श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।12.1।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।12.1।।तथा विश्वरूप ( एकादश ) अध्यायमें आपने उपासनाके लिये ही मुझे सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त? सबका आदि और समस्त जगत्का आत्मारूप अपना विश्वरूप भी दिखलाया है और वह रूप दिखलाकर आपने मेरे ही लिये कर्म करनेवाला हो इत्यादि वचन भी कहे हैं। इसलिये इन दोनों पक्षोंमें कौनसा पक्ष श्रेष्ठतर है? यह जाननेकी इच्छासे मैं आपसे पूछता हूँ। इस प्रकार अर्जुन बोला --, एवम् शब्दसे जिसके आदिमें मत्कर्मकृत् यह पद है? उस पासमें ही कहे हुए श्लोकके अर्थका अर्थात् एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकमें कहे हुए अर्थका ( अर्जुन ) निर्देश करता है। इस प्रकार निरन्तरतासे उपर्युक्त साधनोंमें अर्थात् भगवदर्थ कर्म करने आदिमें दत्तचित्त हुए -- लगे हुए जो भक्त? अनन्य भावसे शरण होकर पूर्वदर्शित विश्वरूपधारी आप परमेश्वरकी उपासना करते हैं -- उसीका ध्यान किया करते हैं। तथा दूसरे जो समस्त वासनाओंका त्याग करनेवाले? सर्वकर्मसंन्यासी ( ज्ञानीजन ) उपर्युक्त विशेषणोंसे युक्त परम अक्षर? जो समस्त उपाधियोंसे रहित होनेके कारण अव्यक्त है? ऐसे इन्द्रियादि करणोंसे अतीत ब्रह्मकी उपासना किया करते हैं। संसारमें जो इन्द्रियादि करणोंसे जाननेमें आनेवाला पदार्थ है वह व्यक्त कहा जाता है क्योंकि अञ्ज धातुका अर्थ इन्द्रियगोचर होना ही है और यह अक्षर उससे विपरीत अकरणगोचर हैं एवं महापुरुषोंद्वारा कहे हुए विशेषणोंसे युक्त हैं? ऐसे ब्रह्मकी जो उपासना करते हैं। उन दोनोंमें श्रेष्ठतर योगवेत्ता कौन हैं अर्थात् अधिकतासे योग जाननेवाले कौन हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।12.1।। --,एवम् इति अतीतानन्तरश्लोकेन उक्तम् अर्थं परामृशति मत्कर्मकृत् इत्यादिना। एवं सततयुक्ताः? नैरन्तर्येण भगवत्कर्मादौ यथोक्ते अर्थे समाहिताः सन्तः प्रवृत्ता इत्यर्थः। ये भक्ताः अनन्यशरणाः सन्तः त्वां यथादर्शितं विश्वरूपं पर्युपासते ध्यायन्ति ये चान्येऽपि त्यक्तसर्वैषणाः संन्यस्तसर्वकर्माणः यथाविशेषितं ब्रह्म अक्षरं निरस्तसर्वोपाधित्वात् अव्यक्तम् अकरणगोचरम्। यत् हि करणगोचरं तत् व्यक्तम् उच्यते? अञ्जेः धातोः तत्कर्मकत्वात् इदं तु अक्षरं तद्विपरीतम्? शिष्टैश्च उच्यमानैः विशेषणैः विशिष्टम्? तत् ये चापि पर्युपासते? तेषाम् उभयेषां मध्ये के योगवित्तमाः के अतिशयेन योगविदः इत्यर्थः।।श्रीभगवान् उवाच -- ये तु अक्षरोपासकाः सम्यग्दर्शिनः निवृत्तैषणाः? ते तावत् तिष्ठन्तु तान् प्रति यत् वक्तव्यम्? तत् उपरिष्टात् वक्ष्यामः। ये तु इतरे --,श्रीभगवानुवाच --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.1।।जो भक्त इस प्रकार निरन्तर आपमें लगे रहकर आप-(सगुण भगवान्-) की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निराकारकी ही उपासना करते हैं, उनमेंसे उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.1।। अर्जुन ने कहा -- जो भक्त, सतत युक्त होकर इस (पूर्वोक्त) प्रकार से आपकी उपासना करते हैं और जो भक्त अक्षर, और अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन उत्तम योगवित् है।।