श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।7.2।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।7.2।। तेरे लिये मैं विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिसको जाननेके बाद फिर यहाँ कुछ भी जानना बाकी नहीं रहेगा।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।7.2।।ज्ञास्यसीत्युक्ते परोक्षमेव तज्ज्ञानं स्यादिति शङ्कां व्यावर्तयन्स्तौति श्रोतुराभिमुख्याय इदं मद्विषयं स्वतोऽपरोक्षज्ञानम् असंभावनादिप्रतिबन्धेन फलमजनयत्परोक्षमित्युपचर्यते। असंभावानादिनिरासे तु विचारपरिपाकान्ते तेनैव प्रमाणेन जनितं ज्ञानं प्रतिबन्धाभावात्फलं जनयदपरोक्षमित्युच्यते। विचारपरिपाकनिष्पन्नत्वाच्च तदेव विज्ञानं तेन विज्ञानेन सहितमिदमपरोक्षमेव ज्ञानं शास्त्रजन्यं ते तुभ्यमहं परमाप्तो वक्ष्याम्यशेषतः साधनफलादिसहितत्वेन निरवशेषं कथयिष्यामि। श्रौतीमेकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञामनुसरन्नाह यज्ज्ञानं नित्यचैतन्यरूपं ज्ञात्वा वेदान्तजन्यमनोवृत्तिविषयीकृत्येह व्यवहारभूमौ भूयः पुनरपि अन्यत्किंचिदपि ज्ञातव्यं नावशिष्यते। सर्वाधिष्ठानसन्मात्रज्ञानेन कल्पितानां सर्वेषां बाधे सन्मात्रपरिशेषात्तन्मात्रज्ञानेनैव त्वं कृतार्थो भविष्यसीत्यभिप्रायः।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।7.2।।वक्ष्यमाणं स्तौति ज्ञानमिति। माहात्म्यविषयकं ज्ञानं विज्ञानं विविधतया चिदचिद्रूपतया च तत्तद्विभूतिधर्मरूपतयाऽवान्तरविशेषैश्च यथार्थज्ञानं तेन सहितं अशेषतो वक्ष्यामि। यद्याथात्म्यं ज्ञात्वा भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमविशष्टं न भवति।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।7.2।। व्याख्या--'ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः'--भगवान् कहते हैं कि भैया अर्जुन! अब मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा (टिप्पणी प0 392.1), तुम्हें कहूँगा और मैं खुद कहूँगा तथा सम्पूर्णतासे कहूँगा। ऐसे तो हरेक आदमी हरेक गुरुसे मेरे स्वरूपके बारेमें सुनता है और उससे लाभ भी होता है; परन्तु तुम्हें मैं स्वयं कह रहा हूँ। स्वयं कौन? जो समग्र परमात्मा है, वह मैं स्वयं! मैं स्वयं मेरे स्वरूपका जैसा वर्णन कर सकता हूँ, वैसा दूसरे नहीं कर सकते; क्योंकि वे तो सुनकर और अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करके ही कहते हैं (टिप्पणी प0 392.2)। उनकी बुद्धि समष्टि बुद्धिका एक छोटा-सा अंश है, वह कितना जान सकती है !वे तो पहले अनजान होकर फिर जानकार बनते हैं, पर मैं सदा अलुप्तज्ञान हूँ। मेरेमें अनजानपना न है, न कभी था, न होगा और न होना सम्भव ही है। इसलिये मैं तेरे लिये उस तत्त्वका वर्णन करूँगा, जिसको जाननेके बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा।

दसवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें अर्जुन कहते हैं कि आप अपनी सब-की-सब विभूतियोंको कहनेमें समर्थ हैं--'वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः' तो उसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि मेरे विस्तारका अन्त नहीं है इसलिये प्रधानतासे कहूँगा--'प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे'(10। 19)। फिर अन्तमें कहते हैं कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है--'नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप' (10। 40)। यहाँ (7। 2 में) भगवान् कहते हैं कि मैं विज्ञानसहित ज्ञानको सम्पूर्णतासे कहूँगा, शेष नहीं रखूँगा--'अशेषतः।' इसका तात्पर्य यह समझना चाहिये कि मैं तत्त्वसे कहूँगा। तत्त्वसे कहनेके बाद कहना, जानना कुछ भी बाकी नहीं रहेगा।दसवें अध्यायमें विभूति और योगकी बात आयी कि भगवान्की विभूतियोंका और योगका अन्त नहीं है। अभिप्राय है कि विभूतियोंका अर्थात् भगवान्की जो अलग-अलग शक्तियाँ हैं, उनका और भगवान्के योगका अर्थात् सामर्थ्य, ऐश्वर्यका अन्त नहीं आता। रामचरितमानसमें कहा है--

'निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।'
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ।।

(उत्तर0 73 ख)तात्पर्य है कि सगुण भगवान्का जो प्रभाव है, ऐश्वर्य है, उसका अन्त नहीं आता। जब अन्त ही नहीं आता, तब उसको जानना मनुष्यकी बुद्धिके बाहरकी बात है। परन्तु जो वास्तविक तत्त्व है, उसको मनुष्य सुगमतासे समझ सकता है। जैसे, सोनेके गहने कितने होते हैं? इसको मनुष्य नहीं जान सकता; क्योंकि गहनोंका अन्त नहीं है, परन्तु उन सब गहनोंमें तत्त्वसे एक सोना ही है, इसको तो मनुष्य जान ही सकता है। ऐसे ही परमात्माकी सम्पूर्ण विभूतियों और सामर्थ्यको कोई जान नहीं सकता; परन्तु उन सबमें तत्त्वसे एक परमात्मा ही हैं, इसको तो मनुष्य तत्त्वसे जान ही सकता है। परमात्माको तत्त्वसे जाननेपर उसकी समझ तत्त्वसे परिपूर्ण हो जाती है, बाकी नहीं रहती। जैसे, कोई कहे कि मैंने जल पी लिया' तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि अब संसारमें जल बाकी नहीं रहा। अतः जल पीनेसे जलका अन्त नहीं हुआ है, प्रत्युत हमारी प्यासका अन्त हुआ है। इसी तरहसे परमात्म-तत्त्वको तत्त्वसे समझ लेनेपर परमात्मतत्त्वके ज्ञानका अन्त नहीं हुआ है ,प्रत्युत हमारी अपनी जो समझ है, जिज्ञासा है, वह पूर्ण हुई है, उसका अन्त हुआ है, उसमें केवल परमात्मतत्त्व ही रह गया है।दसवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मेरे प्रकट होनेको देवता और महर्षि नहीं जानते, और तीसरे श्लोकमें कहा है कि मुझे अज और अनादि जानता है, वह मनुष्योंमें असम्मूढ़ है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। तो जिसे देवता और महर्षि नहीं जानते, उसे मनुष्य जान ले--यह कैसे हो सकता है? भगवान् अज और अनादि हैं, ऐसा दृढ़तासे मानना ही जानना है। मनुष्य भगवान्को अज और अनादि मान ही सकता है। परन्तु जैसे बालक अपनी माँके विवाहकी बरात नहीं देख सकता, ऐसे ही सब प्राणियोंके आदि तथा स्वयं अनादि भगवान्को देवता, ऋषि, महर्षि, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त आदि नहीं जान सकते। इसी प्रकार भगवान्के अवतार लेनेको, लीलाको, ऐश्वर्यको कोई जान नहीं सकता; क्योंकि वे अपार हैं, अगाध हैं, अनन्त हैं। परन्तु उनको तत्त्वसे तो जान ही सकते हैं।परमात्मतत्त्वको जाननेके लिये 'ज्ञानयोग'में जानकारी-(जानने-) की प्रधानता रहती है और 'भक्तियोग' में मान्यता-(मानने-) की प्रधानता रहती है। जो वास्तविक मान्यता होती है, वह बड़ी दृढ़ होती है। उसको कोई इधर-उधर नहीं कर सकता अर्थात् माननेवाला जबतक अपनी मान्यताको न छोड़े, तबतक उसकी मान्यताको कोई छुड़ा नहीं सकता। जैसे, मनुष्यने संसार और संसारके पदार्थोंको अपने लिये उपयोगी मान रखा है तो इस मान्यताको स्वयं छोड़े बिना दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। परन्तु स्वयं इस बातको जान ले कि ये सब पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तो इस मान्यताको मनुष्य छोड़ सकता है; क्योंकि यह मान्यता असत्य है, झूठी है। जब असत्य मान्यताको भी दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता, तब जो वास्तविक परमात्मा सबके मूलमें है, उसको कोई मान ले तो यह मान्यता कैसे छूट सकती है? क्योंकि यह मान्यता सत्य है। यह यथार्थ मान्यता ज्ञानसे कम नहीं होती, प्रत्युत ज्ञानके समान ही दृढ़ होती है।

भक्तिमार्गमें मानना मुख्य होता है। जैसे, दसवें अध्यायके पहले श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि 'हे महाबाहो अर्जुन! मैं तेरे हितके लिये परम (सर्वश्रेष्ठ) वचन कहता हूँ, तुम सुनो अर्थात् तुम इस वचनको मान लो।' वहाँ भक्तिका प्रकरण है; अतः वहाँ माननेकी बात कहते हैं। ज्ञानमार्गमें जानना मुख्य होता है। जैसे, चौदहवें अध्यायके पहले श्लोकमें भगवान्ने कहा कि 'मैं फिर ज्ञानोंमें उत्तम और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान कहता हूँ, जिसको जाननेसे सब-के-सब मुनि परम सिद्धिको प्राप्त हुए हैं। 'वहाँ ज्ञानका प्रकरण है; अतः वहाँ जाननेकी बात कहते हैं। भक्तिमार्गमें मनुष्य मान करके जान लेता है और ज्ञानमार्गमें जान करके मान लेता है। अतः पूर्ण होनेपर दोनोंकी एकता हो जाती है।

ज्ञान और विज्ञानसम्बन्धी विशेष बात

संसार भगवान्से ही पैदा होता है और उनमें ही लीन होता है, इसलिये भगवान् इस संसारके महाकारण हैं--ऐसा मानना 'ज्ञान' है। भगवान्के सिवाय और कोई चीज है ही नहीं, सब कुछ भगवान् ही हैं, स्वयं भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं--ऐसा अनुभव हो जाना 'विज्ञान' है।

अपरा और परा प्रकृति मेरी है; इनके संयोगसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और मैं इस सम्पूर्ण जगत्का महाकारण हूँ (7। 4 6)--ऐसा कहकर भगवान्ने 'ज्ञान' बताया। मेरे सिवाय अन्य कोई है ही नहीं, सूतके धागेमें उसी सूतकी बनी हुई मणियोंकी तरह सब कुछ मेरेमें ही ओतप्रोत है (7। 7)--ऐसा कहकर भगवान्ने 'विज्ञान' बताया।

जलमें रस, चन्द्र-सूर्यमें प्रभा मैं हूँ इत्यादि; सम्पूर्ण भूतोंका सनातन बीज मैं हूँ; सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं (7। 8 12)--ऐसा कहकर 'ज्ञान 'बताया। ये मेरेमें और मैं इनमें नहीं हूँ, अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ; क्योंकि इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है ( 7। 12)--ऐसा कहकर 'विज्ञान' बताया।

जो मेरे सिवाय गुणोंकी अलग सत्ता मान लेता है, वह मोहित हो जाता है। परन्तु जो गुणोंसे मोहित न होकर अर्थात् ये गुण भगवान्से ही होते हैं और भगवान्में ही लीन होते हैं--ऐसा मानकर मेरे शरण होता है, वह गुणमयी मायाको तर जाता है। ऐसे मेरे शरण होनेवाले चार प्रकारके भक्त होते हैं--अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)। ये सभी उदार हैं; पर ज्ञानी अर्थात् प्रेमी मेरेको अत्यन्त प्रिय है और मेरी आत्मा ही है (7। 13 18) ऐसा कहकर 'ज्ञान' बताया। जिसको 'सब कुछ वासुदेव ही है ऐसा अनुभव हो जाता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है (7। 19)--ऐसा कहकर 'विज्ञान' बताया।

मेरेको न मानकर जो कामनाओंके कारण देवताओंके शरण हो जाते हैं, उनको अन्तवाला फल (जन्म-मरण) मिलता है और जो मेरे शरण हो जाते हैं, उनको मैं मिल जाता हूँ। जो मुझे अज-अविनाशी नहीं जानते, उनके सामने मैं प्रकट नहीं होता। मैं भूत, भविष्य और वर्तमान--तीनों कालोंको और उनमें रहनेवाले सम्पूर्ण प्राणियोंको जानता हूँ पर मेरेको कोई नहीं जानता। जो द्वन्द्वमोहसे मोहित हो जाते हैं, वे बार-बार जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं। जो एक निश्चय करके मेरे भजनमें लग जाते हैं, उनके पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वे निर्द्वन्द्व हो जाते हैं (7। 20 28)--ऐसा कहकर 'ज्ञान' बताया। जो मेरा आश्रय लेते हैं, वे ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञको जान जाते हैं अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ, ऐसा उनको अनुभव हो जाता है (7। 29 30)--ऐसा कहकर 'विज्ञान' बताया।'यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते' विज्ञानसहित ज्ञानको जाननेके बाद जानना बाकी नहीं रहता। तात्पर्य है कि मेरे सिवाय संसारका मूल दूसरा कोई नहीं है केवल मैं ही हूँ --'मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय' (गीता 7। 7) 'और तत्त्वसे सब कुछ वासुदेव ही है' 'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19), और कोई है ही नहीं--ऐसा जान लेगा तो जानना बाकी कैसे रहेगा ? क्योंकि इसके सिवाय दूसरा कुछ जाननेयोग्य है ही नहीं। यदि एक परमात्माको न जानकर संसारकी बहुत-सी विद्याओंको जान भी लिया तो वास्तवमें कुछ नहीं जाना है, कोरा परिश्रम ही किया है। 'जानना कुछ बाकी नहीं रहता'--इसका तात्पर्य है कि इन्द्रियोंसे, मनसे, बुद्धिसे जो परमात्माको जानता है वह वास्तवमें पूर्ण जानना नहीं है। कारण कि ये इन्द्रियाँ मन और बुद्धि प्राकृत हैं, इसलिये ये प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको नहीं जान सकते। स्वयं जब परमात्माके शरण हो जाता है तब स्वयं ही परमात्माको जानता है। इसलिये परमात्माको स्वयंसे ही जाना जा सकता है, मन-बुद्धि आदिसे नहीं।

 सम्बन्ध--भगवान्ने दूसरे श्लोकमें यह बताया कि मैं विज्ञानसहित ज्ञानको सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिससे कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। जब जानना बाकी रहता ही नहीं, तो फिर सब मनुष्य उस तत्त्वको क्यों नहीं जान लेते? इसके उत्तरमें आगेका श्लोक कहते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।7.2।।ज्ञास्यसीत्युक्तं तत्र ज्ञां स्तौति ज्ञानमिति। अत्र भाष्ये तच्च मद्विषयं ज्ञानं ते तुभ्यमहं सविज्ञानं विज्ञानसहितं स्वानुभवेन संयुक्तमिदं वक्ष्यामि कथयिष्याम्यशेषतः कात्स्त्रर्येन। तज्ज्ञानं विवक्षितं स्तोति श्रोतुरभिमुखीकरणाय। यज्ज्ञात्वा यज्ज्ञानं ज्ञात्वा नेह भूयः पुनर्ज्ञातव्यं पुरुषार्थसाधनमवशिष्यते नावशेषो भवतीति मत्तत्त्वशो यः स सर्वज्ञो भवतीत्यर्थ इति। अस्मिन्भाष्ये ज्ञास्यसीत्युक्त्या परोक्षज्ञानशङ्क्यां तन्निवृत्त्यर्थं तदुक्तिप्रकारमेव विवृणोति तच्चेति। इदमपरोक्षज्ञानं चैतन्यम्। तस्य सविज्ञानस्य प्रतिलम्मे किं स्यादित्याशङ्क्याह यज्ज्ञातक्वेति। इदमा चैतन्यस्य परोक्षत्वं व्यावर्त्यते तदेव सविज्ञानमिति विशेषणेन स्फुटयत इति तद्दीकाकृतः। तदेवाह ज्ञाममति। ज्ञानं शुद्धप्रधानंशुद्धप्रज्ञानघनं ब्रह्मसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मविज्ञानमानन्दं ब्रह्म इति श्रुतं ते तुभ्यमहं वक्ष्यामि। अशेषतः साधनकलापसहितं किं वचनमात्रजेन परोक्षज्ञानेन शब्दस्य स्वविषये परोक्षज्ञानजनकत्वानियमादित्याशङ्क्याह। सविज्ञानमनुभवसहितं दशमस्त्वमसीत्यादौ शब्दादप्यपरोक्षज्ञानोत्पत्तिदर्शनादित्यन्ये। वस्तुस्तु तच्च मद्विषयं ज्ञानमिति भाष्याद्भाष्यकृतामयमर्थो नाभिप्रेतोः। सविज्ञानमिति मूलान्मूलानुगुणोऽपि न भवति। त्मान्मूलतद्भाष्यानुरोधेन ज्ञानं शास्त्रजन्यं विज्ञानमनुभव इति व्याख्येयम्। यज्ज्ञोत्वेत्यस्य तुयज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव इति श्लोकस्थभाष्यानुसारेण मद्विषयं ज्ञानं शास्त्रजन्यं सविज्ञानं लब्ध्वेत्यर्थं इत्यविरोधः। मद्विषयस्य ज्ञानस्य सकलाधिष्ठानविषयत्वात्। अन्यज्ज्ञातव्यं नावशिष्यतेयेनाश्रुतं श्रुतं भवति इत्यादिश्रुतिरिति भावः। यत्त्विदं मद्विषयं विज्ञानेन सहितमपरोक्षमेव ज्ञानं शास्त्रजन्यं ते तुम्यमहं वक्ष्यामि जज्ज्ञानं नित्यचैतन्यरुपं ज्ञात्वा वेदान्तजन्यमनोवृत्तिविषयीकृत्येति। तत्र यजज्ञानमित्याद्युपेक्ष्यं यच्छब्दस्य प्रस्तुतपरामर्शकत्वेन सविज्ञानस्य ज्ञानस्य यदा परामृष्टस्य चैतन्यरुपार्थकत्वायोगात्।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।7.2।।एतदेवाह ज्ञानमिति। ज्ञानं शुद्धप्रज्ञानघनं ब्रह्मसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मविज्ञानमानन्दं ब्रह्म इति श्रुतेः। ते तुभ्यमहं वक्ष्यामि। अशेषतः साधनकलापसहितम्। किं वचनमात्रजेन परोक्षज्ञानेन शब्दस्य स्वविषये परोक्षज्ञानजनकत्वनियमादित्याशङ्क्याह सविज्ञानमनुभवसहितम्। दशमस्त्वमसीत्यादौ शब्दादप्यपरोक्षज्ञानोत्पत्तिदर्शनात्कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातम् इत्येकविज्ञानात्सर्वविज्ञानप्रतिज्ञां श्रौतीमेव वर्णयति यज्ज्ञात्वेति। जगत्कारणाधिष्ठानस्य ज्ञानरूपस्य ब्रह्मणो ज्ञाने संशयोच्छेदात्सर्वस्यात्ममात्रत्वेन ज्ञातव्यानवशेषो युक्त इत्यर्थः।