श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4.40।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।4.40।।इस विषयमें संशय नहीं करना चाहिये क्योंकि संशय बड़ा पापी है। कैसे सो कहते हैं जो अज्ञ यानी आत्मज्ञानसे रहित है जो अश्रद्धालु है और जो संशयात्मा है ये तीनों नष्ट हो जाते हैं। यद्यपि अज्ञानी और अश्रद्धालु भी नष्ट होते हैं परंतु जैसा संशयात्मा नष्ट होता है वैसे नहीं क्योंकि इन सबमें संशयात्मा अधिक पापी है। अधिक पापी कैसे है ( सो कहते हैं ) संशयात्माको अर्थात् जिसके चित्तमें संशय है उस पुरुषको न तो यह साधारण मनुष्यलोक मिलता है न परलोक मिलता है और न सुख ही मिलता है क्योंकि वहाँ भी संशय होना सम्भव है इसलिये संशय नहीं करना चाहिये।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।4.40।। अज्ञश्च अनात्मज्ञश्च अश्रद्दधानश्च गुरुवाक्यशास्त्रेषु अविश्वासवांश्च संशयात्मा च संशयचित्तश्च विनश्यति। अज्ञाश्रद्दधानौ यद्यपि विनश्यतः न तथा यथा संशयात्मा। संशयात्मा तु पापिष्ठः सर्वेषाम्। कथम् नायं साधारणोऽपि लोकोऽस्ति। तथा न परः लोकः। न सुखम् तत्रापि संशयोत्पत्तेः संशयात्मनः संशयचित्तस्य। तस्मात् संशयो न कर्तव्यः।।कस्मात्

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।4.40।। विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न यह लोक  है न परलोक है और न सुख ही है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।4.40।। अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है,  (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है,  न परलोक और न सुख।।