जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।
श्रीमद् भगवद्गीता
2.27।। व्याख्या-- 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च'-- पूर्वश्लोकके अनुसार अगर शरीरीको नित्य जन्मने और मरनेवाला भी मान लिया जाय, तो भी वह शोकका विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा।
'तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि'-- इसलिये कोई भी इस जन्म-मृत्युरूप प्रवाहका परिहार (निवारण) नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसीका किञ्चिन्मात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म-मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकालतक चलता रहेगा। इस दृष्टिसे तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है।
ये धृतराष्ट्रके पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जायेंगे, वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बातका?
शोक उसीका कीजिये जो अनहोनी होय।
अनहोनी होती नहीं होनी है सो होय।।
जैसे, इस बातको सब जानते हैं कि सूर्यका उदय हुआ है, तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिये मनुष्य सूर्यका अस्त होनेपर शोक-चिन्ता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीरके साथ ये भीष्म, द्रोण आदि सभी मर जायँगे, तो फिर शरीरके साथ जन्म भी जायँगे। अतः इस दृष्टिसे भी शोक नहीं हो सकता।
भगवान्ने इन दो (छब्बीसवें-सत्ताईसवें) श्लोकोंमें जो बात कही है, वह भगवान्का कोई वास्तविक सिद्धान्त नहीं है। अतः 'अथ च' पद देकर भगवान्ने दूसरे (शरीर-शरीरीको एक माननेवाले) पक्षकी बात कही है कि ऐसा सिद्धान्त तो है नहीं, पर अगर तू ऐसा भी मान ले, तो भी शोक करना उचित नहीं है।
इन दो श्लोकोंका तात्पर्य यह हुआ कि संसारकी मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होनेसे पहले रूपको छोड़कर दूसरे रूपको धारण करती रहती हैं। इसमें पहले रूपको छोड़ना--यह मरना हो गया और दूसरे रूपको धारण करना--यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है, उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है, वह फिर जन्मता है--यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टिसे भी क्या शोक करें
सम्बन्ध -- पीछेके दो श्लोकोंमें पक्षान्तरकी बात कहकर अब भगवान् आगेके श्लोकमें बिलकुल साधारण दृष्टिकी बात कहते हैं।
।।2.27।। जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है; इसलिए जो अटल है अपरिहार्य - है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।।
।।2.27।। भौतिकवादी नास्तिक लोगों का मत है कि बिना किसी पूर्वापर कारण के वस्तुएँ उत्पन्न नहीं होती हैं। आस्तिक लोग देह से भिन्न जीव का अस्तित्व स्वीकार करते हुए कहते हैं कि एक ही जीव विकास की दृष्टि से अनेक शरीर धारण करता है जिससे वह इस दृश्य जगत् के पीछे जो परम सत्य है उनको पहचान सकें। दोनों ही प्रकार के विचारों में एक सामान्य बात यह है कि दोनों ही यह मानते हैं कि जीवन जीवनमृत्यु की एक शृंखला है।
इस प्रकार जीवन के स्वरूप को समझ लेने पर निरन्तर होने वाले जन्म और मृत्यु पर किसी विवेकी पुरुष को शोक नहीं करना चाहिए। गर्मियों के दिनों में सूर्य के प्रखर ताप में बाहर खड़े होकर यदि कोई सूर्य के ताप और चमक की शिकायत करे तो वास्तव में यह मूढ़ता का लक्षण है। इसी प्रकार यदि जीवन को प्राप्त कर उसके परिवर्तनशील स्वभाव की कोई शिकायत करता है तो यह एक अक्षम्य मूढ़ता है।
उपर्युक्त कारण से शोक करना अपने अज्ञान का ही परिचायक है। श्रीकृष्ण का जीवन तो आनन्द और उत्साह का संदेश देता है। उनका जीवनसंदेश है रुदन अज्ञान का लक्षण है और हँसना बुद्धिमत्ता का। हँसते रहो इन दो शब्दों में श्रीकृष्ण के उपदेश को बताया जा सकता है। इसी कारण जब वे अपने मित्र को शोकाकुल देखते है तो उसकी शोक और मोह से रक्षा करने के लिए और इस प्रकार उसके जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिए वे तत्पर हो जाते हैं।
अब आगे के दस श्लोक सामान्य मनुष्य का दृष्टिकोण बताते हैं। भगवान् शंकराचार्य अपने भाष्य में कहते हैं कार्यकारण के सम्बन्ध से युक्त वस्तुओं के लिए शोक करना उचित नहीं क्योंकि
।।2.27।। क्योंकि पैदा हुएकी जरूर मृत्यु होगी और मरे हुएका जरूर जन्म होगा। इस (जन्म-मरण-रूप परिवर्तन के प्रवाह) का परिहार अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषयमें तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।