श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।17.28।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।17.28।।क्योंकि सभी जगह श्रद्धाकी प्रधानतासे ही सब कुछ किया जाता है? इसलिये --, बिना श्रद्धाके किया हुआ हवन? बिना श्रद्धाके ब्राह्मणोंको दिया हुआ दान? तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ बिना श्रद्धाके किया हुआ स्तुति -- नमस्कारादि कर्म है वह सब? हे पार्थ मेरी प्राप्तिके साधनमार्गसे बाह्य होनेके कारण असत् है? ऐसा कहा जाता है। क्योंकि वह बहुत परिश्रमयुक्त होनेपर भी साधु पुरुषोंद्वारा निन्दित होनेके कारण न तो मरनेके पश्चात् फल देनेवाला होता है और न इस लोकमें ही सुखदायक होता है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।17.28।। --,अश्रद्धया हुतं हवनं कृतम्? अश्रद्धया दत्तं ब्राह्मणेभ्यः? अश्रद्धया तपः तप्तम् अनुष्ठितम्? तथा अश्रद्धयैव कृतं यत् स्तुतिनमस्कारादि? तत् सर्वम् असत् इति उच्यते? मत्प्राप्तिसाधनमार्गबाह्यत्वात् पार्थ। न च तत् बहुलायासमपि प्रेत्य फलाय नो अपि इहार्थम्? साधुभिः निन्दितत्वात् इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये

सप्तदशोऽध्यायः।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।17.28।।हे पार्थ ! अश्रद्धासे किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो,कुछ किया जाय, वह सब 'असत्' -- ऐसा कहा जाता है। उसका फल न यहाँ होता है, न मरनेके बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।17.28।। हे पार्थ ! जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न इस लोक में (इह) और न मरण के पश्चात् (उस लोक में) लाभदायक होता है।।