यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।9.6।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।9.6।।उपर्युक्त दो श्लोकोंद्वारा कहे हुए अर्थको दृष्टान्तसे सिद्ध करते हुए कहते हैं --, लोकमें जैसे ( यह प्रसिद्ध है ) सब जगह विचरनेवाला परमाणमें अति महान् वायु सदा आकाशमें ही स्थित है? वैसे ही आकाशके समान सर्वत्र परिपूर्ण मुझ परमात्मामें समस्त भूत निर्लिप्तभावसे स्थित हैं? ऐसा तू जान।
।।9.6।। --,यथा लोके आकाशस्थितः आकाशे स्थितः नित्यं सदा वायुः सर्वत्र गच्छतीति सर्वत्रगः महान् परिमाणतः? तथा आकाशवत् सर्वगते मयि असंश्लेषेणैव स्थितानि इत्येवम् उपधारय विजानीहि।।एवं वायुः आकाशे इव मयि स्थितानि सर्वभूतानि स्थितिकाले तानि --,
।।9.6।। जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं -- ऐसा तुम मान लो।
।।9.6।। जैसे सर्वत्र विचरण करने वाली महान् वायु सदा आकाश में स्थित रहती हैं, वैसे ही सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा तुम जानो।।