श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।18.47।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।18.47।।ऐसा होनेके कारण --, अपना गुणरहित भी धर्म? दूसरेके भली प्रकार अनुष्ठान किये हुए धर्मसे श्रेष्ठतर है। जैसे विषमें उत्पन्न हुए कीड़ेके लिये विष दोषकारक नहीं होता? उसी प्रकार स्वभावसे नियत किये हुए कर्मोंको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता। जो बात पहले स्वभावजम् इस पदसे कही थी? वही यहाँ स्वभावनियतम् इस पदसे कही गयी है। स्वभावसे नियत कर्मका नाम स्वभावनियत है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।18.47।। --,श्रेयान् प्रशस्यतरः स्वो धर्मः स्वधर्मः? विगुणोऽपि इति अपिशब्दो द्रष्टव्यः? परधर्मात्। स्वभावनियतं स्वभावेन नियतम्? यदुक्तं स्वभावजमिति? तदेवोक्तं स्वभावनियतम् इति यथा विषजातस्य कृमेः विषं न दोषकरम्? तथा स्वभावनियतं कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषं पापम्।।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वाणो विषजः इव कृमिः किल्बिषं न आप्नोतीति उक्तम् परधर्मश्च भयावहः इति? अनात्मज्ञश्च न हि कश्चित्क्षणमपि अकर्मकृत्तिष्ठति (गीता 3।5) इति। अतः --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।18.47।।अच्छी तरहसे अनुष्ठान किये हुए परधर्मसे गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है। कारण कि स्वभावसे नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।18.47।। सम्यक् अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है। (क्योंकि) स्वभाव से नियत किये गये कर्म को करते हुए मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता।।