श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।

तदेकं वद निश्िचत्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।3.2।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।3.2।। व्याख्या-- 'जनार्दन'-- इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्री कृष्ण! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते ৷৷. नियोजयसि केशव'-- मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईकी वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा-त्यागरूप भलाईके वशेमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?

भगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें 'बुद्धिर्योगे' पदसे समबुद्धि-(समता-) की ही बात कही थी; परन्तु अर्जुनने उसको ज्ञान समझ लिया। अतः वे भगवान्से कहते हैं कि हे जनार्दन! आपने पहले कहा कि 'मैंने सांख्यमें यह बुद्धि कह दी, इसीको तुम योगके विषयमें सुनो। इस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनको छोड़ देगा।' परन्तु कर्मबन्धन तभी छूटेगा, जब ज्ञान होगा। आपने यह भी कह दिया कि 'बुद्धियोग' अर्थात् ज्ञानसे कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं (2। 49)। अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, उत्तम है, तो फिर मेरेको शास्त्रविहित यज्ञ, दान, तप, आदि शुभ कर्मोंमें भी नहीं लगाना चाहिये, केवल ज्ञानमें ही लगाना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत आप मेरेको युद्ध-जैसे अत्यन्त क्रूर कर्ममें, जिसमें दिनभर मनुष्योंकी हत्या करनी पड़े, क्यों लगा रहे हैं?

पहले अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका जोश आया हुआ था और उन्होंने उसी जोशमें भरकर भगवान्से कहा कि 'हे अच्युत! दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि यहाँ मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है।' परन्तु भगवान्ने जब दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणके सामने तथा राजाओंके सामने रथ खड़ा करके कहा कि 'तू इन कुरुवंशियोंको देख', तब अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया। मोह जाग्रत् होनेसे उनकी वृत्ति युद्धसे, कर्मसे उपरत होकर ज्ञानकी तरफ हो गयी; क्योंकि ज्ञानमें युद्ध-जैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते। अतः अर्जुन कहते हैं कि आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?

यहाँ 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'ज्ञान' लिया गया है। अगर यहाँ 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'समबुद्धि' (समता) लिया जाय तो व्यामिश्र वचन सिद्ध नहीं होगा। कारण कि दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको योग-(समता-) में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है। व्यामिश्र वचन तभी सिद्धि होगा, जब अर्जुनकी मान्यतामें दो बातें हों और तभी यह प्रश्न बनेगा कि अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? दूसरी बात, भगवान्ने आगे अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें दो निष्ठाएँ कही हैं--ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे। इससे भी अर्जुनके प्रश्नोंमें 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'ज्ञान' लेना युक्तिसंगत बैठता है।कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं। अर्जुनकी भगवान्पर पूर्ण श्रद्धा है; अतः भगवान्के कहनेपर अर्जुन अपने कल्याणके लिये युद्ध-जैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैं--ऐसा भाव उपर्युक्त प्रश्नसे प्रकट होता है।

'व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे'-- इन पदोंमें अर्जुनका भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करे 'कुरु कर्माणि' (2। 48) और कभी आप कहते हैं कि ज्ञानका आश्रय लो 'बुद्धौ शरणमन्विच्छ' (2। 49)। आपके इन मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरेको कर्म करने चाहिये या ज्ञानकी शरण लेनी चाहिये।यहाँ दो बार 'इव' पदके प्रयोगसे भगवान्पर अर्जुनकी श्रद्धाका द्योतन हो रहा है। श्रद्धाके कारण अर्जुन भगवान्के वचनोंको ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान् मेरी बुद्धिको मोहित नहीं कर रहे हैं। परन्तु भगवान्के वचनोंको ठीक-ठीक न समझनेके कारण अर्जुनको भगवान्के वचन मिले हुए-से लग रहे हैं और उनको ऐसा दीख रहा है कि भगवान् अपने वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहतिसी कर रहे हैं। अगर भगवान् अर्जुनकी बुद्धिको मोहति करते, तो फिर अर्जुनके मोहको दूर करता ही कौन?

'तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्'-- मेरा कल्याण कर्म करनेसे होगा या ज्ञानसे होगा--इनमेंसे आप निश्चय करके मेरे लिये एक बात कहिये, जिससे मेरा कल्याण हो जाय। मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहिये--'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' (2। 7) और अब भी मैं वही बात कर रहा हूँ।

 सम्बन्ध-- अब आगेके तीन (तीसरे चौथे और पाँचवें) श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके 'व्यामिश्रेणेव वाक्येन' (मिले हुएसे वचनों) पदोंका उत्तर देते हैं।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.2।।तथा यद्यपि भगवान् स्पष्ट कहनेवाले हैं तो भी मुझ मन्दबुद्धिको भगवान्के वाक्य मिले हुएसे प्रतीत होते हैं उन मिले हुएसे वचनोंसे आप मानो मेरी बुद्धिको मोहित कर रहे हैं। वास्तवमें आप तो मेरी बुद्धिका मोह दूर करनेके लिये प्रवृत्त हुए हैं फिर मुझे मोहित कैसे करते इसीलिये कहता हूँ कि आप मेरी बुद्धिको मोहितसी करते हैं। आप यदि अलगअलग अधिकारियोंद्वारा किये जाने योग्य ज्ञान और कर्मका अनुष्ठान एक पुरुषद्वारा किया जाना असम्भव मानते हैं तो उन दोनोंमेंसे ज्ञान या कर्म यही एक बुद्धि शक्ति और अवस्थाके अनुसार अर्जुनके लिये योग्य है ऐसा निश्चय करके मुझसे कहिये जिस ज्ञान या कर्म किसी एकसे में कल्याणको प्राप्त कर सकूँ। यदि कर्मनिष्ठामें गौणरूपसे भी ज्ञानको भगवान्ने कहा होता तो दोनोंमेंसे एक कहिये इस प्रकार एकहीको सुननेकी अर्जुनकी इच्छा कैसे होती क्योंकि ज्ञान और कर्म इन दोनोंमेंसे मैं तुझसे एक ही कहूँगा दोनों नहीं ऐसा भगवान्ने कहीं नहीं कहा कि जिससे अर्जुन अपने लिये दोनोंकी प्राप्ति असम्भव मानकर एकके लिये ही प्रार्थना करता।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।3.2।। पहले से ही मोहितमन अर्जुन में सामान्य मनुष्य होने के नाते वह सूक्ष्म बुद्धि नहीं थी जिसके द्वारा विवेकपूर्वक भगवान् के सूक्ष्म तर्कों को समझ कर वह निश्चित कर सके कि परम श्रेय की प्राप्ति के लिए कर्म मार्ग सरल था अथवा ज्ञान मार्ग। इसलिए वह यहाँ भगवान् से नम्र निवेदन करता है आप उस मार्ग को निश्चित कर आदेश करिये जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त कर सकूँ।अर्जुन को इसमें संदेह नहीं था कि जीवन केवल धन के उपार्जन परिग्रह और व्यय के लिए नहीं है। वह जानता था कि उसका जीवन श्रेष्ठ सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए था जिसके लिए भौतिक उन्नति केवल साधन थी साध्य नहीं। अर्जुन मात्र यह जानना चाहता था कि वह उपलब्ध परिस्थितियों का जीवन की लक्ष्य प्राप्ति और भविष्य निर्माण में किस प्रकार सदुपयोग करे।

प्रश्न के अनुरूप भगवान् उत्तर देते हैं

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas



।।3.1 -- 3.2।। अर्जुन बोले -- हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि- (ज्ञान-) को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? आप अपने मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अतः आप निश्चय करके एक बात को कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.2।। आप इस मिश्रित वाक्य से मेरी बुद्धि को मोहितसा करते हैं अत आप उस एक (मार्ग) को निश्चित रूप से कहिये जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त कर सकूँ।।