अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।9.3।।परंतु जो --, इस आत्मज्ञानरूप धर्मकी श्रद्धासे रहित हैं? अर्थात् इसके स्वरूपमें और फलमें आस्तिक भावसे रहित हैं -- नास्तिक हैं वे असुरोंके सिद्धान्तोंका अनुवर्तन करनेवाले देहमात्रको ही आत्मा समझनेवाले एवं पापकर्म करनेवाले इन्द्रियलोलुप मनुष्य? हे परंतप मुझ परमेश्वरको प्राप्त न होकर -- मेरी प्राप्तिकी तो उनके लिये आशङ्का भी नहीं हो सकती? मेरी प्राप्तिके मार्गकी साधनरूप भेदभक्तिको भी प्राप्त न होकर निश्चय ही घूमते रहते हैं। कहाँ घूमते रहते हैं मृत्युयुक्त संसारके मार्गमें? अर्थात् जो संसार मृत्युयुक्त है उस मृत्युसंसारके नरक और पशुपक्षी आदि योनियोंकी प्राप्तिरूप मार्गमें वे बारंबार घूमते रहते हैं।
।।9.3।। --,अश्रद्दधानाः श्रद्धाविरहिताः आत्मज्ञानस्य धर्मस्य अस्यस्वरूपे तत्फले च नास्तिकाः पापकारिणः? असुराणाम् उपनिषदं देहमात्रात्मदर्शनमेव प्रतिपन्नाः असुतृपः पापाः पुरुषाः अश्रद्दधानाः? परंतप? अप्राप्य मां परमेश्वरम्? मत्प्राप्तौ नैव आशङ्का इति मत्प्राप्तिमार्गसाधनभेदभक्तिमात्रमपि अप्राप्य इत्यर्थः। निवर्तन्ते निश्चयेन वर्तन्ते क्व -- मृत्युसंसारवर्त्मनि मृत्युयुक्तः संसारः मृत्युसंसारः तस्य वर्त्म नरकतिर्यगादिप्राप्तिमार्गः? तस्मिन्नेव वर्तन्ते इत्यर्थः।।स्तुत्या अर्जुनमभिमुखीकृत्य आह --,
।।9.3।। हे परंतप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य मेरे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके मार्गमें लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।
।।9.3।। हे परन्तप ! इस धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूपी संसार में रहते हैं (भ्रमण करते हैं)।।