श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।17.27।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।17.27।।जो यज्ञकर्ममें स्थिति है? जो तपमें स्थिति है और जो दानमें स्थिति है? वह भी सत् है ऐसा विद्वानोंद्वारा कहा जाता है। तथा उन यज्ञादिके लिये जो कर्म है अथवा जिसके तीन नामोंका प्रकरण चल रहा है? उस ईश्वरके लिये जो कर्म है? वह भी सत् है यही कहा जाता है। इस प्रकार किये हुए यज्ञ और तप आदि कर्म? यदि असात्त्विक और विगुण हों तो भी श्रद्धापूर्वक परमात्माके तीनों नामोंके प्रयोगसे सगुण और सात्त्विक बना लिये जाते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।17.27।। --,यज्ञे यज्ञकर्मणि या स्थितिः? तपसि च या स्थितिः? दाने च या स्थितिः? सा सत् इति च उच्यते विद्वद्भिः। कर्म च एव तदर्थीयं यज्ञदानतपोऽर्थीयम् अथवा? यस्य अभिधानत्रयं प्रकृतं तदर्थीयं यज्ञदानतपोऽर्थीयम् ईश्वरार्थीयम् इत्येतत् सत् इत्येव अभिधीयते। तत् एतत् यज्ञदानतपआदि कर्म असात्त्विकं विगुणमपि श्रद्धापूर्वकं ब्रह्मणः अभिधानत्रयप्रयोगेण सगुणं सात्त्विकं संपादितं भवति।।तत्र च सर्वत्र श्रद्धाप्रधानतया सर्वं संपाद्यते यस्मात्? तस्मात् --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।17.27।।यज्ञ, तप और दानरूप क्रियामें जो स्थिति (निष्ठा) है, वह भी 'सत्' -- ऐसे कही जाती है और उस परमात्माके निमित्त किया जानेवाला कर्म भी 'सत्' -- ऐसा ही कहा जाता है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।17.27।। यज्ञ, तप और दान में दृढ़ स्थिति भी सत् कही जाती है, और उस (परमात्मा) के लिए किया गया कर्म भी सत् ही कहलाता है।।