विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.59।।विषयोंका ग्रहण न करनेवाले रोगी मनुष्यकी भी इन्द्रियाँ तो विषयोंसे हट जाती हैं यानी कछुएके अङ्गोंकी भाँति संकुचित हो जाती हैं परन्तु विषयसम्बन्धी राग ( आसक्ति ) नष्ट नहीं होता। उसका नाश कैसे होता है सो कहते हैं
यद्यपि विषयोंको ग्रहण न करनेवाले कष्टकर तपमें स्थित देहाभिमानी अज्ञानी पुरुषकी भी विषयशब्दवाच्य इन्द्रियाँ अथवा केवल शब्दादि विषय तो निवृत्त हो जाते हैं परंतु उन विषयोंमें रहनेवाला जो रस अर्थात् आसक्ति है उसको छोड़कर निवृत्त होते हैं अर्थात् उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती।
रस शब्द राग ( आसक्ति ) का वाचक प्रसिद्ध है क्योंकि स्वरसेन प्रवृत्तो रसिको रसज्ञः इत्यादि वाक्य देखे जाते हैं।
वह रागात्मक सूक्ष्म आसक्ति भी इस यतिकी परमार्थतत्त्वरूप ब्रह्मका प्रत्यक्ष दर्शन होनेपर निवृत्त हो जाती है अर्थात् मैं ही वह ब्रह्म हूँ इस प्रकारका भाव दृढ़ हो जानेपर उसका विषयविज्ञान निर्बीज हो जाता है।
अभिप्राय यह कि यथार्थ ज्ञान हुए बिना रागका मूलोच्छेद नहीं होता अतः यथार्थ ज्ञानरूप बुद्धिकी स्थिरता कर लेनी चाहिये।
।।2.59।।
यद्यपि विषयाः विषयोपलक्षितानि विषयशब्दवाच्यानि इन्द्रियाणि निराहारस्य अनाह्रियमाणविषयस्य कष्टे तपसि स्थितस्य मूर्खस्यापि विनिवर्तन्ते देहिनो देहवतः रसवर्जं रसो रागो विषयेषु यः तं वर्जयित्वा। रसशब्दो रागे प्रसिद्धः स्वरसेन प्रवृत्तः रसिकः रसज्ञः इत्यादिदर्शनात्। सोऽपि रसो रञ्जनारूपः सूक्ष्मः अस्य यतेः परं परमार्थतत्त्वं ब्रह्म दृष्ट्वा उपलभ्य अहमेव तत् इति वर्तमानस्य निवर्तते निर्बीजं विषयविज्ञानं संपद्यते इत्यर्थः। न असति सम्यग्दर्शने रसस्य उच्छेदः। तस्मात् सम्यग्दर्शनात्मिकायाः प्रज्ञायाः स्थैर्यं कर्तव्यमित्यभिप्रायः।।
सम्यग्दर्शनलक्षणप्रज्ञास्थैर्यं चिकीर्षता आदौ इन्द्रियाणि स्ववशे स्थापयितव्यानि यस्मात्तदनवस्थापने दोषमाह
।।2.59।। निराहारी (इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले) मनुष्यके भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका तो रस भी परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे निवृत्त हो जाता है।
।।2.59।। निराहारी देही पुरुष से विषय तो निवृत्त (दूर) हो जाते हैं? परन्तु (उनके प्रति) राग नहीं परम तत्व को देखने पर इस (पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है।।