श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।9.2।। यह सम्पूर्ण विद्याओंका और सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र तथा अतिश्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।9.2।।पुनस्तदाभिमुख्याय तज्ज्ञानं स्तौति -- राजविद्या सर्वासां विद्यानां राजा? सर्वाविद्यानाशकत्वात्? विद्यान्तरस्याविद्यैकदेशविरोधित्वात्। तथा राजगुह्यं सर्वेषां गुप्तानां राजा? अनेकजन्मकृतसुकृतसाध्यत्वेन बहुभिरज्ञातत्वात्। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परनिपातः। पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रायश्चित्तैर्हि किंचिदेकमेव पापं निवर्त्यते। निवृत्तं च तत्स्वकारणे सूक्ष्मरूपेण तिष्ठत्येव। यतः पुनस्तत्पापमुपचिनोति पुरुषः। इदं त्वनेकजन्मसहस्रसंचितानां सर्वेषामपि पापानां स्थूलसूक्ष्मावस्थानां तत्कारणस्य चाज्ञानस्य सद्य एवोच्छेदकम्। अतः सर्वोत्तमं। पावनमिदमेव। नचातीन्द्रिये धर्म इवात्र कस्यचित्संदेहः? स्वरूपतः फलतश्च प्रत्यक्षत्वादित्याह -- प्रत्यक्षावगमं अवगम्यतेऽनेनेत्यवगमो मानं? अवगम्यते प्राप्यत इत्यवगमः फलं? प्रत्यक्षमवगमो मानमस्मिन्निति स्वरूपतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं? प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति फलतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं? मयेदं विदितमतो नष्टमिदानीमत्र,ममाज्ञानमिति हि सार्वलौकिकः साक्ष्यनुभवः। एवं लोकानुभवसिद्धत्वेऽपि तज्ज्ञानं धर्म्यं धर्मादनपेतं अनेकजन्मसंचितनिष्कामधर्मफलम्। तर्हि दुःसंपादं स्यान्नेत्याह -- सुसुखं कर्तुं,गुरूपदर्शितविचारसहकृतेन वेदान्तवाक्येन सुखेन कर्तुं शक्यं न देशकालादिव्यवधानमपेक्षते प्रमाणवस्तुपरतन्त्रत्वाज्ज्ञानस्य। एवमनायाससाध्यत्वे स्वल्पफलत्वं स्यादत्यायासाध्यानामेव कर्मणां महाफलत्वदर्शनादिति नेत्याह -- अव्ययम्। एवमनायाससाध्यस्याप्यस्य फलतो व्ययो नास्तीत्यव्ययम्। अक्षयफलमित्यर्थः। कर्मणां त्वतिमहतामपि क्षयिकफलत्वमेवयो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्िमँल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति इति श्रुतेः। तस्मात्सर्वोत्कृष्टत्वाच्छ्रद्धेयमेवात्मज्ञानम्।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।9.2।।किञ्च राजविद्येति। इदं ज्ञानं खलु राज्ञां महामनसां विद्या गुह्यं च मन्त्ररूपं विद्यानां राजा गुह्यं च इति वा। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परत्वम्। पावनसम्बन्धित्वात् पवित्रम्। प्रत्यक्षेति अवगम्यत इत्यवगमो विषयो यस्य ज्ञानस्य सोऽहं प्रत्यक्षतामुपगतो भवामीत्यर्थः? भक्त्यावृतत्वात्। अथापि धर्म्यं निश्श्रेयसलक्षणाद्धर्मादनपेतम्अनिच्छतो गतिमण्वीं प्रयुङ्क्ते इति वाक्यात्। कर्तुं च सुसुखं न कर्मान्तरवद्दुष्करम्।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।9.2।। व्याख्या--'राजविद्या'--यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओंका राजा है; क्योंकि इसको ठीक तरहसे जान लेनेके बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता।भगवान्ने सातवें अध्यायके आरम्भमें कहा है कि 'मेरे समग्ररूपको जाननेके बाद जानना कुछ बाकी नहीं रहता।' पन्द्रहवें अध्यायके अन्तमें कहा है कि 'जो असम्मूढ़ पुरुष मेरेको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम जानता है, वह सर्ववित् हो जाता है अर्थात् उसको जानना कुछ बाकी नहीं रहता', इससे ऐसा मालूम होता है कि भगवान्के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त आदि जितने स्वरूप हैं, उन सब स्वरूपोंमें भगवान्के सगुण-साकार स्वरूपकी बहुत विशेष महिमा है।

'राजगुह्यम्'--संसारमें रहस्यकी जितनी गुप्त बाते हैं, उन सब बातोंका यह राजा है; क्योंकि संसारमें इससे बड़ी दूसरी कोई रहस्यकी बात है ही नहीं।

जैसे नाटकमें सबके सामने खेलता हुआ कोई पात्र अपना असली परिचय दे देता है, तो उसका परिचय देना विशेष गोपनीय बात है; क्योंकि वह नाटकमें जिस स्वाँगमें खेलता है, उसमें वह अपने असली रूपको छिपाये रखता है। ऐसे ही भगवान् जब मनुष्यरूपमें लीला करते हैं, तब अभक्त लोग उनको मनुष्य मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं। इससे भगवान् उनके समाने अपने-आपको प्रकट नहीं करते (गीता 7। 25)। परन्तु जो भगवान्के ऐकान्तिक प्यारे भक्त होते हैं, उनके सामने भगवान् अपने-आपको प्रकट कर देते हैं -- यह अपने-आपको प्रकट कर देना ही अत्यन्त गोपनीय बात है।

'पवित्रमिदम्'--इस विद्याके समान पवित्र करनेवाली दूसरी कोई विद्या है ही नहीं अर्थात् यह विद्या पवित्रताकी आखिरी हद है। पापी-से-पापी, दुराचारी-से-दुराचारी भी इस विद्यासे बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है अर्थात् पवित्र बन जाता है और शाश्वती शान्तिको प्राप्त कर लेता है (9। 31)।

दसवें अध्यायमें अर्जुनने भगवान्को परम पवित्र बताया -- 'पवित्रं परमं भवान्' (10। 12); चौथे अध्यायमें भगवान्ने ज्ञानको पवित्र बताया -- 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' (4। 38) और यहाँ राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर विज्ञानसहित ज्ञानको पवित्र बताते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पवित्र परमात्माका नाम, रूप, लीला, धाम, स्मरण, कीर्तन, जप, ध्यान, ज्ञान आदि सब पवित्र हैं अर्थात् भगवत्सम्बन्धी जो कुछ है, वह सब महान् पवित्र है और प्राणिमात्रको पवित्र करनेवाला है (टिप्पणी प0 485)। 

    'उत्तमम्' -- यह सर्वश्रेष्ठ है। इसके समकक्ष दूसरी कोई वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि है ही नहीं। यह श्रेष्ठताकी आखिरी हद है, क्योंकि इस विद्यासे मेरा भक्त सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। इतना श्रेष्ठ हो जाता है कि मैं भी उसकी आज्ञाका पालन करता हूँ।इस विज्ञानसहित ज्ञानको जानकर जो मनुष्य इसका अनुभव कर लेते हैं, उनके लिये भगवान् कहते हैं कि 'वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ' -- 'मयि ते तेषु चाप्यहम्' (9। 29) अर्थात् वे मेरेमें तल्लीन होकर मेरा स्वरूप ही बन जाते हैं।

   'प्रत्यक्षावगमम्' -- इसका फल प्रत्यक्ष है। जो मनुष्य इस बातको जितना जानेगा, वह उतना ही अपनेमें विलक्षणताका अनुभव करेगा। इस बातको जानते ही परमगति प्राप्त हो जाय--यह इसका प्रत्यक्ष फल है।

   'धर्म्यम्' -- यह धर्ममय है। परमात्माका लक्ष्य होनेपर निष्कामभावपूर्वक जितने भी कर्तव्य-कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब इस धर्मके अन्तर्गत आ जाते हैं। अतः यह विज्ञानसहित ज्ञान सभी धर्मोंसे परिपूर्ण है।

दूसरे अध्यायमें भगवान्ने अर्जुनको कहा कि इस धर्ममय युद्धके सिवाय क्षत्रियके लिये दूसरा कोई श्रेयस्कर साधन नहीं है -- 'धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते' (2। 31)। इससे यही सिद्ध होता है कि अपने-अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार शास्त्रविहित जितने कर्तव्य-कर्म हैं, वे सभी धर्म्य हैं। इसके सिवाय भगवत्प्राप्तिके जितने साधन हैं और भक्तोंके जितने लक्षण हैं, उन सबका नाम भगवान्ने 'धर्म्यामृत' रखा है (गीता 12। 20) अर्थात् ये सभी भगवान्की प्राप्ति करानेवाले होनेसे धर्ममय हैं।

  'अव्ययम्' -- इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती, इसलिये यह अविनाशी है। भगवान्ने अपने भक्तके लिये भी कहा है कि मेरे भक्तका विनाश ( पतन ) नहीं होता' -- 'न मे भक्तः प्रणश्यति' (9। 31)।

  'कर्तुं सुसुखम्' -- यह करनेमें बहुत सुगम है। पत्र, पुष्प, फल, जल आदि चीजोंको भगवान्की मानकर भगवान्को ही देना कितना सुगम है (9। 26) ! चीजोंको अपनी मानकर भगवान्को देनेसे भगवान् उनको,अनन्त गुणा करके देते हैं और उनको भगवान्की ही मानकर भगवान्के अर्पण करनेसे भगवान् अपने-आपको ही दे देते हैं। इसमें क्या परिश्रम करना पड़ा? इसमें तो केवल अपनी भूल मिटानी है।मेरी प्राप्ति सुगम है, सरल है; क्योंकि मैं सब देशमें हूँ तो यहाँ भी हूँ, सब कालमें हूँ तो अभी भी हूँ। जो कुछ भी देखने, सुनने, समझनेमें आता है, उसमें मैं ही हूँ। जितने भी मनुष्य हैं, उनका मैं हूँ और वे मेरे हैं। परन्तु मेरी तरफ दृष्टि न रखकर प्रकृतिकी तरफ दृष्टि रखनेसे वे मुझे प्राप्त न होकर बारबार जन्मते-मरते रहते हैं। अगर वे थोड़ा-सा भी मेरी तरफ ध्यान दें तो उनको मेरी अलौकिकता, विलक्षणता दीखने लग जाती है तथा प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध नहीं है और भगवान्के साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध है--इसका अनुभव हो जाता है।

 सम्बन्ध--ऐसी सुगम और सर्वोपरि विद्याके होनेपर भी लोग उससे लाभ क्यों नहीं उठा रहे हैं? इसपर कहते हैं--,

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।9.2।।तज्ज्ञानं स्तौति राजेति। राजविद्या विद्यानां सर्वासां राजा। ब्रह्मविद्यावतः पूजातिशयदर्शयेन तस्या अतिशयेन देदीप्यमानत्वात्। तथाच श्रुतिःतस्मादात्मज्ञमर्चयेद्भूतिकामः इति। भगवद्ववचनं चनिरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्। अनुब्रजाभ्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्गिरेणुभिः।। इति। तथा सर्वेषां गुह्यानामुत्कर्षवत्त्वेन गोप्यानां राजाऽत्यत्कर्षत्वात्राजदन्तादिषु परम् इत्युपासर्जनस्य परनिपातः। इदं ब्रह्मज्ञानमुत्तमं पवित्रं सर्वेषां पावनानामपि शुद्धिकत्वात्। अन्यद्धि प्रायश्चित्तादिरुपं पवित्रं यथाकथंचित्किंचित्पापं नाशयति। इदं तु सर्वै धर्माधर्मादिलक्षणं अनेकजन्मसंचितं समूलं कर्म नाशयति। क्रियमाणं चाश्चलष्टं करोति। तथाच व्याससूत्रेतदधिगम उत्तरपूर्वाधयोरश्लेषविनाशौ तद्य्वपदेशात्इतरस्याप्येवमसंश्लेषः पाते तु इति। तस्मात्किं तस्य ब्रह्मज्ञानस्य परमपावनत्वं वक्तव्यमेतल्लवसदृशस्यान्यस्य पावन स्यानिरुपणात्। किंच न केवलं धर्मवच्छास्त्रगम्यं परोक्षमेवापितु प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षेण सुखादेरिवावगमो यस्येति भाष्यम्। प्रत्यक्षोऽवगमो मानमस्मिमन्निति तथा। यद्वावगम्यत इत्यवगमः फलं प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति दृष्टफलत्वं ज्ञानस्योच्यत इति तट्टीका। प्रथमपक्षेऽवगम्येतऽनेनेत्यवगमो मानं प्रत्यक्षं तदस्मिन्निति स्वरुपतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं। द्वितीयपक्षे फलतः तत्प्रत्यक्षत्वं मयेदं विदतमतो नष्टमिदानीं ममात्राज्ञानमिति सार्वजनीनः साक्ष्यनुभवः इति तदर्थः। प्रत्यक्षं नित्यापरोक्षं यत्प्रत्यगात्मवस्तु तदेव याथात्म्येनावगम्येऽनेनेत्यपि केचित्तदेतत्पक्षत्रयमपि भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वेनोपादेयम्। नन्वनेकगुणवतोऽपि मांसभक्षणादेर्धर्मविरुद्धत्वं दृष्टम्? तथा आत्मज्ञानमपि किं न स्यादिति तत्राह। धर्म्यं धर्मादनपेतम्। अनेकजन्मार्जितसुकृतसाध्यत्वात्। नन्वेमपि दुःसंपाद्यं स्यादिति तत्राह। सुसुखं कर्ते गुरुपदिष्टवेदान्तवाक्यैरज्ञाननिवृत्त्या सुखेनैव संपादयितुं शक्यं न देशकालऋत्विगाद्यपेक्षास्तीति। ननु लोके यन्महत्फलं तद्वह्वायाससाध्यकर्मसाध्यम्। अल्पं त्वल्पायाससाध्यकर्मसाध्यं दृष्टम्। तद्वज्ज्ञानमपि कर्तुं सुखं अल्पफलं भविष्यतीत्याशङ्क्य रत्नविवेकज्ञानस्याल्पायाससाध्यस्यापि महाफलदर्शनान्नेत्याह। अव्ययं नास्य ज्ञानस्य लोकवत्फलतो व्ययो नाशोस्तीऽत्यव्ययम्। अतः श्रद्धयावश्यं संपाद्यमिति भावः।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।9.2।।एतदेव स्तौति -- राजविद्येति। विद्यानां राजा इति राजविद्या अध्यात्मविद्या। गुह्यानां राजा इति राजगुह्यम्।राजदन्तादिषु परम् इत्युपसर्जनस्य परनिपातः। पवित्रं पावनम्। उत्तमं पूर्वापरदुरितनाशाश्लेषहेतुत्वात्प्रायश्चित्ताद्यपेक्षया श्रेष्ठम्। प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षं नित्यापरोक्षं यत्प्रत्यगात्मवस्तु तदेव याथात्म्येनावगम्यतेऽनेनेति प्रत्यक्षावगमं? प्रत्यक्षेण सुखादिवद्गमो यस्येति वा। अस्मिन्पक्षे विज्ञानसहितमिति विशेषणस्य श्लोकान्तरस्थत्वान्न तेन पौनरुक्त्यदोषः। तर्हि अपूर्वत्वाभावान्निष्फलं स्यादत आह। धर्म्यं धर्मादनपेतम्। तथाहि क्षणमपि प्रत्यगात्माकारवृत्तौ सत्यां श्रूयतेक्षणमेकं क्रतुशतस्य चतुःसप्तत्या यत्फलं तद्वाप्नोति इति। तर्हि दुःसाध्यं स्यान्नेत्याह -- सुसुखं कर्तुमिति। कर्तुं संपादयितुमाविष्कर्तुं सुसुखमनायाससाध्यम्। अज्ञानापनयमात्रसिद्धत्वात्। तर्हि आशुविनाशिफलं चेत्। अव्ययं? वस्तुमात्रविषयत्वात्। अनन्तफलं नतु कर्मफलवन्नश्यति।