श्री भगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।3.3।। व्याख्या-- [अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे अतः उन्होंने समतावाचक 'बुद्धि' शब्दका अर्थ 'ज्ञान' समझ लिया। परन्तु भगवान्ने पहले बुद्धि और 'बुद्धियोग' शब्दसे समताका वर्णन किया था (2। 39 49 आदि) अतः यहाँ भी भगवान् ज्ञानयोग और कर्मयोग--दोनोंके द्वारा प्रापणीय समताका वर्णन कर रहे हैं।]
'अनघ'-- अर्जुनके द्वारा अपने श्रेय-(कल्याण-) की बात पूछी जानी ही उनकी निष्पापता है; क्योंकि अपने कल्याणकी तीव्र इच्छा होनेपर साधकके पाप नष्ट हो जाते हैं। 'लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया'-- यहाँ लोके पदका अर्थ मनुष्य-शरीर समझना चाहिये; क्योंकि ज्ञानयोग और कर्मयोग--दोनों प्रकारके साधनोंको करनेका अधिकार अथवा साधक बननेका अधिकार मनुष्य-शरीरमें ही है।
'निष्ठा'-- अर्थात् समभावमें स्थिति एक ही है, जिसे दो प्रकारसे प्राप्त किया जा सकता है--ज्ञानयोगसे और कर्मयोगसे। इन दोनों योगोंका अलग-अलग विभाग करनेके लिये भगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें कहा है कि इस समबुद्धिको मैंने सांख्ययोगके विषयमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) कह दिया है, अब इसे कर्मयोगके विषयमें (उन्तालीसवें तिरपनवें श्लोकतक) सुनो--'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।' 'पुरा' पदका अर्थ अनादिकाल भी होता है और अभीसे कुछ पहले भी होता है। यहाँ इस पदका अर्थ है--अभीसे कुछ पहले अर्थात् पिछला अध्याय, जिसपर अर्जुनकी शंका है। यद्यपि दोनों निष्ठाएँ पिछले अध्यायमें अलग-अलग कही जा चुकी हैं, तथापि किसी भी निष्ठामें कर्मत्यागकी बात नहीं कही गयी है।मार्मिक बात
यहाँ भगवान्ने दो निष्ठाएँ बतायी हैं--सांख्यनिष्ठा (ज्ञानयोग) और योगनिष्ठा (कर्मयोग)। जैसे लोकमें दो तरहकी निष्ठाएँ हैं--'लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा', ऐसे ही लोकमें दो तरहके पुरुष हैं 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके' (गीता 15। 16) वे हैं--क्षर (नाशवान् संसार) और अक्षर (अविनाशी स्वरूप)। क्षरकी सिद्धिअसिद्धि प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहना 'कर्मयोग' है और क्षरसे विमुख होकर अक्षरमें स्थित होना 'ज्ञानयोग' है। परन्तु क्षर अक्षर--दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नामसे कहा जाता है--'उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः' (15। 17)। वह परमात्मा क्षरसे तो अतीत है और अक्षरसे उत्तम है; अतः शास्त्र और वेदमें वह 'पुरुषोत्तम' नामसे प्रसिद्धि है (15। 18)। ऐसे परमात्माके सर्वथा सर्वभावसे शरण हो जाना 'भगवन्निष्ठा' (भक्तियोग) है। इसलिये क्षरकी प्रधानतासे कर्मयोग, अक्षरकी प्रधानतासे ज्ञानयोग और परमात्माकी प्रधानतासे भक्तियोग चलता है (टिप्पणी प0 116)।सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा--ये दोनों साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं; परन्तु भगवन्निष्ठा साधकोंकी अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें साधकको 'मैं हूँ' और 'संसार है'--इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित होता है और कर्मयोगी संसारकी वस्तु-(शरीरादि-) को संसारकी ही सेवामें लगाकर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करता है। परन्तु भगवन्निष्ठामें साधकको पहले 'भगवान् हैं'--इसका अनुभव नहीं होता पर उसका विश्वास होता है कि स्वरूप और संसार--इन दोनोंसे भी विलक्षण कोई तत्त्व (भगवान्) है। अतः वह श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान्को मानकर अपने-आपको भगवान्के समर्पित कर देता है। इसलिये सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें तो 'जानना' (विवेक) मुख्य है और भगवन्निष्ठामें 'मानना' (श्रद्धाविश्वास) मुख्य है।जानना और मानना दोनोंमें कोई फरक नहीं है। जैसे 'जानना' सन्देहरहित (दृढ़) होता है ऐसे ही 'मानना' भी सन्देहरहित होता है। मानी हुई बातमें विचारकी सम्भावना नहीं रहती। जैसे, 'अमुक मेरी माँ है'--यह केवल माना हुआ है, पर इस माने हुएमें कभी सन्देह नहीं होता, कभी जिज्ञासा नहीं होती कभी विचार नहीं करना पड़ता। इसलिये गीतामें भक्तियोगके प्रकरणमें जहाँ जाननेकी बात आयी है, उसको माननेके अर्थमें ही लेना चाहिये। इसी तरह ज्ञानयोग और कर्मयोगके प्रकरणमें जहाँ माननेकी बात आयी है, उसको जाननेके अर्थमें ही लेना चाहिये।
सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा तो साधन-साध्य हैं और साधकपर निर्भर हैं, पर भगवन्निष्ठा साधन-साध्य नहीं है। भगवन्निष्ठामें साधक भगवान् और उनकी कृपापर निर्भर रहता है।भगवन्निष्ठाका वर्णन गीतामें जगह-जगह आया है; जैसे--इसी अध्यायमें पहले दो निष्ठाओंका वर्णन करके फिर तीसवें श्लोकमें 'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य' पदोंसे भक्तिका वर्णन किया गया है; पाँचवें अध्यायमें भी दो निष्ठाओंका वर्णन करके दसवें श्लोकमें 'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि' और अन्तमें 'भोक्तारं यज्ञतपसाम्'৷৷. 'आदि पदोंसे भक्तिका वर्णन किया गया है, इत्यादि'।
'ज्ञानयोगेन सांख्यानाम्' प्रकृतिसे उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें, इन्द्रियोंमें ही हो रही हैं (गीता 3। 28) और मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है--ऐसा समझकर समस्त क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानका सर्वथा त्याग कर देना 'ज्ञानयोग' है।
गीतोपदेशके आरम्भमें ही भगवान्ने सांख्ययोग-(ज्ञानयोग-) का वर्णन करते हुए नाशवान् शरीर और अविनाशी शरीरीका विवेचन किया है, जिसे (गीता 2। 16 में) असत् और सत्के नामसे भी कहा गया है।
'कर्मयोगेन योगिनाम्'-- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थितिके अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म सामनेआ जाय, उसको (उस कर्म तथा उसके फलमें) कामना, ममता और आसक्तिका सर्वथा त्याग करके करना तथा कर्मकी सिद्धि और असिद्धिमें सम रहना 'कर्मयोग' है।भगवान्ने कर्मयोगका वर्णन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकमें मुख्यरूपसे किया है। इनमें भी सैंतालीसवें श्लोकमें कर्मयोगका सिद्धान्त कहा गया है और अड़तालीसवें श्लोकमें कर्मयोगको अनुष्ठानमें लानेकी विधि कही गयी है।
।।3.3।।प्रश्नके अनुसार ही उत्तर देते हुए श्रीभगवान् बोले हे निष्पाप अर्जुन इस मनुष्यलोकमें शास्त्रोक्त कर्म और ज्ञानके जो अधिकारी हैं ऐसे तीनों वर्णवालोंके लिये ( अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्योंके लिये ) दो प्रकारकी निष्ठास्थिति अर्थात् कर्तव्य तत्परता पहलेसृष्टिके आदिकालमें प्रजाको रचकर उनकी लौकिक उन्नति और मोक्षकी प्राप्तिके साधनरूप वैदिक सम्प्रदायको आविष्कार करनेवाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा कही गयी हैं। वह दो प्रकारकी निष्ठा कौनसी हैं सो कहते हैं जो आत्मअनात्मके विषयमें विवेकजन्य ज्ञानसे सम्पन्न हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्यआश्रमसे ही संन्यास ग्रहण कर लिया है जिन्होंने वेदान्तके विज्ञानद्वारा आत्मतत्त्वका भलीभाँति निश्चय कर लिया है जो परमहंस संन्यासी हैं जो निरन्तर ब्रह्ममें स्थित हैं ऐसे सांख्ययोगियोंकी निष्ठा ज्ञानरूप योगसे कही है। तथा कर्मयोगसे कर्मयोगियोंकी अर्थात् कर्म करनेवालोंकी निष्ठा कही है। यदि एक पुरुषद्वारा एक ही प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ज्ञान और कर्म दोनों एक साथ अनुष्ठान करने योग्य हैं ऐसा अपना अभिप्राय भगवान्द्वारा गीतामें पहले कहीं कहा गया होता या आगे कहा जानेवाला होता अथवा वेदमें कहा गया होता तो शरणमें आये हुए प्रिय अर्जुनको यहाँ भगवान् यह कैसे कहते कि ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा अलगअलग भिन्नभिन्न अधिकारियोंद्वारा ही अनुष्ठान की जानेयोग्य हैं। यदि भगावन्का यह अभिप्राय मान लिया जाय कि ज्ञान और कर्म दोनोंको सुनकर अर्जुन स्वयं ही दोनोंका अनुष्ठान कर लेगा दोनोंको भिन्न भिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य तो दूसरोंके लिये कहूँगा। तब तो भगवान्को रागद्वेषयुक्त और अप्रामाणिक मानना हुआ। ऐसा मानना सर्वथा अनुचित है। इसलिये किसी भी युक्तिसे ज्ञान और कर्मका समुच्चय नहीं माना जा सकता। कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञानकी श्रेष्ठता जो अर्जुनने कही थी वह तो सिद्ध है ही क्योंकि भगवान्ने उसका निराकरण नहीं किया। उस ज्ञाननिष्ठाके अनुष्ठानका अधिकार संन्यासियोंका ही है क्योंकि दोनों निष्ठा भिन्नभिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य बतलायी गयी हैं। इस कारण भगवान्की यही सम्मति है। यह प्रतीत होता है। बन्धनके हेतुरूप कर्मोंमें ही भगवान् मुझे लगाते हैं ऐसा समझकर व्यथितचित्त हुए और मैं कर्म नहींकरूँगा ऐसा माननेवाले अर्जुनको देखकर भगवान् बोले न कर्मणामनारम्भात् इति। अथवा ज्ञाननिष्ठाका और कर्मनिष्ठाका परस्पर विरोध होनेके कारण एक पुरुषद्वारा एक कालमें दोनोंका अनुष्ठान नहीं किया जा सकता। इससे एक दूसरेकी अपेक्षा न रखकर दोनों अलगअलग मोक्षमें हेतु हैं ऐसा शंका होनेपर
।।3.3।। कर्मयोग और ज्ञानयोग को परस्पर प्रतिद्वन्द्वी मानने का अर्थ है उनमें से किसी एक को भी नहीं समझना। परस्पर पूरक होने के कारण उनका क्रम से अर्थात् एक के पश्चात् दूसरे का आश्रय लेना पड़ता है। प्रथम निष्काम भाव से कर्म करने पर मन में स्थित अनेक वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं। इस प्रकार मन के निर्मल होने पर उसमें एकाग्रता और स्थिरता आती है जिससे वह ध्यान में निमग्न होकर परमार्थ तत्त्व का साक्षात् अनुभव करता है।विदेशी संस्कृति के लोग हिन्दू धर्म को समझने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करते हैं। साधनों की विविधता और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले उपदेशों को पढ़कर उनकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। परन्तु केवल इसी कारण से हिन्दू धर्म को अवैज्ञानिक कहने में उतनी ही बड़ी और हास्यास्पद त्रुटि होगी जितनी चिकित्साशास्त्र को विज्ञान न मानने में केवल इसीलिए कि एक ही चिकित्सक एक ही दिन में विभिन्न रोगियों को विभिन्न औषधियों द्वारा उपचार बताता है।अध्यात्म साधना करने के योग्य साधकों में दो प्रकार के लोग होते हैं क्रियाशील और मननशील। इन दोनों प्रकार के लोगों के स्वभाव में इतना अन्तर होता है कि दोनों के लिये एक ही साधना बताने का अर्थ होगा किसी एक विभाग के लोगों को निरुत्साहित करना और उनकी उपेक्षा करना। गीता केवल हिन्दुओं के लिये ही नहीं वरन् समस्त मानव जाति के कल्याणार्थ लिखा हुआ शास्त्र है। अत सभी के उपयोगार्थ उनकी मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताओं के अनुरूप दोनों ही वर्गों के लिये साधनायें बताना आवश्यक है।अत भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि क्रियाशील स्वभाव के मनुष्य के लिये कर्मयोग तथा मननशील साधकों के लिये ज्ञानयोग का उपदेश किया गया है। पुरा शब्द से वह यह इंगित करते है कि ये दो मार्ग सृष्टि के आदिकाल से ही जगत् में विद्यमान हैं।इस श्लोक में प्रथम बार भगवान् श्रीकृष्ण अपने वास्तविक परिचय की एक झलकमात्र दिखाते हैं। यदि गीतोपदेश देवकीपुत्र कृष्ण नामक किसी र्मत्य पुरुष का ही दिया होता तो अधिक से अधिक उसमें उस व्यक्ति की बुद्धि द्वारा समझे हुए सिद्धांत ही होते जिनका आधार जीवन के उसके स्वानुभव मात्र होते। जीवन में अनुभव किये तथ्यों में परिवर्तित होते रहने का विशेष गुण होता है और इसीलिये जब वे बदलते हैं तो हमारा पूर्व का निष्कर्ष भी परिवर्तित हो जाता है। परिवर्तित सामाजिक राजनैतिक आर्थिक परिस्थितियों एवं विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति के साथ समाजशास्त्र अर्थशास्त्र एवं विज्ञान के अगणित पूर्वप्रतिपादित सिद्धांत कालबाह्य हो चुके हैं। यदि गीता में कृष्ण नामक किसी मनुष्य की बुद्धि से पहुँचे हुए निष्कर्ष मात्र होते तो वह कालबाह्य होकर अब उसके अवशेष मात्र रह गए होते यहाँ श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं सृष्टि के आदि में (पुरा) ये दो मार्ग मेरे द्वारा कहे गये थे। इसका तात्पर्य यह है कि यहाँ भगवान् वृन्दावन के नीलवर्ण गोपाल गोपियों के प्रिय सखा अथवा अपने युग के महान् राजनीतिज्ञ के रूप में नहीं बोल रहे थे। किन्तु भारतीय इतिहास के एक स्वस्वरूप के ज्ञाता तत्त्वदर्शी उपदेशक सिद्ध पुरुष एवं ईश्वर के रूप में उपदेश दे रहे थे। उस क्षण न तो वे अर्जुन के सारथि के रूप में न एक सखा के रूप में और न ही पाण्डवों के शुभेच्छु के रूप में बात कर रहे थे। उन्हें अपने पारमार्थिक स्वरूप जगत् के अधिष्ठान कारण के रूप में पूर्ण भान था। काल और कारण के अतीत सत्यस्वरूप में स्थित हुए वे इन दो मार्गों के आदि उपदेशक के रूप में अपना परिचय देते हैं।कर्मयोग लक्ष्य प्राप्ति का क्रमिक साधन है साक्षात् नहीं। अर्थात् वह ज्ञान प्राप्ति की योग्यता प्रदान करता है जिससे ज्ञानयोग के द्वारा सीधे ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसे समझाने के लिए भगवान् कहते हैं
।।3.3।। श्रीभगवान् बोले - हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोकमें दो प्रकारसे होनेवाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे होती है।
।।3.3।। श्री भगवान् ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से।।