श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।18.36।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।18.36।।गुणभेदके अनुसार क्रियाओं और कारकोंके तीनतीन प्रकारके भेद कहे अब फलस्वरूप सुखके तीन तरहके भेद कहे जाते हैं --, हे भरतर्षभ अब तू मुझसे तीन तरहके सुखको भी सुन? अर्थात् सुननेके लिये चित्तको समाहित कर। जिस सुखमें मनुष्य अभ्याससे रमता है अर्थात् जिस सुखके अनुभवमें बारम्बार आवृत्ति करनेसे मनुष्यका प्रेम हुआ करता है और जहाँ मनुष्य ( अपने ) दुःखोंका अन्त पाता है अर्थात् जहाँ उसके सारे दुःखोंकी निःसन्देह निवृत्ति हो जाया करती है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।18.36।। --,सुखं तु इदानीं त्रिविधं शृणु? समाधानं कुरु इत्येतत्? मे मम भरतर्षभ। अभ्यासात् परिचयात् आवृत्तेः रमते रतिं प्रतिपद्यते यत्र यस्मिन् सुखानुभवे दुःखान्तं च दुःखावसानं दुःखोपशमं च निगच्छति निश्चयेन प्राप्नोति।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।18.36।।हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! अब तीन प्रकारके सुखको भी तुम मेरेसे सुनो। जिसमें अभ्याससे रमण होता है और जिससे दुःखोंका अन्त हो जाता है, ऐसा वह परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे पैदा होनेवाला जो सुख (सांसारिक आसक्तिके कारण) आरम्भमें विषकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।18.36।। हे भरतश्रेष्ठ ! अब तुम त्रिविध सुख को मुझसे सुनो, जिसमें (साधक पुरुष) अभ्यास से रमता है और दु:खों के अन्त को प्राप्त होता है (जहाँ उसके दु:खों का अन्त हो जाता है।)।।