एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्यायुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।2.39।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.39।।क्योंकि यहाँ शास्त्रके विषयका विभाग दिखलाया जानेसे यह होगा कि आगे चलकर ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इत्यादि जो दो निष्ठाओंको बतानेवाला शास्त्र है वह सुखपूर्वक समझाया जा सकेगा और श्रोतागण भी विषयविभागपूर्वक अनायास ही उसे ग्रहण कर सकेंगे। इसलिये कहते हैं
मैंने तुझसे सांख्य अर्थात् परमार्थ वस्तुकी पहिचानके विषयमें यह बुद्धि यानी ज्ञान कह सुनाया। यह ज्ञान संसारके हेतु जो शोक मोह आदि दोष हैं उनकी निवृत्तिका साक्षात् कारण है।
इसकी प्राप्तिके उपायरूप योगके विषयमें अर्थात् आसक्तिरहित होकर सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंके त्यागपूर्वक ईश्वराराधनके लिये कर्म किये जानेवाले कर्मयोगके विषयमें और समाधियोगके विषयमें इस बुद्धिको जो कि अभी आगे कही जाती है सुन
रुचि बढ़ानेके लिये उस बुद्धिकी स्तुति करते हैं
हे अर्जुन जिस योगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ तू धर्माधर्म नामक कर्मरूप बन्धनको ईश्वरकृपासे होनेवाली ज्ञानप्राप्तिद्वारा नाश कर डालेगायह अभिप्राय है।
।।2.39।।सुखदुःखे इति। तव तु स्वधर्मतयैव कर्माणि कुर्वतो न कदाचित् पापसंबन्धः।
।।2.39।। हे पार्थ! यह समबुद्धि तेरे लिए पहले सांख्ययोगमें कही गयी, अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन; जिस समबुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनका त्याग कर देगा।
।।2.39।। हे पार्थ ! तुम्हें सांख्य विषयक ज्ञान कहा गया और अब इस (कर्म) योग से सम्बन्धित ज्ञान को सुनो जिस ज्ञान से युक्त होकर तुम कर्मबन्ध का नाश कर सकोगे।।
।।2.39।।
एषा ते तुभ्यम् अभिहिता उक्ता सांख्ये परमार्थवस्तुविवेकविषये बुद्धिः ज्ञानं साक्षात् शोकमोहादिसंसारहेतुदोषनिवृत्तिकारणम्। योगे तु तत्प्राप्त्युपाये निःसङ्गतया द्वन्द्वप्रहाणपूर्वकम् ईश्वराराधनार्थे कर्मयोगे कर्मानुष्ठाने समाधियोगे च इमाम् अनन्तरमेवोच्यमानां बुद्धिं शृणु । तां च बुद्धिं स्तौति प्ररोचनार्थम्
बुद्धया यया योगविषयया युक्तः हे पार्थ कर्मबन्धं कर्मैव धर्माधर्माख्यो बन्धः कर्मबन्धः तं प्रहास्यसि ईश्वरप्रसादनिमित्तज्ञानप्राप्त्यैव इत्यभिप्रायः।।
किञ्च अन्यत्