श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।12.4।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।12.4।।तथा जो इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार संयम करके -- उन्हें विषयोंसे रोककर? सर्वत्र -- सब समय समबुद्धिवाले होते हैं अर्थात् इष्ट और अनिष्टकी प्राप्तिमें जिनकी बुद्धि समान रहती है? ऐसे वे समस्त भूतोंके हितमें तत्पर अक्षरोपासक मुझे ही प्राप्त करते हैं। उन अक्षरउपासकोंके सम्बन्धमें वे मुझे प्राप्त होते हैं इस विषयमें तो कहना ही क्या है क्योंकि ज्ञानीको तो मैं अपना आत्मा ही समझता हूँ यह पहले ही कहा जा चुका है। जो भगवत्स्वरूप ही हैं उन संतजनोंके विषयमें युक्ततम या अयुक्ततम कुछ भी कहना नहीं बन सकता।

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Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।12.4।। -- संनियम्य सम्यक् नियम्य उपसंहृत्य इन्द्रियग्रामम् इन्द्रियसमुदायं सर्वत्र सर्वस्मिन् काले समबुद्धयः समा तुल्या बुद्धिः येषाम् इष्टानिष्टप्राप्तौ ते समबुद्धयः। ते ये एवंविधाः ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः। न तु तेषां वक्तव्यं किञ्चित् मां ते प्राप्नुवन्ति इति ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् (गीता 7।18) इति हि उक्तम्। न हि भगवत्स्वरूपाणां सतां युक्ततमत्वमयुक्ततमत्वं वा वाच्यम्।।किं तु --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.4।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.4।। इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।।