडत्वाज्जरादिवदित्यस्ति हेतुरतःसुखादीनां क्षेत्रधर्मत्वमेव युक्तं नात्मधर्मत्वम्। एवं च सर्वक्षेत्रेष्वपि सतो भगवतः क्षेत्रज्ञात्मकस्येश्वरस्य संसारेण ज्ञेयस्थेन ज्ञातर्यविद्यारोपितेन ज्ञातुर्वस्तुतः स्पर्शाभावात्। नन्वविद्यावत्त्वात्क्षेत्रज्ञस्य तदध्यस्तं संसारित्वामपि स्वाभाविकं स्यादितिचेन्न। तामसे आवरणात्मके तिमिरादिदोषे सत्यग्रहणदेरविद्यात्रस्योपलब्धेर्विवेकप्रकाशात्मके क्षेत्रज्ञे तामसत्वेनावरणात्मिकाया अविद्याया अभावेनाग्रहणविपरीतग्रहणसंशयानामप्यनुपपत्त्या तस्य स्वाभाविकसंसारित्वस्याभावात्। नन्वेवं तर्हि आत्मानं न जानामि मनुष्योऽहमित्यादिप्रत्ययदर्शनात्। ज्ञातुर्धर्मोऽविद्या तद्धर्मवत्वं च ज्ञातुः संसारित्वं तथाचेश्वर एव क्षेत्रज्ञोऽसंसारी चेति विप्रतिषिद्धमितिचेन्न। यतो यथा चक्षुषि तैमिरिकत्वादिदोषे सति विपरीतग्रहणादिकं दृश्यते दोषापगमे च न दृश्यते इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां निमित्तनैमित्तिकं च करणस्य चक्षुषु एव नतु गृहीतृधर्मस्तथा सर्वत्राग्रहणादिप्रत्ययास्तद्धेतवश्च दोषाः कस्यचित्करणस्यैव भवितुर्महन्ति। तता चावरणाद्यात्मिकाविद्या अन्तःकरणस्य धर्मो नतु क्षेत्रज्ञस्य। तथाचायं प्रयोगः -- निमित्तनैमित्तिकाऽविद्या तत्त्वतो न ज्ञातधर्मो दोषत्वात्तत्कार्यत्वाद्वा तिमिरादिदोषवत् तज्जन्यविपरीतग्रहणबद्धा। किंचाग्रहणादिस्तद्धेतुर्दोषश्च तत्त्वतो न ज्ञातृधर्मः ज्ञेयत्वात् प्रदीपप्रकाशवत्। यज्ज्ञेयं तत्स्वातिरिक्तज्ञेयं यथा प्रदीपप्रकाश इति व्यापत्याऽग्रहणादेरपि ज्ञेयत्वेन स्वातिरिक्तज्ञेयत्वावशयंभावात्। ज्ञाता न ज्ञेयधर्मवान् ज्ञातृत्वात् यथा देवदत्तो न स्वज्ञेयधटादिरुपादिमान् सर्वकरणवियोगे च कैवल्ये सर्ववादिभिरविद्यादिदोषत्त्वानभ्युपगमात्। अविद्यादिस्त्त्वतो न ज्ञातृधर्मो व्यमिचारित्वात् स्थूलत्वकृशवत्दिवत्। अपरिचाविद्यारात्मनो ज्ञातुर्धर्मः किमग्नयौष्णयवत्स्वाभाविकः किंवा आगन्तुकः। नाद्यः स्वाभाविकेन धर्मेण कदाचिदपि वियोगाभावेनानिर्मोक्षप्रसङ्गात्। आगन्तुकोऽपि किं स्वतः उत परतः। नाद्यःअनिर्मोक्षप्रसङ्गादेव। न द्वितीयः विभूत्वादविक्रित्वात् निरवयवत्वादसङ्गात्वादद्वयत्वाच्चात्मनः व्योमत्केनचित्क्वचित्संयोगानुपपत्त्या परतस्तस्मिन्नग्रहणादेर्वक्तुमशक्यत्वात्। तस्मादित्सिद्धं क्षेत्रज्ञस्य कालत्रयेऽपीश्वरत्वम्अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते। यथा सर्वगत् सौक्ष्यादाकाशं नोपलिप्यते। सर्वत्रावस्तितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते?अन्तःकरणव्यतिरिक्तोऽहमितिप्रतीयमाने जीवः परस्मान्न भिद्यते चेतनत्वाद्ब्रह्मवत् इत्यादिश्रुतियुक्तभ्यश्च। ननु सर्वप्रमाणोपजीव्यतया श्रेष्ठेन ज्येष्ठेन नाहमीश्वर इत्येवंरुपेण प्रत्यक्षेण भेदस्योपलभ्यमानत्वात् तद्विपुद्धं क्षेत्रज्ञेयश्वरयोरैक्यं श्रुतियुक्तिभिर्बोधयुतं न श्क्यते। ननु प्रत्यक्षस्य व्याहारिकभेदविषयत्वेन श्रुत्यादिजन्यज्ञानेन बाधसंभवादिविरोध इति चेन्न। भेदग्राहिप्रत्यक्षस्याहमीश्वर इति तद्विरोधिप्रत्ययाभावेन बाधासंभवात्। ननु क्षेत्रज्ञेश्वरभेदप्रत्यक्षे किं बहिरिन्द्रियं चक्षुरादि हेतुः किंवा मनः। नाद्यः बाह्येन्द्रियाणां रूपादिरहितात्मग्रहणसमार्थ्याभावेन तद्गतभेदग्रहणेऽप्यसामर्थ्यात्। न द्वितीयः।प्रमाणान्तरसहकरिणो मनसः पृथक्प्रमाणत्वायोगात्। तस्मात् क्लृप्तकारणाभावाद्भेदप्रत्यक्षं भ्रान्तिरितिचेन्न। सुखादिप्रत्यक्षस्य प्रमाणान्तराजन्यत्वेन मनस एव तत्प्रमाणत्वे आत्मनोऽपि त्प्रमाणत्वेन तद्गतभेदस्यापि तत्प्रमाणत्वात्। नन्वतीन्द्रियेश्वरप्रतियोगकभेदस्याप्यतीन्द्रित्वात् ईश्वरभेदः कथं प्रत्यक्षः अभावप्रत्यक्षस्य प्रतियोगप्रत्यक्षतन्त्रत्वादिचिचेन्न। मनस्तवे घटत्वाभावस्याप्रत्यक्षत्वात् घटत्वे मनस्त्वाभावस्य प्रत्यक्षत्वाच्च प्रतियोगप्रत्यक्षस्याभावप्रत्यक्षे तन्त्रत्वाभावात्। तथाच यत्र घटत्वादौ यस्य मनस्त्वादेः सत्त्वमनुपलब्धिविरोधि तत्र तदभावः प्रत्यक्षः। ततश्च क्षेत्रज्ञे ईश्वाभेदो यदि स्यात्तर्हि उपलभ्येत। यतो नोपलभ्यते तस्मात्तद्भेदः प्रत्यक्षः। नच स्थूलोहमित्यादिप्रत्यगोचरः स्थौल्यादिर्यथा शरीराद्युपाधिकतयात्मनि कल्पितस्तथा शरीरविशिष्टस्यैवेश्वरभेदानुभवात् भेदप्रत्ययोऽप्यौपाधिकत्वात्कल्पित इति वाच्यम्। जाग्रतस्वप्नयोरेकशरीरानभभासेपि योहं स्वप्नेमोहमिदानीं मनुष्यः कद्वारुढ इत्यहंप्रत्ययस्यैकरुपस्यानुवर्तमानत्वेन देहातिक्तात्मनोऽहमिति प्रत्यक्षप्रत्यगोचरत्वाभ्युपगमावश्वकत्वेन तत्र प्रतीयमानस्येश्वरप्रतियोगिकभेदस्यौपाधिकत्वायोगेनाकल्पिततत्वादितिचेदुच्यते। मनो न प्रमाणं किं चित्प्रमाणसहकारित्वात्कालादिवद्य्वतिरेके चक्षुरादिवत्? अनन्यथासिद्धप्रमेयशून्यत्वात् च मनो न प्रमाकरणं तदाश्रयत्वात्प्रमातृवत्। तदुक्तंप्रमाणसहकारित्वाद्विषस्याप्यभावतः। न प्रमाणं मनोऽस्माकं प्रमादेराश्रयत्वतः। तदपि सुखादिप्रत्यक्षस्येत्यादि तदपि न। सुखादिव्यवहारः स्वविषज्ञानजन्यः अर्थज्ञापनेच्छाधीनजडव्यवहारत्वात् संमतवदित्यनुमानात्। किंच मनो न भेदे प्रमाणमसन्निकृष्टत्वात्संमतवत् मनसो भेदेन संयोगसमवायतादात्म्यानामन्यतो न,भवति इति सुप्रसिद्धम्। अन्यश्चेन्द्रियसंनिकर्षोऽप्रसिद्धः असंनिकृष्टं चेन्द्रियमर्थं नैव गृह्णाति। तदुक्तंसंयोगादेरयुक्तत्वात्तदन्यस्याप्रसिद्धितः। संनिकर्षस्य तेनेदं भेदासंग्येव मानसम् इति। युत्तु मनस्त्वे घटत्वप्रतियोगकाभावस्येत्यादि तदपि न। प्रतियोगसत्त्वस्यानुलब्धिविरोधित्वं तत्प्रतियोग्युलब्धिव्याप्यत्नेवैव वक्तव्यम्। एवं चान्यत्र प्रतियोगसत्त्वस्याभावस्थलीयोपलम्भाव्याप्तत्वेन तत्रत्यानुप्रलब्धिविरोधित्वायोगात्। यत्रेत्यादिवक्तुरभावाधिकरण एव प्रतियोगसत्त्वतदुपलम्भयोर्वाच्यत्वापत्तेः। किंच यथा लौकिकोपदेशस्य सहकारिणोऽभावाद्ब्रह्मणत्वाद्यनुपलम्भस्तदभावं विनोपपन्नस्तथाआचार्यावान्पुरुषो वेद?नावेदविनमुनते तं बृहन्तं?श्रोतव्यो मन्तव्यः इत्यादिना बोधितस्य सहकार्यन्तरस्याभावेन क्षेत्रज्ञे ब्रह्माभेदानुपलम्भोऽप्भावं विनोपपद्यते। अपि च तमसावृतस्य घटस्य सत्त्वं यता नानुपलब्धिविरोधि तथानीहारेण प्रावृताजल्प्या च?अनृतेन हि प्रत्मूढाअज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः?भवत्यभेदो भदश्च तस्याज्ञानकृतो भवेत् इत्यादिश्रुतिस्मृतिऽज्ञानेनावृतत्वप्रतीतेर्ज्ञातृब्रह्माभेदसत्त्वं नानुपलब्धिविरोध। किंच यथा मनसानुपलम्भान्न धर्माद्याभावसिद्धिस्तथायन्मनसा न मनुते?तं त्वैपनिषदं पुरुषं पृच्छामि?सर्वेवेदायत्पदमामनन्ति इत्यादिश्रुत्या मनोगम्यस्य प्रत्यगभिन्नस्य ब्रह्मणः मनसानुपलम्भादभावो न सिध्यति। तदपि जाग्रत्स्वप्नयोरित्यादि तदपि न। नाहमीश्वर इति भेदानुभवस्याहमिहेति परिच्छिन्नतयानुभूयमाने जीवेऽनुभूयमानत्वात् निरुपाध्यात्मनश्च परिच्छेदासंभवाद्धटाकाशवत्परिच्छेस्यौपाधिकत्वेन तद्गतभेदस्याप्यौपाधिकत्वात् प्रत्यक्षस्य व्यावहारिकस्त्तामुपजीव्य प्रवत्तं श्रुत्यादि तस्य पारमार्थकसत्तां निराकरोत्यतो नोपजीव्यविरोधः। ज्येष्ठत्वात् रजतज्ञानवत्। ननु क्षेत्रज्ञस्येश्वाभिन्नत्वे सति संसारसंसारित्वाभावे शास्त्रस्य प्रत्यक्षादेश्चानर्थक्यात् वास्तवत्वमेव संसारसंसारित्वयोरिति चेत् किं विद्यावस्थायां शास्त्रद्यानर्थक्यमुताविद्यावस्तायाम्। आद्ये मुक्तात्मनां संसारसंसारित्वव्यवहारस्य सर्वैरप्यात्मवादिभिरनिष्टत्वेन तैर्यथाशास्त्राद्यानर्थक्यदोषो नैवाभ्युपगतस्तथास्माभिरपि? द्वितीयं च यथा सर्वेषां द्वैतिनां मते बन्धावस्थायामेव शास्त्रार्यर्थत्त्वं न मुक्तावस्थायामेवम्। ननु द्वैतिनां मते आत्मनो बन्ध मुक्त्यवस्थयोर्वास्तवत्वेन हेयोपादेयसाधनसद्भावेन शास्त्रादेरर्थवत्त्वं सिध्यति नत्वद्वैतिनामविद्याकृतत्वात् द्वैतस्यापरमार्थत्वेनात्मनो बन्धावस्थाया अवास्तवत्वादितिचेत् आत्मनो वास्तवे बन्धमुक्त्यवस्थे युगपत्सयातां क्रमेण वा। नाद्यः। एककालीनस्थितिगतिवदेकस्मिन् युगपद्विरोधात्। द्वितीयेऽपि तयोर्निर्निमित्तत्वं सनिमित्तत्वं वा। नाद्यः। अनिर्मोक्षप्रसङ्गात्। द्वितीये स्वतोभावादपरमार्थत्वप्रसङ्गेन बन्धमोक्षावस्थे न वास्तवेऽस्वाभाविकत्वात् स्फटिकलौहित्यवदित्यभ्युपगमहानापत्तेः। द्वितीये स्वतोभावदपरमार्थत्वप्रसङ्गेन बन्धमोक्षावस्थे न वास्तवेऽस्वाभाविकत्वात् स्फटिकलौहित्यवदित्यभ्युपगमहानापत्तेः। किंचावस्थयोर्वास्तत्वमिच्छता तयोर्यौगपद्यासंभवेन क्रमनिरुपणार्थं बन्धवास्थापूर्वं प्रकल्प्यानादिमत्यन्तवती तथा मोक्षावस्था पश्चात्प्रकल्प्या आदिमत्यनन्ता तच्च यदनादिभावरुपं तन्नित्यं यथात्मा। यत्सादिभावरुपं तदन्तवद्यथा घटादीति व्याप्तिद्वयविरुद्धम्। अपि च क्रमभाविनीभ्यावस्थाभ्यामात्मा संबध्यते न वा। आद्ये किं पूर्वावस्थया सहैवोत्तरावस्थया संबध्यते किंवा पूर्वावस्थां विहाय। आद्येऽनिर्मोक्षप्रसङ्गः। द्वतीये आत्मनः सातिशयत्वापत्त्या नित्यत्वमुपपादयितुमशक्यम्। अन्त्ये द्वैतिनामपि शास्त्राद्यानर्थक्यदोषस्यापरिहार्यत्वान्नाद्वैतवादिना परिहर्तव्यम्। तर्हि पक्षद्वयेप दोषाविशेषान्नाद्वैतमतांनुरागे हेतुरिति चेन्न। अद्वैतमते शास्त्राद्यानर्थक्याभावात्। भोक्तृत्वकर्तृत्वयोर्देहादृष्टयोर्वा फलहेत्वोरनात्मनोरहं कर्ताहं भोक्ताहं मनुष्य इत्याद्यत्मदर्शनवतोऽविदुशोऽधिकारिणः संभवात् न शास्त्राद्यानर्थक्यम्। ननु विद्वद्विषयं शास्त्रं किं न स्यादितिचेन्न। विदुषां फलहेतुभ्यामात्मनोऽन्यत्वदर्शने सति तयोरहमित्यात्मदर्शनानुपपत्तेः। नहि जलाग्नयोश्छायातपर्योर्वा भेददर्शी अत्यन्तमूढोऽपि तयोरेत्कामतां पश्यति किमुत विवेकी। तस्माद्विधिनिषेधशास्त्रं न विद्वद्विषयम्। नहि देवदत्त त्वमिदं कुर्विति देवदत्ते नियुक्तं तत्रस्थो नियोगं श्रृण्वन्नपि विष्णुमित्रोहं नियुक्त इति नियोगं प्रतिपद्यते। ननु देवदत्ते नियुक्ते कदाचिद्विष्णुमित्रो विनियुक्तोऽस्मीति प्रतिपद्यत इतिचेत्सत्यम्। नियोगविषयान्नियोज्यादात्मनो विवेकाग्रहणात्। भ्रान्त्या प्रतिपत्त्युत्पत्तेः। तथा फलहेत्वोरप्यात्मनो विवेकाग्रहणात् अविद्वान्संभवत्येव विधिनिषेधशास्त्राधिकारी। ननु यो विद्योदयात्पूर्वमनुभूतोऽविद्योत्पन्नदेहाद्यभिमानसंबन्धस्तदपेक्षया सत्यपि फलहेत्वोरात्मान्यत्वदर्शने इष्टफलहेत्वोः प्रवर्तितोऽस्म्यनिष्टफलहेत्वोर्निवर्तितोऽस्मीति शास्त्रार्थविषया प्रवृत्तियुक्तैव। यथा पुतृपुत्रभ्रात्रादीनामितरेतरात्मान्यत्वदशने सत्यपि पितरमधिकृत्य विधौ निषेधे वा तस्य तदनुष्टानाशक्तो पुत्रस्य तद्विषया धीरिष्टा? एवं पुत्रस्यानुष्ठानाशक्तस्य पितुरित्यन्योन्यनियोगप्रतिषेधार्था प्रतिपत्तिरिति चेन्न। पुत्रादीनां मिथ्याभिमानात्। मथो नियोगादिप्रतिपत्तिसत्त्वेऽपि व्यतिरिक्तात्मदर्शनप्रतिपत्तः प्रागेव फलहेत्वोरात्माभिमानस्य प्रसिद्धत्वेन विदुषस्तदयोगात्। किंचसर्वोपेक्षा च यज्ञादिश्रुतेः इत्यधिकरणे सम्यग्ज्ञानस्यादृष्टसाध्यत्वोक्त्या अनुष्ठितविधिनिषेद्यार्था हि फलहेतुभ्यामात्मनोऽन्यत्वं प्रतिपद्यते। सत्यदृष्टे सम्यग्ज्ञानदर्शनात्? असति च तस्मिञ्छुद्धचित्तस्य तददर्शनादन्वव्यतिरेकाभ्यांतमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्णा विवदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्या च विधिनिषेधानुष्ठानात्मपूर्वं ताभ्यामात्मनोऽन्यत्वं न प्रतिपद्यते। तस्मादविद्वद्विषयं विधिनिषेधशास्त्रमिति सिद्धम्। ननुस्वर्गकामो यजेत?न कलञ्जं भक्षयेत् इत्यादावात्मनो देहाद्य्वतिरेकं पश्यतां देहाद्यभिमानरुपाधिकारहेत्वभावात् देहादावात्मत्वमनुभवतामपि पारलौकिकप्रतित्त्याभावात् प्रवृत्तिनिवृत्तयभावेन कर्तुरभावात् शास्त्रानर्थक्यमितिचेन्न। प्रत्यगभिन्नब्रह्मविदः ,परलोकाभावविदश्चानात्मवादिनः प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावेऽपि विधिनिषेधशास्त्रान्यथानुपपत्त्यानुमितात्मस्तित्वस्य निर्विशेषात्मस्वरुपानभिज्ञस्य कर्मफले स्वर्गादौ नरकादौ च संजाततृष्णस्योत्पन्नत्रासस्य च श्रद्दधानस्य प्रवृत्तिनिवृत्त्योः सर्वप्रत्यक्षसिद्धत्वेन शास्त्रानर्थक्याभावात्। ननु विवेकिनां देहादिभ्यो निष्कृष्टमात्मानं दृष्टवतां विधिनिषेधयोरधिकाराभावेन प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावेयद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते इति न्यायेन तदनुगच्छतां तेषां विधिनिषेधशास्त्रेऽप्रवृत्तिदर्शनात्तत्राप्रवृत्तौ शास्त्रानर्थक्यमितिचेत् किं सर्वेषां विवेकित्वाच्छास्त्रानर्थक्यमुच्यत उत कस्यचित्। नाद्यःमनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इतिन्यायेन सर्वेषां विवेकित्वाभावात्। न द्वितीयः। मूढानां प्रवृत्तिनिवृत्त्यो रागादिदोषाधीनत्वेन विवेक्यनुगामित्वाभावात्। श्येनाद्यभिचारिकर्मणि विवेकनामप्रवृत्तावपि इतरेषां प्रवृत्तिदर्शनेन तदप्रवृत्तावितरेषामप्यप्रवृत्तिरिति नियन्तुमशक्यत्वात्।स्वभावस्तु प्रवर्तते इत्युक्तत्वेन प्रवृत्तेः स्वभावाख्याज्ञानकार्यत्वाद्विवेकिनां प्रवृत्त्यभावेऽप्यज्ञानां प्रवृत्त्यभावायोगात्। तस्मादविद्यामात्रः विधिनिषेधाधीनप्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मको तथा मिथ्याज्ञानस्य परमार्थवस्तुदूषणेऽसामर्थ्यमतो भगवतेदमुक्तंक्षेत्रज्ञं तापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत इति। एवंचोक्तयुक्त्यात्वं वा अहमस्मि भगवो देवते अहं वै त्मसि अहं ब्रह्मास्मि तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि इत्यादिश्रुत्या असकृदुपदेशाच्च प्रतिमायां विष्णुबुद्धिरिव क्षेत्रज्ञ ईश्वरबुद्धिरिति बालविमोहनमात्रं गौणत्वप्रसङ्गात् वाक्यवैरुप्याच्च।अथ योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योसावन्योऽन्योऽहमस्मीति न स वेद।मृत्योः स मृत्युमाप्राप्नोति य इह नानेव पश्यति।सर्व तं परादाद्योन्यत्रात्मनः सर्वं वेद इत्यादिश्रुतिभिर्भेदर्शनस्य निषिद्धत्वाच्च। यत्पुनरुक्तं विरुद्धधर्मवत्त्वादैक्यं न संभवतीति तदपि न। विरुद्धमर्मताया मिथ्यात्वोपपत्त्या जहदजहल्लक्षणया सोऽयंदेवदत्त इतिवदैक्यस्य सुवचत्वात्। तसमात्क्षेत्रज्ञस्येश्वराभिन्नस्य न संसारसंस्पर्शः। ननु संसारिणामिवाहं ब्राह्मण एवमाभिजात्यादिविशिष्टः इदं पुत्रक्षेत्रकलत्रादकं ममेति पण्डितानामपि संसारित्वप्रतीते क्षेत्रज्ञस्य वस्तुतः संसारासंस्पर्शे विद्वदनुभवो विरुध्येदिति चेन्नेदं पाण्डित्यं कूटस्थासंसार्यात्मदर्शनं कुंतु क्षेत्रज्ञ एवात्मदर्शनं क्षेत्रज्ञ कूटस्थं पश्यतां अयमहं कर्ता ममेदं भोग्यं रयान्ममानेन कर्मणेदं फलं सेत्स्यतीति प्रत्ययो न संभवति। कूटस्थात्मधीविरुद्धत्वादस्य प्रत्ययस्य। नन्वविक्रियात्मदर्शिनो बोगकर्माकाङ्क्षयोरभावे कः शास्त्राधिकारितिचेत् दुर्वचत्वात्तस्य निवृत्तिनिष्ठत्वं न सिध्यतीति चेत्सत्यम्। तथापि कार्यकरणसंघातव्यापारोपरमे निवृत्तिरुपचर्यते। इदं चान्यत्पाण्डित्यं कस्यचित्पण्डितंमन्यस्य। क्षेत्रज्ञ ईश्वर एव क्षेत्रं चान्यत्। क्षेत्रज्ञविषयः अहं तु वस्तुतः संसारी सुखी दुःखी च। ननु संसारित्वस्य वास्तवत्वे तदनिवृत्त्या पुरुषाथासिद्धिरिति चेन्न। क्षेत्रं ज्ञात्वा ततो निष्कृष्टस्य क्षेत्रज्ञस्य ज्ञानेन मम संसारीपरमस्य कर्तव्यत्वात्। ननु क्षेत्रज्ञज्ञानं खतं संसारोपरत्युत्पादकमितिचेत्। ध्यानेनेश्वरं क्षेत्रज्ञं साक्षात्कृत्य तत्स्वरुपावस्थानेनेति गृहाण। तथा चाहं वस्तुतः संसारी असंसारिणः क्षेत्रज्ञादीश्वरादन्यस्तस्मान्मम संसारिणोऽसंसारिश्वरत्वं कर्तव्यभित्येवं यो बुध्यते यो वा तथाविधं ज्ञानं त्वया संपादनीयमिति बोधयति नासौ क्षेत्रज्ञः। अन्यथोपदेशानर्थक्यमित्येवं मन्यमानो पण्डितापसदः। अयमात्मा ब्रह्मेत्याद्यात्मनो ब्रह्मत्वबोधकश्रुत्या प्रतिपादितोपपत्त्या च विरोधात्। ननु संसारस्य वस्तुत्वाभ्युपगमात्संसारावस्थायां कर्मकाण्डस्यार्थवत्त्वं संसारिनिरासेनात्मनो ब्रह्मत्वे ध्यानादिना साधिते मोक्षावस्थायां ज्ञानकाण्डस्यार्थवत्त्वं तत्कथं यथोक्तज्ञानवान्पण्डितापसन इत्युच्यत इति चेत्। उच्यते। संसारमोक्ष्योः शास्त्रस्य चार्थवत्त्वं करोमीति मन्यमानः पण्डितापसद एव। यतः कल्पितं संसारित्वमधिकृत्य साध्यसाधनसंबन्धं बोधयतः कर्मकाण्डस्य तथाविधं संसारित्वं पराकृत्याखण्डैकरसे प्रत्यग्ब्रह्मणि पर्यवस्यतः ज्ञानकाण्डस्य आत्मनः शास्त्रसिद्धं ब्रह्मत्वं च त्यक्त्वा संसारित्वस्य वास्तवत्वमात्मनोऽब्रह्मत्वं च कल्पयन्नात्महा भूत्वा शास्त्रार्थसंप्रदायरहितत्वात् तत्त्वमसीतिवत्प्रसिद्धक्षेत्रज्ञानुवादेनाप्रसिद्धं तस्येश्वरत्वं क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीत्युपदेशतः श्रुतं तस्य हानिमश्रुत्यस्य जीवेश्वरयोर्भेदस्य कल्पनां च कुर्वनत्स्वयं मूढः क्षेत्रज्ञं तापि मां विद्धीत्यनेन सर्वक्षेत्रान्तर्यामी परो जीवादन्यो निरुप्यते नतु जीवस्येश्वरत्वं बोध्यते इत्यन्यांश्च व्यामोहयति। तस्मादसंप्रदायविद्यथोक्तं पाण्डित्यं पुरुस्कृत्य सर्वशास्त्रार्थविदपि मूर्खवदुपेक्षणीयः। तथाच विद्याविद्यायोर्वैलक्षण्याभ्युपगमात् ईश्वरस्य क्षेत्रज्ञैकत्वे संसारित्वं प्राप्नोति क्षेत्रज्ञानां चेश्वरैकत्वे संसारिणोऽभावात्संसाराभावप्रसङ्ग इत्येतौ दोषौ प्रत्युक्तौ। अविद्यापरिकल्पितदोषेण तद्विषयं वस्तु न दुष्यतीत्यत्र दृष्टान्तस्योक्तत्वात्। संसारसंसारिणोरविद्याकल्पितत्वेनोपपत्तेः। नन्वविद्या संसारसंसारिणौ कल्पयन्ती() आश्रयान्तराभावात्क्षेत्रज्ञाश्रया तस्य त तद्वत्तत्वमेव संसारित्वम्। नचाविद्यावत्त्वमविद्याकृतमनवस्थाप्रसङ्गात्। ननूत्खातदन्तोरगवदविद्या किं करिष्यतीतिचेन्नाहं दुःख्यहं सुखीति तत्कृतस्य दुःखित्वादेः प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति चेन्न। क्षेत्रज्ञ आपाद्यामानस्य दोषजातस्य ज्ञेयत्वोपपत्त्या क्षेत्रधर्मत्वेन क्षेत्रज्ञधर्मात्वाभावात्। नच क्षेत्रद्वारा क्षेत्रज्ञस्तत्कृतदोषवत्तया दुष्यति क्षेयेन ज्ञातुः संसर्गे ज्ञेयत्वाभावप्रसंगेन तेन ज्ञातुः संसर्गानुपपत्तेः। ननु धर्मधर्मित्वेन संसर्गेऽपि ज्ञेयत्वे का क्षतिरितिचेत्। अविद्यावत्त्वदुःखित्वादेरात्मधर्मत्वे स्वधर्मस्य च स्वज्ञेयत्वे स्वस्यापि स्वज्ञेयत्वापत्त्या कर्मकर्तृविरोध इति गृहाण। किंच विमतं नात्माश्रितं तज्ज्ञेयत्वात् रुपादिवदित्यनुमानात्। दुःखित्वादेः प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानत्वेन ज्ञेयत्वेनात्मधर्मत्वं न संभवति तद्धर्मत्वे वा ज्ञेयत्वम्। किंच महाभूतानीत्यादिना ज्ञेयमात्रस्य क्षेत्रान्तर्भावकथनात् एतद्यो वेत्तीत्युक्त्या क्षेत्रज्ञस्य ज्ञातृत्वानिर्णयाज्ज्ञेयं सर्वं क्षेत्रं ज्ञातैव क्षेत्रज्ञ इत्यवधार्यते। तस्मात्प्रमाणयुक्त्याख्यावष्टभान्तराभावात् केवलाविद्यावष्टम्भात् अविद्यादुःखित्वादेः,क्षेत्रज्ञधर्मत्वं तस्य च प्रत्यक्षोपलभ्यत्वमिति विरुद्धमुच्यते। ननु यया अविद्या विरुद्धमपि निर्वोढुं शक्यते तस्याः स्वातन्त्र्याभावात् चितोऽन्यस्य वास्तववस्तुनोऽविद्यसानत्वात् आविद्यकस्य च विद्यमानत्वेऽपि तस्य तत्कार्यतया तदाश्रयत्वासंभात् अविद्या कस्येति चेत्। किमाश्रयमात्रं पृच्छसि तद्विशेषं वा। आद्ये तस्यादृश्यत्वेन पारतन्त्र्यात् किंचिन्निष्ठैव दृश्यते। तथाच यमाश्रयते तस्यैव सेत्यतो नाश्यमात्रं प्रष्टव्यं तस्योपलभ्यमानमत्वात्। आश्रयविशेषस्योपलभ्यमानत्वादेव। न द्वितीयः। नहि गोमत्युपलभ्यमाने गावः कस्यति प्रश्नो युज्यते। ननु गवां तद्वतश्च प्रत्यक्षत्वात्तसंबन्धोऽपि प्रत्यक्ष इति तत्प्रश्नो यथा निरर्थकः तथाऽविद्यातद्वतोश्च प्रत्यक्षत्वाभावात्प्रश्नानर्थक्याभावात्। दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्वैषम्यमिति चेदप्रत्यक्षेणाविद्यावताऽवित्यासंबन्धे ज्ञाते तव किं स्यात्। नन्वविद्याया अनर्थहेतुत्वात् परिहर्तव्या स्यादितिचेत् यस्यास्ति सा स तां परिहरिष्यति। ननु ममैवाविद्या तत्परिहारे मयैव प्रयतितव्यमितिचेत् तर्ह्यविर्यां तद्वन्तं चात्मानं जानासीत्यतः प्रश्नानर्थक्यम्। ननु जानन्नपि तद्विषयप्रत्यक्षाभावात्पृच्छामीतिचेत् अहमविद्यावानविद्याकार्यवत्त्वात् व्यतिरेकेण मुक्तात्मवदित्यनुमानेन चेज्जानासि तर्हि संबन्धग्रहणं कथं। ज्ञातैवात्मा स्वस्याविद्यासंबन्धं जानाति किंवान्यो ज्ञाता। नाद्यः। स्वस्याविद्यां प्रति ज्ञातृत्वकालेऽविद्याश्रयत्वेन गृहीतत्वात् तज्ज्ञातृत्वेनैवोपयुक्तस्यात्मनः कर्मकर्तृविरोधात्तस्याः स्वात्मनि संबन्धग्रहासंभवात्। न द्वितीयः। अनवस्थाप्रसङ्गात्। तथा चाविद्यादिकं ज्ञेयं ज्ञेयमेव ज्ञाता च ज्ञातैवातोऽविद्यादुःखित्वार्धैर्न ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य किंचिद्दुष्यति। ननु दोषवत्क्षेत्रज्ञातृत्वमेवात्मनो दोष इतिचेत् किं ज्ञातृत्वं ज्ञानक्रियाकर्तृत्वं उत ज्ञानस्वरुपत्वम्। नाद्यः। तदनभ्युपगमेन तत्प्रयुक्तदोषाभावात्। द्वितीयं यथोष्णतामात्रेण व्हनेस्तापे तापयितृत्वोपचारस्तथा विज्ञानस्वरुपस्याऽविक्रियात्मनो विज्ञातृत्वोपचाराददोष इत्यलं विस्तरेण।
।।13.3।।तमेवंलक्षणमुपाधितो निष्कृष्टं क्षेत्रज्ञं चात्क्षेत्रमपि मां परमेश्वरमेवोभयरूपेण सन्तं विद्धि।तत्त्वमस्यहं ब्रह्मास्मि ब्रह्मैवेदं सर्वं सर्वं खल्विदं ब्रह्म इति शास्त्रात्। यस्मादुभयात्माहं तस्मात्क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्यज्ज्ञानं क्षेत्रस्य बाध्यत्वेन क्षेत्रज्ञस्य सर्वबाधावधिभूतत्वेन च यज्ज्ञानमापरोक्ष्येण तत्त्वनिश्चयस्तदेव ज्ञानं मम मद्विषयं सम्यग्ज्ञानं एतयोरेव ज्ञानं ब्रह्मज्ञानमिति मतं निश्चितं ब्रह्मविद्भिःनेह नानास्ति किंचन इति क्षेत्रस्य बाधात्नान्योतोऽस्ति द्रष्टा इति क्षेत्रज्ञादन्यस्य द्रष्टुर्निषेधाच्च। यद्यपि सर्वस्य ब्रह्माभिन्नत्वाद्यत्किञ्चिदपि ज्ञानं तत्सर्वं ब्रह्मविषयमेव भवति। तथापि रज्जुं सर्पात्मना पश्यतो न तु रज्जुविषयं सर्पविषयं वा सम्यग्ज्ञानमस्ति। नापि तस्य ज्ञानस्य रज्जुव्यतिरेकेण विषयान्तरं वास्तवमस्ति। किंतु यदा सर्पबाधेन रज्जुतत्त्वमधिगच्छति तदैव सर्पं मिथ्यायमिति सम्यग्जानाति रज्जुं च। तद्वदिहाप्युभयविदेव सम्यग्ज्ञानीत्यर्थः। नह्यन्यतरस्य तत्त्वे ज्ञाते कृतकृत्यतास्ति। न हि सांख्यो निर्विशेषात्मविदपि प्रपञ्चमबाधमानः शून्यवादी वा प्रपञ्चं तुच्छत्वेन पश्यन्नधिष्ठानं ब्रह्म नास्तीति ब्रुवाणः कृतकृत्यो भवतीति वक्तुं युक्तम्। अतो द्वयोरपि तत्त्वं बोध्यमेव।