श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।14.5।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।14.5।।वे गुण कौनकौनसे हैं और कैसे बाँधते हैं सो कहते हैं --, सत्त्व? रज और तम -- ऐसे नामोंवाले ये तीन गुण हैं। गुण शब्द पारिभाषिक है। यहाँ रूप? रस आदिकी भाँति किसी द्रव्यके आश्रित गुणोंका ग्रहण नहीं है? तथा गुण और गुणवान् ( प्रकृति ) का भेद भी यहाँ विवक्षित नहीं है। जैसे रूपादि गुण द्रव्यके अधीन होते हैं वैसे ही ये सत्त्वादि गुण सदा क्षेत्रज्ञके अधीन हुए ही अविद्यात्मक होनेके कारण मानो क्षेत्रज्ञको बाँध लेते हैं। उस ( क्षेत्रज्ञ ) को आश्रय बनाकर ही ( ये गुण ) अपना स्वरूप प्रकट करनेमें समर्थ होते हैं? अतः बाँधते हैं ऐसा कहा जाता है। जिसकी भुजाएँ अतिशय सामर्थ्ययुक्त और जानु ( घुटनों ) तक लंबी हों? उसका नाम महाबाहु है। हे महाबाहो भगवान्की मायासे उत्पन्न ये तीनों गुण इस शरीरमें शरीरधारी अविनाशी क्षेत्रज्ञको मानो बाँध लेते हैं। क्षेत्रज्ञका अविनाशित्व अनादित्वात् इत्यादि श्लोकमें कहा ही है। पू0 -- पहले यह कहा है कि देही -- आत्मा लिप्त नहीं होता? फिर यहाँ यह विपरीत बात कैसे कही जाती है कि उसको गुण बाँधते हैं। उ0 -- इव शब्दका अध्याहार करके हमने इस शङ्काका परिहार कर दिया है। अर्थात् वास्तवमें नहीं बाँधते? बाँधते हुएसे प्रतीत होते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।14.5।।सत्त्वमिति। देही चायं आत्मतया सत्त्वरजस्तमोभिर्धर्मैः अपवर्गपर्यन्ताय भोगाय निबद्ध्यते।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।14.5।।हे महाबाहो ! प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सत्त्व, रज और तम -- ये तीनों गुण अविनाशी देहीको देहमें बाँध देते हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।14.5।। हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण देही आत्मा को देह के साथ बांध देते हैं।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।14.5।। -- सत्त्वं रजः तमः इति एवंनामानः। गुणाः इति पारिभाषिकः शब्दः? न रूपादिवत् द्रव्याश्रिताः गुणाः। न च गुणगुणिनोः अन्यत्वमत्र विवक्षितम्। तस्मात् गुणा इव नित्यपरतन्त्राः क्षेत्रज्ञं प्रति अविद्यात्मकत्वात् क्षेत्रज्ञं निबध्नन्तीव। तम् आस्पदीकृत्य आत्मानं प्रतिलभन्ते इति निबध्नन्ति इति उच्यते। ते च प्रकृतिसंभवाः भगवन्मायासंभवाः निबध्नन्ति इव हे महाबाहो? महान्तौ समर्थतरौ आजानुप्रलम्बौ बाहू यस्य सः महाबाहुः? हे महाबाहो देहे शरीरे देहिनं देहवन्तम् अव्ययम्? अव्ययत्वं च उक्तम् अनादित्वात् (गीता 13.31) इत्यादिश्लोकेन। ननु देही न लिप्यते इत्युक्तम्। तत कथम् इह निबध्नन्ति इति अन्यथा उच्यते परिहृतम् अस्माभिः इवशब्देन निबध्नन्ति इव इति।।तत्र सत्त्वादीनां सत्त्वस्यैव तावत् लक्षणम् उच्यते --,