श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।18.61।।क्योंकि --, हे अर्जुन ईश्वर अर्थात् सबका शासन करनेवाला नारायण समस्त प्राणियोंके हृदयदेशमें स्थित है। जो शुक्ल स्वच्छशुद्ध अन्तरात्मास्वभाववाला हो अर्थात् पवित्र अन्तःकरणयुक्त हो उसका नाम अर्जुन है क्योंकि,अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च इस कथनमें अर्जुनशब्द शुद्धताका वाचक देखा गया है। वह ( ईश्वर ) कैसे स्थित है सो कहते हैं -- समस्त प्राणियोंको? यन्त्रपर आरूढ़ हुईचढ़ी हुई कठपुतलियोंकी भाँति? भ्रमाता हुआ -- भ्रमण कराता हुआ स्थित है। यहाँ इव ( भाँति ) शब्द अधिक समझना चाहिये? अर्थात् जैसे यन्त्रपर आरूढ़ कठपुतली आदिको ( खिलाड़ी ) मायासे भ्रमाता हुआ स्थित रहता है? उसी तरह ईश्वर सबके हृदयमें स्थित है? इस प्रकार इसका सम्बन्ध है।

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।18.61 -- 18.62।।ईश्वर इति। तमेवेति। एष ईश्वरः परमात्मा अवश्यं शरणत्वेन ग्राह्यः। तत्र हि अधिष्ठातरि कर्तरि ( omits कर्तरि ) बोद्धरि स्वात्ममये विमृष्टे ( ?N विस्पष्टे ) ? न कर्माणि स्थतिभाञ्जि भवन्ति। न हि निशिततरनखरकोटिविदारितसमदकरिकरटगलितमुक्ताफलनिकरपरिकरप्रकाशितप्रतापमहसि ( omits -- परिकर -- ) सिंहकिशोरके गुहामधितिष्ठति चपलमनसो विद्रवणमात्रबलशालिनो हरिणपोतकाः ( K हिरण -- ) स्वैरं स्वव्यापारपरिशीलनापटुभावमवलंबन्ते इति।तमेव शरणं गच्च्छइत्युपक्रम्य मत्प्रसादात् इति निर्वाहवाक्यमभिदधत् भगवान् परमात्मानम् ईश्वरं वासुदेवं च एकतया योजयति इति।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।18.61।।हे अर्जुन ! ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।18.61।। हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है।।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।18.61।। -- ईश्वरः ईशनशीलः नारायणः सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां हृद्देशे हृदयदेशे अर्जुन शुक्लान्तरात्मस्वभावः विशुद्धान्तःकरणः -- अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च (ऋ. सं. 6।9।1) इति दर्शनात् -- तिष्ठति स्थितिं लभते। तेषु सः कथं तिष्ठतीति? आह -- भ्रामयन् भ्रमणं कारयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि यन्त्राणि आरूढानि अधिष्ठितानि इव -- इति इवशब्दः अत्र द्रष्टव्यः -- यथा दारुकृतपुरुषादीनि यन्त्रारूढानि। मायया च्छद्मना भ्रामयन् तिष्ठति इति संबन्धः।।