श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2.64।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.64।।विषयोंके चिन्तनको सब अनर्थोंका मूल बतलाया गया। अब यह मोक्षका साधन बतलाया जाता है

आसक्ति और द्वेषको रागद्वेष कहते हैं इन दोनोंको लेकर ही इन्द्रियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हुआ करती है। परंतु जो मुमुक्षु होता है वह स्वाधीन अन्तःकरणवाला अर्थात् जिसका अन्तःकरण इच्छानुसार वशमें है ऐसा पुरुष रोगद्वेषसे रहित और अपने वशमें की हुई श्रोत्रादि इन्द्रियोंद्वारा अनिवार्य विषयोंको ग्रहण करता हुआ प्रसादको प्राप्त होता है। प्रसन्नता और स्वास्थ्यको प्रसाद कहते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.64।।

 रागद्वेषवियुक्तैः  रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषौ तत्पुरःसरा हि इन्द्रियाणां प्रवृत्तिः स्वाभाविकी तत्र यो मुमुक्षुः भवति सः
ताभ्यां वियुक्तैः श्रोत्रादिभिः  इन्द्रियैः विषयान्  अवर्जनीयान्  चरन्  उपलभमानः  आत्मवश्यैः  आत्मनः वश्यानि वशीभूतानि इन्द्रियाणि तैः आत्मवश्यैः  विधेयात्मा  इच्छातः विधेयः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयं  प्रसादम् अधिगच्छति । प्रसादः प्रसन्नता स्वास्थ्यम्।।
प्रसादे सति किं स्यात् इत्युच्यते

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.64 -- 2.65।। वशीभूत अन्तःकरणवाला कर्मयोगी साधक रागद्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.64।। आत्मसंयमी (विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता (प्रस्ेााद) प्राप्त करता है।।