श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।6.46।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।6.46।। (सकामभाववाले) तपस्वियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है -- ऐसा मेरा मत है। अतः हे अर्जुन ! तू योगी हो जा।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।6.46।।इदानीं योगी स्तूयतेऽर्जुनं प्रति श्रद्धातिशयोत्पादनपूर्वकं योगं विधातुं तपस्विभ्यः कृच्छ्रचान्द्रायणादितपःपरायणेभ्योऽप्यधिक उत्कृष्टो योगी तत्त्वज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं मनोनाशवासनाक्षयकारीविद्यया तदारोहन्ति यत्र कामाः परागताः। न तत्र दक्षिणा यन्ति नाविद्वांसस्तपस्विनः इति श्रुतेः। अतएव कर्मिभ्यो दक्षिणासहितज्योतिष्टोमादिकर्मानुष्ठायिभ्यश्चाधिको योगी। कर्मिणां तपस्विनां चाज्ञत्वेन मोक्षानर्हत्वात्। ज्ञानिभ्योऽपि परोक्षज्ञानवद्भ्योऽप्यपरोक्षज्ञानवानधिको मतो योगी। एवमपरोक्षज्ञानवद्भ्योऽपि मनोनाशवासनाक्षयाभावादजीवन्मुक्तेभ्यो मनोनाशवासनाक्षयवत्त्वेन जीवन्मुक्तो योग्यधिको मतः मन संमतः। यस्मादेवं तस्मादधिकाधिकप्रयत्नबलात्त्वं योगभ्रष्ट इदानीं तत्त्वज्ञानमनोनाशवासनाक्षयैर्युगपत्संपादितैर्योगी जीवन्मुक्तो यः स योगी परमो मत इति प्रागुक्तः स तादृशो भव साधनपरिपाकात्। हे अर्जुनेति शुद्धेति संबोधनार्थः।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।6.46।।यस्मादेवं तस्मात् तपस्विभ्य इति कायक्लेशतपस्विभ्यः साङ्ख्यज्ञानिभ्यश्च केवलकर्मकारिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्धतोरर्जुन त्वं योगी भव मनोरोधयोगवान्भव। तत्रापि न तुभ्य योगोऽयं बाह्य उच्यते किन्त्वनिषिद्धः श्रीवासुदेवे स्वचित्तनिरोधनादिति भक्तिरूप उच्यत इत्याह।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।6.46।। व्याख्या--'तपस्विभ्योऽधिको योगी'--ऋद्धि-सिद्धि आदिको पानेके लिये जो भूख-प्यास, सरदी-गरमी, आदिका कष्ट सहते हैं, वे तपस्वी हैं। इन सकाम तपस्वियोंसे पारमार्थिक रुचिवाला, ध्येयवाला योगी श्रेष्ठ है।

'ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः'--शास्त्रोंको जाननेवाले पढ़े-लिखे विद्वानोंको यहाँ 'ज्ञानी' समझना चाहिये। जो शास्त्रोंका विवेचन करते हैं, ज्ञानयोग क्या है? कर्मयोग क्या है? भक्तयोग क्या है? लययोग क्या है? आदि-आदि बहुत-सी बातें जानते हैं और कहते भी हैं; परन्तु जिनका उद्देश्य सांसारिक भोग और ऐश्वर्य है, ऐसे सकाम शब्दज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ माना गया है।

'कर्मिभ्यश्चाधिको योगी'--इस लोकमें राज्य मिल जाय, धन-सम्पत्ति, सुख-आराम, भोग आदि मिल जाय और मरनेके बाद परलोकमें ऊँचे-ऊँचे लोकोंकी प्राप्ति हो जाय और उन लोकोंका सुख मिल जाय--ऐसा उद्देश्य रखकर जो कर्म करते हैं अर्थात् सकामभावसे यज्ञ, दान, तीर्थ आदि शास्त्रीय कर्मोंको करते हैं, उन कर्मियोंसे योगी श्रेष्ठ है।

जो संसारसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो गया है; वही वास्तवमें योगी है। ऐसा योगी बड़े-बड़े तपस्वियों; शास्त्रज्ञ पण्डितों और कर्मकाण्डियोंसे भी ऊँचा है, श्रेष्ठ है। कारण कि तपस्वियों आदिका उद्देश्य संसार है तथा सकाम-भाव है और योगीका उद्देश्य परमात्मा है तथा निष्काम-भाव है।तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी--इन तीनोंकी क्रियाएँ अलग-अलग हैं अर्थात् तपस्वियोंमें सहिष्णुताकी, ज्ञानियोंमें शास्त्रीय ज्ञानकी अर्थात् बुद्धिके ज्ञानकी और कर्मियोंमें शास्त्रीय क्रियाकी प्रधानता है। इन तीनोंमें सकामभाव होनेसे ये तीनों योगी नहीं हैं, प्रत्युत भोगी हैं। अगर ये तीनों निष्कामभाववाले योगी होते, तो भगवान् इनके साथ योगीकी तुलना नहीं करते; इन तीनोंसे योगीको श्रेष्ठ नहीं बताते।

'तस्माद्योगी भवार्जुन'--अभीतक भगवान्ने जिसकी महिमा गायी है; उसके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हैं कि 'हे अर्जुन !तू योगी हो जा, राग-द्वेषसे रहित हो जा अर्थात् सब काम करते हुए भी जलमें कमलके पत्तेके तरह निर्लिप्त रह।' यही बात भगवान्ने आगे आठवें अध्यायमें भी ही है--
'योगयुक्तो भवार्जुन'(8। 27)।

पाँचवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिये एक निश्चित बात कहिये। इसपर भगवान्ने सांख्ययोग, कर्मयोग, ध्यानयोगकी बातें बतायीं, पर इस श्लोकसे पहले कहीं भी अर्जुनको यह आज्ञा नहीं दी कि तुम ऐसे बन जाओ, इस मार्गमें लग जाओ। अब यहाँ भगवान् अर्जुनकी प्रार्थनाके उत्तरमें आज्ञा देते हैं कि 'तुम योगी हो जाओ'; क्योंकि यही तुम्हारे लिये एक निश्चित श्रेय है।


 सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने योगीकी प्रशंसा करके अर्जुनको योगी होनेकी आज्ञा दी। परन्तु कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, भक्तियोगी आदिमेंसे कौन-सा योगी होना चाहिये--इसके लिये 'अर्जुनको स्पष्टरूपसे आज्ञा नहीं दी। इसलिये अब भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुन भक्तियोगी बने'--इस उद्देश्यसे भक्तियोगीकी विशेष महिमा कहते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।6.46।।योगस्यावश्यसंपादनार्थं सर्वाधिक्यं साधयति। तपस्विभ्यः शरीरादिकार्श्यकारिव्रतादिपरेभ्योऽप्यधिको योगी पूर्वोक्तः ज्ञानिभ्यः शास्त्रीयपरोक्षज्ञानवद्य्भऽप्यधिको मतोऽभिमतः। कर्मिभ्योऽग्निहोत्रादिकर्मवद्य्भोऽप्यधिक उत्कृष्टः। तस्माद्योगी भव। स्वधर्माचरणेन शुद्धचितस्य तव योगिभावः सुगम इति सूचयन्नाह हे अर्जुनेति। योगेन शुद्धब्रह्मसाक्षात्कारं लब्धैव त्वमन्वर्थसंज्ञो भविष्यसीति सूचनार्थ वा संबोधनम्। योगी अत्र ध्यानयोगी विवक्षितः पूर्वोत्तग्रन्थानुरोधात्। ध्यानयोगस्यैवोपसंहार्यत्वाच्च। एतेन ज्ञानिभ्योऽपि परोक्षज्ञानवद्य्भोऽप्यपरोक्षज्ञानवानधिको मतः। योगी एवमपोक्षज्ञानवद्य्भोऽपि मनोनाशवासनाक्षयाभावादजीवन्मुक्तेभ्यो मनोवासनाक्षयवत्त्वेन जीवन्मुक्तो योग्यधिको मत इत्यादि प्रत्युक्तम्। योगी कर्मयोगीति व्याख्यानमपि प्रकरणविरोधादुपेक्ष्यम्।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।6.46।।एवं योगिनं स्तौति तपस्विभ्य इति। तपस्विनोऽत्र कृच्छ्रचान्द्रायणमासोपवासादिकर्तारः। ज्ञानिनश्च शास्त्रीयपाण्डित्यवन्तः। कर्मिणोऽग्निहोत्राद्यनुष्ठातारः। तेभ्यः सर्वेभ्यो योगी यतोऽधिको मतस्तस्माद्योगी भवार्जुन।