श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।9.2।।वह ज्ञान --, अतिशय प्रकाशयुक्त होनेके कारण समस्त विद्याओंका राजा है। ब्रह्मविद्या सब विद्याओंमें अतिशय देदीप्यमान है यह प्रसिद्ध ही है। तथा ( यह ज्ञान ) समस्त गुप्त रखनेयोग्य भावोंका भी राजा है। एवं यह बड़ा पवित्र और उत्तम भी है? अर्थात् सम्पूर्ण पवित्र करनेवालोंको पवित्र करनेवाला यह ब्रह्मज्ञान सबसे उत्कृष्ट है। जो अनेक सहस्र जन्मोंमें इकट्ठे हुए पुण्य पापादि कर्मोंको क्षणमात्रमें मूलसहित भस्म कर देता है उसकी पवित्रताका क्या कहना है साथ ही यह ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभवमें आनेवाला है? अर्थात् सुख आदिकी भाँति जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हो सके? ऐसा है। अनेक गुणोंसे युक्त वस्तुका भी धर्मसे विरोध देखा जाता है? परंतु आत्मज्ञान उनकी तरह धर्मविरोधी नहीं है बल्कि धर्म्य -- धर्ममय है अर्थात् धर्मसे युक्त है। ऐसा पदार्थ भी दुःसम्पाद्य ( प्राप्त करनेमें बड़ा कठिन ) हो सकता है। इसलिये कहते हैं कि वह ज्ञान रत्नोंके विवेकविज्ञानकी भाँति समझनेमें बड़ा सुगम है। परंतु संसारमें अल्प परिश्रमसे सुखपूर्वक सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका अल्प फल और कठिनतासे सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका महान् फल देखा गया है? अतः यह ज्ञान भी सुगमतासे सम्पन्न होनेवाला होनेके कारण अपने फलका क्षय होनेपर क्षीण हो जायगा? ऐसी शङ्का प्राप्त होनेपर कहते हैं -- यह ज्ञान अव्यय है अर्थात् कर्मोंकी भाँति फलनाशके द्वारा इसका नाश नहीं होता। अतः यह आत्मज्ञान श्रद्धा करने योग्य है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।9.2।। --,राजविद्या विद्यानां राजा? दीप्त्यतिशयवत्त्वात् दीप्यते हि इयम् अतिशयेन ब्रह्मविद्या सर्वविद्यानाम्। तथा राजगुह्यं गुह्यानां राजा। पवित्रं पावनं इदम् उत्तमं सर्वेषां पावनानां शुद्धिकारणं ब्रह्मज्ञानम् उत्कृष्टतमम्। अनेकजन्मसहस्रसंचितमपि धर्माधर्मादि समूलं कर्म क्षणमात्रादेव भस्मीकरोति इत्यतः किं तस्य पावनत्वं वक्तव्यम्। किञ्च -- प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षेण सुखादेरिव अवगमो यस्य तत् प्रत्यक्षावगमम्। अनेकगुणवतोऽपि धर्मविरुद्धत्वं दृष्टम्? न तथा आत्मज्ञानं धर्मविरोधि? किंतु धर्म्यं धर्मादनपेतम्। एवमपि? स्याद्दुःखसंपाद्यमित्यत आह -- सुसुखं कर्तुम्? यथा रत्नविवेकविज्ञानम्। तत्र अल्पायासानामन्येषां कर्मणां सुखसंपाद्यानाम् अल्पफलत्वं दुष्कराणां च महाफलत्वं दृष्टमिति? इदं तु सुखसंपाद्यत्वात् फलक्षयात् व्येति इति प्राप्ते? आह -- अव्ययम् इति। न अस्य फलतः कर्मवत् व्ययः अस्तीति अव्ययम्। अतः श्रद्धेयम् आत्मज्ञानम्।।ये पुनः --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।9.2।। यह सम्पूर्ण विद्याओंका और सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र तथा अतिश्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।9.2।। यह ज्ञान राजविद्या (विद्याओं का राजा) और राजगुह्य (सब गुह्यों अर्थात् रहस्यों का राजा) एवं पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष ज्ञानवाला और धर्मयुक्त है, तथा करने में सरल और अव्यय है।।