श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।6.45।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।6.45।। परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है, वह योगी फिर परमगतिको प्राप्त हो जाता है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।6.45।।यदा चैवं प्रथमभूमिकायां मृतोऽपि अनेकभोगवासनाव्यवहितमपि विविधप्रमादकारणवति महाराजकुलेऽपि जन्म लब्ध्वापि योगभ्रष्टः पूर्वोपचितज्ञानसंस्कारप्राबल्येन कर्माधिकारमतिक्रम्य ज्ञानाधिकारी भवति तदा किमु वक्तव्यं द्वितीयायां तृतीयायां वा भूमिकायां मृतो विषयभोगान्ते लब्धमहाराजकुलजन्मा यदि वा भोगमकृत्वैव लब्धब्रह्मविद्ब्राह्मणकुलजन्मा योगभ्रष्टः कर्माधिकारातिक्रमेण ज्ञानाधिकारी भूत्वा तत्साधनानि संपाद्य तत्फललाभेन संसारबन्धनान्मुच्यत इति तदेतदाह प्रयत्नात्पूर्वकृतादप्यधिकधिकं यतमानः प्रयत्नातिरेकं कुर्वन् योगी पूर्वोपचितसंस्कारवांस्तेनैव योगप्रयत्नपुण्येन संशुद्धकिल्बिषो धौतज्ञानप्रतिबन्धकपापमलः अतएव संस्कारोपचयात्पुण्योपचयाच्चानेकैर्जन्मभिः संसिद्धः संस्कारातिरेकेण पुण्यातिरेकेण च प्राप्तचरमजन्मा ततः साधनपरिपाकाद्याति परां प्रकृष्टां गतिं मुक्तिम्। नास्त्येवात्र कश्चित्संशय इत्यर्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।6.45।।अयं चायतिरेव निर्दिष्टः। प्रयत्नान्मानसव्यापाराद्यतमानस्तु योगी भ्रंशाभावात् संशुद्धकिल्विषोऽनेकजन्मसंसिद्धः अनेकजन्मसु तत्त्वज्ञानवान् सन् ततोऽन्तिमजन्मनि सिद्धज्ञानतः परांगतिमक्षरं मत्स्वरूपं याति। यद्वाऽनेकजन्मविपाकेन भक्तिमान् भवति। ततो भक्तितः परां गतिं भगवद्धाम वैकुण्ठाख्यं याति। एवमेवोक्तं निबन्धेईश्वरालम्बनं योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम् इति।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।6.45।। व्याख्या--[वैराग्यवान् योगभ्रष्ट तो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगियोंके कुलमें जन्म लेने और वहाँ विशेषतासे यत्न करनेके कारण सुगमतासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है। परन्तु श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट परमात्माको कैसे प्राप्त होता है? इसका वर्णन इस श्लोकमें करते हैं।]

'तु'--इस पदका तात्पर्य है कि योगका जिज्ञासु भी जब वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रण कर जाता है, उनसे ऊँचा उठ जाता है, तब जो योगमें लगा हुआ है और तत्परतासे यत्न करता है, वह वेदोंसे ऊँचा उठ जाय और परमगतिको प्राप्त हो जाय, इसमें तो सन्देह ही क्या है!

'योगी'--जो परमात्मतत्त्वको, समताको चाहता है और राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंमें नहीं फँसता, वह योगी है।

'प्रयत्नाद्यतमनः'--प्रयत्नपूर्वक यत्न करनेका तात्पर्य है कि उसके भीतर परमात्माकी तरफ चलनेकी जो उत्कण्ठा है, लगन है, उत्साह है, तत्परता है, वह दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहती है। साधनमें उसकी निरन्तर सजगता रहती है।श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट पूर्वाभ्यासके कारण परमात्माकी तरफ खिंचता है और वर्तमानमें भोगोंके सङ्गसे संसारकी तरफ खिंचता है। अगर वह प्रयत्नपूर्वक शूरवीरतासे भोगोंका त्याग कर दे, तो फिर वह परमात्माको प्राप्त कर लेगा। कारण कि जब योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है, तो फिर जो तत्परतासे साधनमें लग जाता है, उसका तो कहना ही क्या है! जैसे निषिद्ध आचरणमें लगा हुआ पुरुष एक बार चोट खानेपर फिर विशेष जोरसे परमात्मामें लग जाता है, ऐसे ही योगभ्रष्ट भी श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेपर विशेष जोरसे परमात्मामें लग जाता है।

'संशुद्धकिल्बिषः'--उसके अन्तःकरणके सब दोष, सब पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् परमात्माकी तरफ लगन होनेसे उसके भीतर भोग, संग्रह, मान, बड़ाई आदिकी इच्छा सर्वथा मिट गयी है।जो प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है, उसके प्रयत्नसे ही यह मालूम होता है कि उसके सब पाप नष्ट हो चुके हैं।

'अनेकजन्मसंसिद्धः--(टिप्पणी प0 383.1)' पहले मनुष्यजन्ममें योगके लिये यत्न करनेसे शुद्धि हुई, फिर अन्तसमयमें योगसे विचलित होकर स्वर्गादि लोकोंमें गया तथा वहाँ भोगोंसे अरुचि होनेसे शुद्धि हुई, और फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेकर परमात्मप्राप्तिके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करनेसे शुद्धि हुई। इस प्रकार तीन जन्मोंमें शुद्ध होना ही अनेकजन्मसंसिद्धि होना है (टिप्पणी प0 383.2)

'ततो याति परां गतिम्'--इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जिसको प्राप्त होनेपर उससे बढ़कर कोई भी लाभ माननेमें नहीं आता और जिसमें स्थित होनपर भयंकर-से-भयंकर दुःख भी विचलित नहीं कर सकता (गीता 6। 22)--ऐसे आत्यन्तिक सुखको वह प्राप्त हो जाता है।

मार्मिक बात

वास्तवमें देखा जाय तो मनुष्यमात्र अनेक-जन्म-संसिद्ध है। कारण कि इस मनुष्यशरीरके पहले अगर वह स्वर्गादि लोकोंमें गया है, तो वहाँ शुभ कर्मोंका फल भोगनेसे उसके स्वर्गप्रापक पुण्य समाप्त हो गये और वह पुण्योंसे शुद्ध हो गया। अगर वह नरकोंमें गया है, तो वहाँ नारकीय यातना भोगनेसे उसके नरकप्रापक पाप समाप्त हो गये और वह पापोंसे शुद्ध हो गया। अगर वह चौरासी लाख योनियोंमें गया है, तो वहाँ उस-उस योनिके रूपमें अशुभ कर्मोंका, पापोंका फल भोगनेसे उसके मनुष्येतर योनिप्रापक पाप कट गये और वह शुद्ध हो गया (टिप्पणी प0 383.3)। इस प्रकार यह जीव अनेक जन्मोंमें पुण्यों और पापोंसे शुद्ध हुआ है। यह शुद्ध होना ही इसका 'संसिद्ध' होना है।दूसरी बात, मनुष्यमात्र प्रयत्नपूर्वक यत्न करके परम-गतिको प्राप्त कर सकता है, अपना कल्याण कर सकता है। कारण कि भगवान्ने यह अन्तिम जन्म इस मनुष्यको केवल अपना कल्याण करनेके लिये ही दिया है। अगर यह मनुष्य अपना कल्याण करनेका अधिकारी नहीं होता, तो भगवान् इसको मनुष्यजन्म ही क्यों देते? अब जब मनुष्यशरीर दिया है, तो यह मुक्तिका पात्र है ही। अतः मनुष्यमात्रको अपने उद्धारके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करना चाहिये।

 सम्बन्ध--योगभ्रष्टका इस लोक और परलोकमें पतन नहीं होता; योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है--यह जो भगवान्ने महिमा कही है, यह महिमा भ्रष्ट होनेकी नहीं है, प्रत्युत योगकी है। अतः अब आगेके श्लोकमें उसी योगकी महिमा कहते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।6.45।।इतश्च योगित्वं श्रेय इत्याह प्रयत्नादिति। प्रयत्नादधिकयत्नात्प्रकर्षेण यत्नेन यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः संशुद्धपापाोऽनेकेषु जन्मसु किंचित्कंचित्संस्कारजातमुपचित्य तेनोपचितेनानेकजन्मकृतेन संसिद्धोऽनेकजन्मसंसिद्धस्ततः प्राप्ततत्त्वसाक्षात्कारः सन् परां मोक्षाख्यां गतिं याति। यत्तु तत इति तच्छब्देन प्रकृतं चलितमानसत्वं परामृशति। ततश्चलितमानसत्वाद्धेतोः। अयंभावः चलितत्वदशायां काम्यानि कर्माणि यानि कृतानि तेषां प्रत्येकं फलदातृत्वात् युगपत्सर्वकर्मफलसंयोगासंभवात् एकैकस्य फलमनुभूय शुचीनां श्रीमतां योगिनां वा गेहे जन्मानुभूय पुनः कर्मयोगे यतमानः तत्तत्काम्यकर्मसंख्याकजन्मान्यनुभूय ज्ञानसंपन्नः सन् मोक्षं प्रतिपद्यत इति। प्रयत्नादिति कर्मणि ल्यब्लोपे पञ्चमी। प्रयत्नं प्राप्येत्यर्थः। कर्मयोगी कर्मानुष्ठाता। योगिनं विशिनष्टि यतमान इति। उज्क्षितदर्प इत्यर्थः। शुचीनां श्रीमतां योगिनां वा कुलेऽहमुत्पन्न इत्यभिमानवर्जति इति भाव इति तच्चिन्त्यम्। निरर्थकाया ल्यब्लोपकल्पनायाः प्रकृष्टपरामर्शकल्पनाया उत्तरश्लोकेन सर्वतः श्रैष्ठ्येन वर्ण्यमानस्य योगिनः क्रमयोगिपरत्वेन वर्णनस्य जिज्ञासुरपीत्यननुरोधेन यतमानपदव्याख्यानस्य चायुक्तत्वादिति दिक्।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।6.45।।एवं योगभ्रष्टगतिमुक्त्वा यो विषयैर्ह्रियमाणोऽपि प्रयत्नेन योगमेवाभ्यसितुं प्रवर्तते तस्य गतिमाह प्रयत्नादिति। प्रयत्नात्प्रकृष्टाद्धठाद्वायुनिरोधाद्विरूपात्खेचर्यादिमुद्राविशेषाभ्यासाद्यो यतमानः संशुद्धकिल्बिषो निष्पापो भवति। यदाह मनुःप्राणायामैर्दहेदेनः इति। हठयोगानां सर्वेषां पापनिवृत्त्युपयोगित्वं न तत्त्वसाक्षात्कारे साक्षात्साधनत्वमित्यर्थः। अतएव सः अनेकैर्जन्मनि संसिद्धः प्राप्तयोगो भूत्वा ततः परां गतिं मोक्षं याति। एतेनचक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः इति पञ्चमान्ते यत्सूत्रितं तद्व्याख्यातम्।