श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।7.27।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।7.27।। हे भरतवंशमें उत्पन्न परंतप ! इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व-मोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें मूढ़ताको अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त हो रहे हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।7.27।।योगमायां भगवत्तत्त्वविज्ञानप्रतिबन्धे हेतुमुक्त्वा देहेन्द्रियसंघाताभिमानातिशयपूर्वकं भोगाभिनिवेशं हेत्वन्तरमाह इच्छाद्वेषाभ्यामनुकूलप्रतिकूलविषयाभ्यां समुत्थितेन शीतोष्णसुखदुःखादिद्वन्द्वनिमित्तेन मोहेन अहं सुखी अहं दुःखीत्यादिविपर्ययेण सर्वाण्यपि भूतानि संमोहं विवेकायोग्यत्वं सर्गे स्थूलदेहोत्पत्तौ सत्यां यान्ति। हे भारत हे परंतपेति संबोधनद्वस्य कुलमहिम्ना स्वरूपशक्त्या च त्वां द्वन्द्वमोहाख्यः शत्रुर्नाभिभवितुमलमिति भावः। नहीच्छाद्वेषररितं किंचिदपि भूतमस्ति नच ताभ्यामाविष्टस्य बहिर्विषयमपि ज्ञानं संभवति पुनरात्मविषयम्। अतो रागद्वेषव्याकुलान्तःकरणत्वात्सर्वाण्यपिभूतानि मां परमेश्वरमात्मभूतं न जानन्ति अतो न भजन्ते भजनीयमपि।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।7.27।।किञ्चायं मोहो नेदानीन्तनः किन्तु सृष्ट्यर्थः प्राक्तन एवेत्याह इच्छेति। इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे व्यवस्थितौ ईशकृतौ (प्राकृतौ) रागद्वेषौ तयोः पापहेतुभूतयोः समुत्पत्तिर्येन तथाभूतेन द्वन्द्वनिमित्तेन मोहेन हेतुना सर्वभूतानि क्षरपदवाच्यानि संसृतानि सर्गे एव सम्मोहं जन्ममरणपर्यावर्त्ते कारणभूतं भगवत्स्वरूपाज्ञानभयं प्राप्नुवन्ति गुणप्रवाहमध्ये पतिता भवन्तीत्यर्थः।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।7.27।। व्याख्या--'इच्छाद्वेषसमुत्थेन ৷৷. सर्गे यान्ति परंतप'--इच्छा और द्वेषसे द्वन्द्वमोह पैदा होता है, जिससे मोहित होकर प्राणी भगवान्से बिलकुल विमुख हो जाते हैं और विमुख होनेसे बार-बार संसारमें जन्म लेते हैं।मनुष्यको संसारसे विमुख होकर केवल भगवान्में लगनेकी आवश्यकता है। भगवान्में न लगनेमें बड़ी बाधा क्या है? यह मनुष्यशरीर विवेक-प्रधान है; अतः मनुष्यकी प्रवृत्ति और निवृत्ति पशु-पक्षियोंकी तरह न होकर अपने विवेकके अनुसार होनी चाहिये। परन्तु मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व न देकर राग और द्वेषको लेकर ही प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है, जिससे उसका पतन होता है।मनुष्यकी दो मनोवृत्तियाँ हैं--एक तरफ लगाना और एक तरफसे हटाना। मनुष्यको परमात्मामें तो अपनी वृत्ति लगानी है और संसारसे अपनी वृत्ति हटानी है अर्थात् परमात्मासे तो प्रेम करना है और संसारसे वैराग्य करना है। परन्तु इन दोनों वृत्तियोंको जब मनुष्य केवल संसारमें ही लगा देता है तब वही प्रेम और वैराग्य क्रमशः राग और द्वेषका रूप धारण कर लेते हैं, जिससे मनुष्य संसारमें उलझ जाता है और भगवान्से सर्वथा विमुख हो जाता है। फिर भगवान्की तरफ चलनेका अवसर ही नहीं मिलता। कभी-कभी वह सत्संगकी बातें भी सुनता है, शास्त्र भी पढ़ता है, अच्छी बातोंपर विचार भी करता है, मनमें अच्छी बातें पैदा हो जाती हैं तो उनको ठीक भी समझता है। फिर भी उसके मनमें रागके कारण यह बात गहरी बैठी रहती है कि मुझे तो सांसारिक अनुकूलताको प्राप्त करना है और प्रतिकूलताको हटाना है, यह मेरा खास काम है; क्योंकि इसके बिना मेरा जीवननिर्वाह नहीं होगा। इस प्रकार वह हृदयमें दृढ़तासे रागद्वेषको पकड़े रखता है जिससे सुनने पढ़ने और विचार करनेपर भी उसकी वृत्ति रागद्वेषरूप द्वन्द्वको नहीं छोड़ती। इसीसे वह परमात्माकी तरफ चल नहीं सकता।द्वन्द्वोंमें भी अगर उसका राग मुख्यरूपसे एक ही विषयमें हो जाय तो भी ठीक है। जैसे भक्त बिल्वमंगलकी वृत्ति चिन्तामणि नामक वेश्यामें लग गयी तो उनकी वृत्ति संसारसे तो हट ही गयी। जब वेश्याने यह ताड़ना की ऐसे हाड़मांसके शरीरमें तू आकृष्ट हो गया अगर भगवान्में इतना आकृष्ट हो जाता तो तू निहाल हो जाता तब उनकी वृत्ति वेश्यासे हटकर भगवान्में लग गयी और उनका उद्धार हो गया। इसी तरहसे गोपियोंका भगवान्में राग हो गया तो वह राग भी कल्याण करनेवाला हो गया। शिशुपालका भगवान्के साथ वैर (द्वेष) रहा तो वैरपूर्वक भगवान्का चिन्तन करनेसे भी उसका कल्याण हो गया। कंसको भगवान्से भय हुआ तो भयवृत्तिसे भगवान्का चिन्तन करनेसे उसका भी कल्याण हो गया। हाँ यह बात जरूर है कि वैर और भयसे भगवान्का चिन्तन करनसे शिशुपाल और कंस भक्तिके आनन्दको नहीं ले सके। तात्पर्य यह है कि किसी भी तरहसे भगवान्की तरफ आकर्षण हो जाय तो मनुष्यका उद्धार हो जाता है। परन्तु संसारमें रागद्वेष कामक्रोध ठीकबेठीक अनुकूलप्रतिकूल आदि द्वन्द्व रहनेसे मूढ़ता दृढ़ होती है और मनुष्यका पतन हो जाता है।दूसरी रीतिसे यों समझें कि संसारका सम्बन्ध द्वन्द्वसे दृढ़ होता है। जब कामनाको लेकर मनोवृत्तिका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है तब सांसारिक अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर रागद्वेष हो जाते हैं अर्थात् एक ही पदार्थ कभी ठीक लगता है कभी बेठीक लगता है कभी उसमें राग होता है कभी द्वेष होता है जिनसे संसारका सम्बन्ध दृढ़ हो जाता है। इसलिये भगवान्ने दूसरे अध्यायमें 'निर्द्वन्द्वः'(2। 45) पदसे द्वन्द्वरहित होनेकी आज्ञा दी है। निर्द्वन्द्व पुरुष सुखपूर्वक मुक्त होता है--'निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते' (5। 3)। सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंसे रहित होकर भक्तजन अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं--'द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' (15। 5)। भगवान्ने द्वन्द्वको मनुष्यका खास शत्रु बताया है (3। 34)। जो द्वन्द्वमोहसे रहित होते हैं वे दृढ़व्रती होकर भगवान्का भजन करते हैं (7। 28) इत्यादि रूपसे गीतामें द्वन्द्वरहित होनेकी बात बहुत बार आयी है।जन्ममरणमें जानेका कारण क्या है शास्त्रोंकी दृष्टिसे तो जन्ममरणका कारण अज्ञान है परन्तु सन्तवाणीको देखा जाय तो जन्ममरणका खास कारण रागके कारण प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग है। फलेच्छापूर्वक शास्त्रविहित कर्म करनेसे और प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग करनेसे अर्थात् भगवदाज्ञाविरुद्ध कर्म करनेसे सत्असत् योनियोंकी प्राप्ति होती है अर्थात् देवताओँकी योनि चौरासी लाख योनि और नरक प्राप्त होते हैं।प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करनेसे सम्मोह अर्थात् जन्ममरण मिट जाता है। उसका सदुपयोग कैसे करें हमारेको जो अवस्था परिस्थिति मिली है उसका दुरुपयोग न करनेका निर्णय किया जाय कि हम दुरुपयोग नहीं करेंगे अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम नहीं करेंगे। इस प्रकार रागरहित होकर दुरुपयोग न करनेका निर्णय होनेपर सदुपयोग अपनेआप होने लगेगा अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुकूल काम होने लगेगा। जब सदुपयोग होने लगेगा तो उसका हमें अभिमान नहीं होगा। कारण कि हमने तो दुरुपयोग न करनेका विचार किया है सदुपयोग करनेका विचार तो हमने किया ही नहीं फिर करनेका अभिमान कैसे इससे तो कर्तृत्वअभिमानका त्याग हो जायगा। जब हमने सदुपयोग किया ही नहीं तो उसका फल भी हम कैसे चाहेंगे क्योंकि सदुपयोग तो हुआ है किया नहीं। अतः इससे फलेच्छाका त्याग हो जायगा। कर्तृत्वअभिमान और फलेच्छाका होनेसे अर्थात् बन्धनका अभाव होनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध है।प्रायः साधकोंमें यह बात गहराईसे बैठी हुई है कि साधनभजन जपध्यान आदि करनेका विभाग अलग है और सांसारिक कामधंधा करनेका विभाग अलग है। इन दो विभागोंके कारण साधक भजनध्यान आदिको तो बढ़ावा देते हैं पर सांसारिक कामधंधा करते हुए रागद्वेष कामक्रोध आदिकी तरफ ध्यान नहीं देते प्रत्युत ऐसी दृढ़ भावना बना लेते हैं कि कामधंधा करते हुए तो रागद्वेष होते ही हैं ये मिटनेवाले थोड़े ही हैं। इस भावनासे बड़ा भारी अनर्थ यह होता है कि साधकके रागद्वेष बने रहते हैं जिससे उसके साधनमें जल्दी उन्नति नहीं होती। वास्तवमें साधक चाहे पारमार्थिक कार्य करे चाहे सांसारिक कार्य करे उसके अन्तःकरणमें रागद्वेष नहीं रहने चाहिये।पारमार्थिक और सांसारिक क्रियाओंमें भेद होनेपर भी साधकके भावमें भेद नहीं होना चाहिये अर्थात् पारमार्थिक और सांसारिक दोनों क्रियाएँ करते समय साधकका भाव एक ही रहना चाहिये कि मैं साधक हूँ और मुझे भगवत्प्राप्ति करनी है। इस प्रकार क्रियाभेद तो रहेगा ही और रहना भी चाहिये पर भावभेद नहीं रहेगा। भावभेद न रहनेसे अर्थात् एक भगवत्प्राप्तिका ही भाव (उद्देश्य) रहनेसे पारमार्थिक और सांसारिक दोनों ही क्रियाएँ साधन बन जायँगी। 

सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने द्वन्द्वमोहसे मोहित होनेवालोंकी बात बतायी अब आगेके श्लोकमें द्वन्द्वमोहसे रहित होनेवालोंकी बात कहते हैं।
 

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।7.27।।भगवत्तत्वापरिज्ञाने मूलज्ञानं निमित्तमुक्त्वा तत्र प्रतिबन्धकान्तरमाह। इच्छाद्वेषाभ्यां रागद्वेषाभ्यासमनुकूलप्रतिकूलविषयाभ्यामुत्थितेन शीतोष्णसुखदुःखनिमित्तेन मोहेन चित्त्व्याकुलतापादकेन सर्वाणि भूतानि सर्गे उत्पत्ति काले प्राप्ते संमोहमतिमूढतां यान्ति गच्छन्ति। इत्छाद्वेषवशीकृतचित्तस्य बाह्यपदार्थोष्वपि यथा भूतार्थविषयं ज्ञानं नोत्पद्यते ताभ्यामाविष्टुबद्धेः संमूढस्य प्रत्गात्मनि बहुप्रतिबन्धे सति तन्नेत्पद्यत इति किमु वक्तव्यमिति भारत परंतपेति संबोधनद्वेयेनोत्तमवंशोद्भवत्वात् स्वतः शत्रुतापनत्वेनोत्कृष्टशक्तिमत्वाच्च उक्तप्रतिबन्धेन संमोहं गन्तुमयोग्योऽसीत सूचयति। यत्तु केन पुनर्निमित्तेनातीतादीनिं भूतानि न जानन्तीत्याशङ्क्याह इच्छेति। इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन शोभनाशोभनसत्यासत्यनित्यानित्यात्मानात्मसु विपर्यय स्तेन सर्वभूतानि सर्गे सृष्टिविषये संमोहमविवेकं यान्ति। अयं भावः यो हि सृष्टे रुपमानन्दस्वरुपं च तत्त्वतो जानाति स ब्रह्मवित् सर्वज्ञत्वादतीतादीञ्जानाति। सृष्टौ च सर्वेषां मोहोऽस्ति अशोभने स्त्र्यादौ शोभनाध्यासादसत्ये प्रप़ञ्चे सत्यत्वाध्यासात् सत्ये चात्मनोऽसङ्गत्वेऽसत्यत्वाध्यासात् अनित्ये स्वर्गादौ नित्यत्वाध्यासादनात्मनि देहादावात्मत्वाध्यासात्। अतो विपर्ययेण सृष्टिज्ञानं प्रतिबद्धम्। तेन च सार्वज्ञ्यं न जायतेऽस्मदादीनामिति तच्चिन्त्यम्। मां तु वेद न कश्चनेत्युक्त्या त्वदवेदनं केन प्रतिबन्धेनेति प्रश्नेनैवेतच्छ्लोकावतरणस्यौचित्येन तदनुसारिव्याख्यानस्यैव न्याय्यत्वात्। उत्तरश्लोके भजन्ते मां दृढव्रता इतिवाक्यशेषविरोधाच्च। विष्णुतत्त्वज्ञानाज्ज्ञातव्यान्तरानवशेषेऽपि ईश्वरवत्रैकालिकखिलज्ञानस्यालाभाच्चेति दिक्।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।7.27।।केन पुनर्निमित्तेनातीतादीनि भूतानि न जानन्तीत्याशङ्क्याह इच्छेति। इच्छा रागः द्वेषस्ताभ्यां समुत्थितो द्वन्द्वमोहः शोभनाशोभनसत्यासत्यनित्यानित्यात्मानात्मसु विपर्ययः अशोभने शोभनबुद्धिः शोभने वा अशोभनबुद्धिरित्येवंरूपस्तेन। हे भारत भरतान्वय सर्वभूतानि सर्गे सृष्टिविषये मोहमविवेकं यान्ति हे परंतप। अयं भावः यो हि सृष्टेरुपादानं स्वरूपं च तत्त्वतो जानाति स ब्रह्मवित् सर्वज्ञत्वादतीतादीञ्जानाति सृष्टौ च सर्वेषां मोहोऽस्ति अशोभने स्त्र्यादौ शोभनाध्यासात् असत्ये प्रपञ्चे सत्यत्वाध्यासात् सत्ये चात्मनोऽसङ्गत्वेऽसत्यत्वाध्यासात् अनित्ये स्वर्गादौ नित्यत्वाध्यासात् अनात्मनि देहादावात्माध्यासात्। अतो विपर्ययेण सृष्टिज्ञानं प्रतिबद्धं तेन च सार्वज्ञ्यं न जायतेऽस्मदादीनामिति।