श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।12.3।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।12.3।।तो क्या दूसरे युक्ततम नहीं हैं यह बात नहीं? किंतु उनके विषयमें जो कुछ कहना है सो सुन --, परंतु जो पुरुष उस अक्षरकीजो कि अव्यक्त होनेके कारण शब्दका विषय न होनेसे किसी प्रकार भी बतलाया नहीं जा सकता इसलिये अनिर्देश्य है और किसी भी प्रमाणसे प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता इसलिये अव्यक्त है -- सब प्रकारसे उपासना करते हैं। उपास्य वस्तुको शास्त्रोक्त विधिसे बुद्धिका विषय बनाकर उसके समीप पहुँचकर तैलधाराके तुल्य समान वृत्तियोंके प्रवाहसे जो दीर्घकालतक उसमें स्थित रहना है? उसको उपासना कहते हैं -- उस अक्षरके विशेषण बतलाते हैं -- वह आकाशके समान सर्वव्यापक है और अव्यक्त होनेसे अचिन्त्य है क्योंकि जो वस्तु इन्द्रियादि करणोंसे जाननेमें आती है उसीका मनसे भी चिन्तन किया जा सकता है। परंतु अक्षर उससे विपरीत होनेके कारण अचिन्त्य और कूटस्थ है। जो वस्तु ऊपरसे गुणयुक्त प्रतीत होती हो और भीतर दोषोंसे भरी हो उसका नाम कूट है। संसारमें भी कूटरूप कूटसाक्ष्य इत्यादि प्रयोगोंमें कूट शब्द ( इसी अर्थमें ) प्रसिद्ध है। वैसे ही जो अविद्यादि अनेक संसारोंकी बीजभूत अन्तर्दोषोंसे युक्त प्रकृति मायाअव्याकृत आदि शब्दोंद्वारा कही जाती है एवं प्रकृतिको तो माया और महेश्वरको मायापति समझना चाहिये मेरी माया दुस्तर है इत्यादि श्रुतिस्मृतिके वचनोंमें जो माया नामसे प्रसिद्ध है? उसका नाम कूट है। उस कूट ( नामक माया ) में जो उसका अधिष्ठातारूपसे स्थित हो रहा हो उसका नाम कूटस्थ है। अथवा राशि -- ढेरकी भाँति जो ( कुछ भी क्रिया न करता हुआ ) स्थित हो उसका नाम कूटस्थ है। इस प्रकार कूटस्थ होनेके कारण जो अचल है और अचल होनेके कारण ही जो ध्रुव अर्थात् नित्य है ( उस ब्रह्मकी जो लोग उपासना करते हैं )।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।12.3।। -- ये तु अक्षरम् अनिर्देश्यम्? अव्यक्तत्वात् अशब्दगोचर इति न निर्देष्टुं शक्यते? अतः अनिर्देश्यम्? अव्यक्तं न केनापि प्रमाणेन व्यज्यत इत्यव्यक्तं पर्युपासते परि समन्तात् उपासते। उपासनं नाम यथाशास्त्रम् उपास्यस्य अर्थस्य विषयीकरणेन सामीप्यम् उपगम्य तैलधारावत् समानप्रत्ययप्रवाहेण दीर्घकालं यत् आसनम्? तत् उपासनमाचक्षते। अक्षरस्य विशेषणमाह उपास्यस्य -- सर्वत्रगं व्योमवत् व्यापि अचिन्त्यं च अव्यक्तत्वादचिन्त्यम्। यद्धि करणगोचरम्? तत् मनसापि चिन्त्यम्? तद्विपरीतत्वात् अचिन्त्यम् अक्षरम्? कूटस्थं दृश्यमानगुणम् अन्तर्दोषं वस्तु कूटम्। कूटरूपम् कूटसाक्ष्यम् इत्यादौ कूटशब्दः प्रसिद्धः लोके। तथा च अविद्याद्यनेकसंसारबीजम् अन्तर्दोषवत् मायाव्याकृतादिशब्दवाच्यतया मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् (श्वे0 उ0 4।10) मम माया दुरत्यया (गीता 7।14) इत्यादौ प्रसिद्धं यत् तत् कूटम्? तस्मिन् कूटे स्थितं कूटस्थं तदध्यक्षतया। अथवा? राशिरिव स्थितं कूटस्थम्। अत एव अचलम्। यस्मात् अचलम्? तस्मात् ध्रुवम्? नित्यमित्यर्थः।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.3।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.3।। परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं।।