श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।18.48।।उपर्युक्त श्लोकमें यह बात कही कि स्वभावनियत कर्मोंको करनेवाला मनुष्य? विषमें जन्मे हुए कीड़ेकी भाँति पापको प्राप्त नहीं होता? तथा ( तीसरे अध्यायमें ) यह भी कहा है कि दूसरेका धर्म भयावह है और कोई भी अज्ञानी बिना कर्म किये क्षणभर भी नहीं रह सकता। इसलिये --, जो जन्मके साथ उत्पन्न हो उसका नाम सहज है। वह क्या है कर्म। हे कौन्तेय त्रिगुणमय होनेके कारण जो दोषयुक्त है? ऐसे दोषयुक्त भी अपने सहजकर्मको नहीं छोड़ना चाहिये। क्योंकि सभी आरम्भजो आरम्भ किये जाते हैं उनका नाम आरम्भ है? अतः यहाँ प्रकरणके अनुसार सर्वारम्भका तात्पर्य समस्त कर्म है। सा स्वधर्म या परधर्मरूप जो कुछ भी कर्म है? वे सभी तीनों गुणोंके कार्य हैं। अतः त्रिगुणात्मक होनेके कारण? साथ जन्मे हुए धुएँसे अग्निकी भाँति दोषसे आवृत हैं। अभिप्राय यह है कि स्वधर्म नामक सहजकर्मका परित्याग करनेसे और परधर्मका ग्रहण करनेसे भी? दोषसे छुटकारा नहीं हो सकता और परधर्म भयावह भी है तथा अज्ञानीद्वारा सम्पूर्ण कर्मोंका पूर्णतया त्याग होना सम्भव भी नहीं है सुतरां सहजकर्मको नहीं छोड़ना चाहिये। ( यहाँ यह विचार करना चाहिये कि ) क्या कर्मोंका अशेषतः त्याग होना असम्भव है? इसलिये उनका त्याग नहीं करना चाहिये? अथवा सहज कर्मका त्याग करनेमें दोष है इसलिये पू0 -- इसमें क्या सिद्ध होगा उ0 -- यदि यह बात हो कि अशेषतः त्याग होना अशक्य है? इसलिये सहजकर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये? तब तो यही सिद्ध होगा कि कर्मोंका अशेषतः त्याग करनेमें गुण ही है। पू0 -- यह ठीक है? परंतु यदि कर्मोंका पूर्णतया त्याग हो ही नहीं सकता ( तो फिर गुणदोषकी बात ही क्या है ) उ0 -- तो क्या सांख्यवादियोंके गुणोंकी भाँति आत्मा सदा चलनस्वभाववाला है अथवा बौद्धमतावलम्बियोंके प्रतिक्षणमें नष्ट होनेवाले ( रूप? वेदना? विज्ञान? संज्ञा और संस्काररूप ) पञ्च स्कन्धोंकी भाँति क्रिया ही कारक है इन दोनों ही प्रकारोंसे कर्मोंका अशेषतः त्याग नहीं हो सकता। हाँ? तीसरा एक पक्ष और भी है कि जब आत्मा कर्म करता है तब तो वह सक्रिय होता है और जब कर्म नहीं करता? तब वही निष्क्रिय होता है? ऐसा मान लेनेसे कर्मोंका अशेषतः त्याग भी हो सकता है। इस तीसरे पक्षमें यह विशेषता है? कि न तो आत्मा नित्य चलनस्वभाववाला माना गया है? और न क्रियाको ही कारक माना गया है? तो फिर क्या है? कि अपने स्वरूपमें स्थित द्रव्यमें ही अविद्यमान क्रिया उत्पन्न हो जाती है और विद्यमान क्रियाका नाश हो जाता है शुद्ध द्रव्य? क्रियाकी शक्तिसे युक्त होकर स्थित रहता है और वही कारक है। इस प्रकार वैशेषिकमतावलम्बी कहते हैं। पू0 -- इस पक्षमें क्या दोष है उ0 -- इसमें प्रधान दोष तो यही है कि यह मत भगवान्को मान्य नहीं है। पू0 -- यह कैसे जाना जाता है। उ0 -- इसीलिये कि भगवान् तो असत् वस्तुका कभी भाव नहीं होता इत्यादि वचन कहते हैं और वैशेषिकमतवादी असत्का भाव और सत्का अभाव मानते हैं। पू0 -- भगवान्का मत न होनेपर भी यदि न्याययुक्त हो तो इसमें क्या दोष है उ0 -- बतलाते हैं ( सुनो ) सब प्रमाणोंसे इस मतका विरोध होनेके कारण भी यह मत दोषयुक्त है। पू0 -- किस प्रकार उ0 -- यदि यह माना जाय कि द्व्यणुक आदि द्रव्य उत्पत्तिसे पहले अत्यन्त असत् हुए ही उत्पन्न हो जाते हैं और किञ्चित् काल स्थित रहकर फिर अत्यन्त ही असत् भावको प्राप्त हो जाते हैं? तब तो यही मानना हुआ कि असत् ही सत् हो जाता है अर्थात् अभाव भाव हो जाता है और भाव अभाव हो जाता है। अर्थात् ( यह मानना हुआ कि ) उत्पन्न होनेवाला अभाव? उत्पत्तिसे पहले शश -- श्रृङ्गकी भाँति सर्वथा असत् होता हुआ ही? समवायि? असमवायि और निमित्त नामक तीन कारणोंकी सहायतासे उत्पन्न होता है। परंतु अभाव इस प्रकार उत्पन्न होता है अथवा कारणकी अपेक्षा रखता है -- यह कहना नहीं बनता क्योंकि खरगोशके सींग आदि असत् वस्तुओंमें ऐसा नहीं देखा जाता। हाँ? यदि यह माना जाय कि उत्पन्न होनेवाले घटादि भावरूप हैं और वे अभिव्यक्तिके किसी कारणकी सहायतासे उत्पन्न होते हैं? तो यह माना जा सकता है। तथा असत्का सत् और सत्का असत् होना मान लेनेपर तो किसीका प्रमाणप्रमेयव्यवहारमें कहीं विश्वास ही नहीं रहेगा क्योंकि ऐसा मान लेनेसे फिर यह निश्चय नहीं होगा कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है। इसके सिवा वे उत्पन्न होता है इस वाक्यसे द्व्यणुक आदि द्रव्यका अपने कारण और सत्तासे सम्बन्ध होना बतलाते हैं अर्थात् उत्पत्तिसे पहले कार्य असत् होता है? फिर अपने कारणके व्यापारकी अपेक्षासे,( सहायतासे ) अपने कारणरूप परमाणुओंसे और सत्तासे समवायरूप सम्बन्धके द्वारा संगठित हो जाता है और संगठित होकर कारणसे मिलकर सत् हो जाता है। इसपर उनको बतलाना चाहिये कि असत्का कारण सत् कैसे हो सकता है और असत्का किसीके साथ सम्बन्ध भी कैसे हो सकता है क्योंकि वन्ध्यापुत्रकी सत्ता? उसका किसी सत् पदार्थके साथ सम्बन्ध अथवा उसका कारण? किसीके भी द्वारा प्रमाणपूर्वक सिद्ध नहीं किया जा सकता। पू0 -- वैशेषिकमतवादी अभावका सम्बन्ध नहीं मानते। वे तो भावरूप द्व्यणुक आदि द्रव्योंका ही अपने कारणके साथ समवायरूप सम्बन्ध बतलाते हैं। उ0 -- यह बात नहीं है क्योंकि ( उनके मतमें ) कार्यकारणका सम्बन्ध होनेसे पहले कार्यकी सत्ता नहीं मानी गयी। अर्थात् वैशेषिकमतावलम्बी कुम्हार और दण्डचक्र आदिकी क्रिया आरम्भ होनेसे पहले घट आदिका अस्तित्व नहीं मानते और यह भी नहीं मानते कि मिट्टीको ही घटादिके आकारकी प्राप्ति हुई है। इसलिये अन्तमें असत्का ही सम्बन्ध मानना सिद्ध होता है। पू0 -- असत्का भी समवायरूप सम्बन्ध होना विरुद्ध नहीं है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि वन्ध्यापुत्र आदिका किसीके साथ सम्बन्ध नहीं देखा जाता। अभावकी समानता होनेपर भी यदि कहो कि घटादिके प्रागभावका ही अपने कारणके साथ सम्बन्ध होता है? वन्ध्यापुत्रादिके अभावका नहीं? तो इनके अभावोंका भेद बतलाना चाहिये। एकका अभाव? दोका अभाव? सबका अभाव? प्रागभाव? प्रध्वंसाभाव? अन्योन्याभाव? अत्यन्ताभाव इन लक्षणोंसे कोई भी अभावकी विशेषता नहीं दिखला सकता। फिर किसी प्रकारकी विशेषता न होते हुए भी यह कहना कि घटका प्रागभाव ही कुम्हार आदिके द्वारा घटभावको प्राप्त होता है तथा उसका कपालनामक अपने कारणरूप भावसे सम्बन्ध होता है और वह सब व्यवहारके योग्य भी होता है। परंतु उसी घटका जो प्रध्वंसाभाव है? वह अभावत्वमें समान होनेपर भी सम्बन्धित नहीं होता। इस तरह प्रध्वंसादि अभावोंको किसी भी अवस्थामें व्यवहारके योग्य न मानना और केवल द्व्यणुक आदि द्रव्यनामक प्रागभावको ही उत्पत्ति आदि व्यवहारके योग्य मानना? असमञ्जसरूप ही है क्योंकि अत्यन्ताभाव और प्रध्वंसाभावके समान ही प्रागभावका भी अभावत्व है? उसमें कोई विशेषता नहीं है। पू0 -- हमने प्रागभावका भावरूप होना नहीं बतलाया है। उ0 -- तब तो तुमने भावका ही भावरूप हो जाना कहा है? जैसे घटका घटरूप हो जाना वस्त्रका वस्त्ररूप हो जाना परंतु यह भी अभावके भावरूप होनेकी भाँति ही प्रमाणविरुद्ध है। सांख्यमतावलम्बियोंका जो परिणामवाद है? उसमें अपूर्व धर्मकी उत्पत्ति और विनाश स्वीकार किया जानेके कारण? वह भी ( इस विषयमें ) वैशेषिकमतसे कुछ विशेषता नहीं रखता। अभिव्यक्ति ( प्रकट होना ) और तिरोभाव ( छिप जाना ) स्वीकार करनेसे भी? अभिव्यक्ति और तिरोभावकी विद्यमानता और अविद्यमानताका निरूपण करनेमें? पहलेकी भाँति ही प्रमाणसे विरोध होगा। इस विवेचनसे कारणका कार्यरूपमें स्थित होना ही उत्पत्ति आदि हैं ऐसा निरूपण करनेवाले मतका भी खण्डन हो जाता है। इन सब मतोंका खण्डन हो जानेपर अन्तमें यही सिद्ध होता है कि एक ही सत्य तत्त्व ( आत्मा ) अविद्याद्वारा नटकी भाँति उत्पत्ति? विनाश आदि धर्मोंसे अनेक रूपमें कल्पित होता है। यही भगवान्का अभिप्राय नासतो विद्यते भावः इस श्लोकमें बतलाया गया है क्योंकि सत्प्रत्ययका व्यभिचार नहीं होता और अन्य ( असत् ) प्रत्ययोंका व्यभिचार होता है ( अतः सत् ही एकमात्र तत्त्व है )। पू0 -- यदि ( भगवान्के मतमें ) आत्मा निर्विकार है तो ( वे ) यह कैसे कहते हैं कि अशेषतः कर्मोंका त्याग नहीं हो सकता उ0 -- शरीरइन्द्रियादिरूप गुण चाहे सत्य वस्तु हों? चाहे अविद्याकल्पित हों? जब कर्म उन्हींका धर्म है? तब आत्मामें तो वह अविद्याध्यारोपित ही है। इस कारण कोई भी अज्ञानी अशेषतः कर्मोंका त्याग क्षणभर भी नहीं कर सकता यह कहा गया है। परंतु विद्याद्वारा अविद्या निवृत्त हो जानेपर ज्ञानी तो कर्मोंका अशेषतः त्याग कर ही सकता है क्योंकि अविद्या नष्ट होनेके उपरान्त? अविद्यासे अध्यारोपित वस्तुका अंश बाकी नहीं रह सकता। ( यह प्रत्यक्ष ही है कि ) तिमिररोगसे विकृत हुई दृष्टिद्वारा अध्यारोपित दो चन्द्रमा आदिका कुछ भी अंश? तिमिररोग नष्ट हो जानेपर? शेष नहीं रहता। सुतरां सब कर्मोंको मनसे छोड़कर इत्यादि कथन ठीक ही हैं। तथा अपनेअपने कर्मोंमें लगे हुए मनुष्य संसिद्धिको प्राप्त होते हैं मनुष्य अपने कर्मोंसे उसकी पूजा करके सिद्धि प्राप्त करता है -- ये कथन भी ठीक हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।18.48।। --,सहजं सह जन्मनैव उत्पन्नम्। किं तत् कर्म कौन्तेय सदोषमपि त्रिगुणात्मकत्वात् न त्यजेत्। सर्वारम्भाः आरभ्यन्त इति आरम्भाः? सर्वकर्माणि इत्येतत् प्रकरणात् ये केचित् आरम्भाः स्वधर्माः परधर्माश्च? ते सर्वे हि यस्मात् -- त्रिगुणात्मकत्वम् अत्र हेतुः -- त्रिगुणात्मकत्वात् दोषेण धूमेन सहजेन अग्निरिव? आवृताः। सहजस्य कर्मणः स्वधर्माख्यस्य परित्यागेन परधर्मानुष्ठानेऽपि दोषात् नैव मुच्यते भयावहश्च परधर्मः। न च शक्यते अशेषतः त्यक्तुम् अज्ञेन कर्म यतः? तस्मात् न त्यजेत् इत्यर्थः।।किम् अशेषतः त्यक्तुम् अशक्यं कर्म इति न त्यजेत् किं वा सहजस्य कर्मणः त्यागे दोषो भवतीति किं च अतः यदि तावत् अशेषतः त्यक्तुम् अशक्यम् इति न त्याज्यं सहजं कर्म? एवं तर्हि अशेषतः त्यागे गुण एव स्यादिति सिद्धं भवति। सत्यम् एवम् अशेषतः त्याग एव न उपपद्यते इति चेत्? किं नित्यप्रचलितात्मकः पुरुषः? यथा सांख्यानां गुणाः किं वा क्रियैव कारकम्? यथा बौद्धानां स्कन्धाः क्षणप्रध्वंसिनः उभयथापि कर्मणः अशेषतः त्यागः न संभवति। अथ तृतीयोऽपि पक्षः -- यदा करोति तदा सक्रियं वस्तु। यदा न करोति? तदा निष्क्रियं तदेव। तत्र एवं सति शक्यं कर्म अशेषतः त्यक्तुम्। अयं तु अस्मिन् तृतीये पक्षे विशेषः -- न नित्यप्रचलितं वस्तु? नापि क्रियैव कारकम्। किं तर्हि व्यवस्थिते द्रव्ये अविद्यमाना क्रिया उत्पद्यते? विद्यमाना च विनश्यति। शुद्धं तत् द्रव्यं शक्तिमत् अवतिष्ठते। इति एवम् आहुः काणादाः। तदेव च कारकम् इति। अस्मिन् पक्षे को दोषः इति। अयमेव तु दोषः -- यतस्तु अभागवतं मतम् इदम्। कथं ज्ञायते यतः आह भगवान् नासतो विद्यते भावः (गीता 2।16) इत्यादि। काणादानां हि असतः भावः? सतश्च अभावः? इति इदं मतम् अभागवतम्। अभागवतमपि न्यायवच्चेत् को दोषः इति चेत्? उच्यते -- दोषवत्तु इदम्? सर्वप्रमाणविरोधात्। कथम् यदि तावत् द्व्यणुकादि द्रव्यं प्राक् उत्पत्तेः अत्यन्तमेव असत्? उत्पन्नं च स्थितं कञ्चित् कालं पुनः अत्यन्तमेव असत्त्वम् आपद्यते? तथा च सति असदेव सत् जायते? सदेव असत्त्वम्? आपद्यते? अभावः भावो भवति? भावश्च अभावो भवति तत्र अभावः जायमानः प्राक् उत्पत्तेः शशविषाणकल्पः समवाय्यसमवायिनिमित्ताख्यं कारणम् अपेक्ष्य जायते इति। न च एवम्? अभावः उत्पद्यते? कारणं च अपेक्षते इति शक्यं वक्तुम्? असतां शशविषाणादीनाम् अदर्शनात्। भावात्मकाश्चेत् घटादयः उत्पद्यमानाः? किञ्चित् अभिव्यक्तिमात्रेकारणम् अपेक्ष्य उत्पद्यन्ते इति शक्यं प्रतिपत्तुम्। किं च? असतश्च सतश्च सद्भावे असद्भावे न क्वचित् प्रमाणप्रमेयव्यवहारेषु विश्वासः कस्यचित् स्यात्? सत् सदेव असत् असदेव इति निश्चयानुपपत्तेः। किं च? उत्पद्यते इति द्व्यणुकादेः द्रव्यस्य स्वकारणसत्तासंबन्धम् आहुः। प्राक् उत्पत्तेश्च असत्? पश्चात् कारणव्यापारम् अपेक्ष्य स्वकारणैः परमाणुभिः सत्तया च समवायलक्षणेन संबन्धेन संबध्यते। संबद्धं सत् कारणसमवेतं सत् भवति। तत्र वक्तव्यं कथम् असतः स्वं कारणं भवेत् संबन्धो वा केनचित् स्यात् न हि वन्ध्यापुत्रस्य स्वं कारणं संबन्धो वा केनचित् प्रमाणतः कल्पयितुं शक्यते।।ननु नैवं वैशेषिकैः अभावस्य संबन्धः कल्प्यते। द्व्यणुकादीनां हि द्रव्याणां स्वकारणसमवायलक्षणः संबन्धः सतामेव उच्यते इति। न संबन्धात् प्राक् सत्त्वानभ्युपगमात्। न हि वैशेषिकैः कुलालदण्डचक्रादिव्यापारात् प्राक् घटादीनाम् अस्तित्वम् इष्यते। न च मृद एव घटाद्याकारप्राप्तिम् इच्छन्ति। ततश्च असत एव संबन्धः पारिशेष्यात् इष्टो भवति।।ननु असतोऽपि समवायलक्षणः संबन्धः न विरुद्धः। न वन्ध्यापुत्रादीनाम् अदर्शनात्। घटादेरेव प्रागभावस्य स्वकारणसंबन्धो भवति न वन्ध्यापुत्रादेः? अभावस्य तुल्यत्वेऽपि इति विशेषः अभावस्य वक्तव्यः। एकस्य अभावः? द्वयोः अभावः? सर्वस्य अभावः? प्रागभावः? प्रध्वंसाभावः? इतरेतराभावः? अत्यन्ताभावः इति लक्षणतो न केनचित् विशेषो दर्शयितुं शक्यः। असति च विशेषे घटस्य प्रागभावः एव कुलालदिभिः घटभावम् आपद्यते संबध्यते च भावेन कपालाख्येन? संबद्धश्च सर्वव्यवहारयोग्यश्च भवति? न तु घटस्यैव प्रध्वंसाभावः अभावत्वे सत्यपि? इति प्रध्वंसाद्यभावानां न क्वचित् व्यवहारयोग्यत्वम्? प्रागभावस्यैव द्व्यणुकादिद्रव्याख्यस्य उत्पत्त्यादिव्यवहारार्हत्वम्? इत्येतत् असमञ्जसम् अभावत्वाविशेषात् अत्यन्तप्रध्वंसाभावयोरिव।।ननु नैव अस्माभिः प्रागभावस्य भावापत्तिः उच्यते। भावस्यैव तर्हि भावापत्तिः यथा घटस्य घटापत्तिः? पटस्य वा पटापत्तिः। एतदपि अभावस्य भावापत्तिवदेव प्रमाणविरुद्धम्। सांख्यस्यापि यः परिणामपक्षः सोऽपि अपूर्वधर्मोत्पत्तिविनाशाङ्गीकरणात् वैशेषिकपक्षात् न विशिष्यते। अभिव्यक्तितिरोभावाङ्गीकरणेऽपि अभिव्यक्तितिरोभावयोः विद्यमानत्वाविद्यमानत्वनिरूपणे पूर्ववदेव प्रमाणविरोधः। एतेन कारणस्यैव संस्थानम् उत्पत्त्यादि इत्येतदपि प्रत्युक्तम्।।

पारिशेष्यात् सत् एकमेव वस्तु अविद्यया उत्पत्तिविनाशादिधर्मैः अनेकधा नटवत् विकल्प्यते इति। इदं भागवतं मतम् उक्तम् नासतो विद्यते भावः (गीता 3।16) इत्यस्मिन् श्लोके? सत्प्रत्ययस्य अव्यभिचारात्? व्यभिचाराच्च इतरेषामिति।।

कथं तर्हि आत्मनः अविक्रियत्वे अशेषतः कर्मणः त्यागः न उपपद्यते इति यदि वस्तुभूताः गुणाः? यदि वा अविद्याकल्पिताः? तद्धर्मः कर्म? तदा आत्मनि अविद्याध्यारोपितमेव इति अविद्वान् न हि कश्चित् क्षणमपि अशेषतः त्यक्तुं शक्नोति इति उक्तम्। विद्वांस्तु पुनः विद्यया अविद्यायां निवृत्तायां शक्नोत्येव अशेषतः कर्म परित्यक्तुम्? अविद्याध्यारोपितस्य शेषानुपपत्तेः। न हि तैमिरिकदृष्ट्या अध्यारोपितस्य द्विचन्द्रादेः तिमिरापगमेऽपि शेषः अवतिष्ठते। एवं च सति इदं वचनम् उपपन्नम् सर्वकर्माणि मनसा (गीता 5।13) इत्यादि? स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः (गीता 18।45) स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता 18।46) इति च।।या कर्मजा सिद्धिः उक्ता ज्ञाननिष्ठायोग्यतालक्षणा? तस्याः फलभूता नैष्कर्म्यसिद्धिः ज्ञाननिष्ठालक्षणा च वक्तव्येति श्लोकः आरभ्यते --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।18.48।।हे कुन्तीनन्दन ! दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँसे अग्निकी तरह किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।18.48।। हे कौन्तेय ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए; क्योंकि सभी कर्म दोष से आवृत होते है, जैसे धुयें से अग्नि।।