न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।3.4।।यह बात स्पष्ट प्रकट करनेकी इच्छासे कि ज्ञाननिष्ठाकी प्राप्तिमें साधन होनेके कारण कर्मनिष्ठा मोक्षरूप पुरुषार्थमें हेतु है स्वतन्त्र नहीं है और कर्मनिष्ठारूप उपायसे सिद्ध होनेवाली ज्ञाननिष्ठा अन्यकी अपेक्षा न रखकर स्वतन्त्र ही मुक्तिमें हेतु है भगवान् बोले कर्मोंका आरम्भ किये बिना अर्थात् यज्ञादि कर्म जो कि इस जन्म या जन्मान्तरमें किये जाते हैं और सञ्चित पापोंका नाश करनेके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिमें कारण हैं एवं पापकर्मोंका नाश होनेपर मनुष्योंके ( अन्तःकरणमें ) ज्ञान प्रकट होता है इस स्मृतिके अनुसार जो अन्तःकरणकी शुद्धिमें कारण होनेसे ज्ञाननिष्ठाके भी हेतु हैं उन यज्ञादि कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मभावको कर्मशून्य स्थितिको अर्थात् जो निष्क्रिय आत्मस्वरूपमें स्थित होनारूप ज्ञानयोगसे प्राप्त होनेवाली निष्ठा है उसको नहीं पाता। पू0 कर्मोंका आरम्भ नहीं करनेसे निष्कर्मभावको प्राप्त नहीं होता इस कथनसे यह पाया जाता है कि इसके विपरीत करनेसे अर्थात् कर्मोंका आरम्भ करनेसे मनुष्य निष्कर्मभावको पाता है सो ( इसमें ) क्या कारण है कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मताको प्राप्त नहीं होता उ0 क्योंकि कर्मोंका आरम्भ ही निष्कर्मताकी प्राप्तिका उपाय है और उपायके बिना उपेयकी प्राप्ति हो नहीं सकती यह प्रसिद्ध ही है। निष्कर्मतारूप ज्ञानयोगका उपाय कर्मयोग है यह बात श्रुतिमें और यहाँ गीतामें भी प्रतिपादित है। श्रुतिमें प्रस्तुत ज्ञेयरूप आत्मलोकके जाननेका उपाय बतलाते हुए उस आत्माको बाह्मण वेदाध्ययन और यज्ञसे जाननेका इच्छा करते हैं इत्यादि वचनोंसे कर्मयोगको ज्ञानयोगका उपाय बतलाया है। तथा यहाँ ( गीताशास्त्रमें ) भी हे महाबाहो बिना कर्मयोगके संन्यास प्राप्त करना कठिन है योगी लोग आसक्ति छो़ड़कर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म किया करते हैं यज्ञ दान और तप बुद्धिमानोंको पवित्र करनेवाले हैं इत्यादि वचनोंसे आगे प्रतिपादित करेंगे। यहाँ यह शंका होती है कि सब भूतोंको अभयदान देकर संन्यास ग्रहण करे इत्यादि वचनोंमें कर्तव्यकर्मोंके त्यागद्वारा भी निष्कर्मताकी प्राप्ति दिखलायी है और लोकमें भी कर्मोंका आरम्भ न करनेसे निष्कर्मताका प्राप्त होना अत्यन्त प्रसिद्ध है। फिर निष्कर्मता चाहनेवालेको कर्मोंके आरम्भसे क्या प्रयोजन इसपर कहते हैं केवल संन्याससे अर्थात् बिना ज्ञानके केवल कर्मपरित्यागमात्रसे मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धिको अर्थात् ज्ञानयोगसे होनेंवाली स्थितको नहीं पाता।
।।3.4 3.5।।तथा हि न कर्मणामिति। न हीति। ज्ञानं कर्मणा रहितं न भवति कर्म च कौशलोपेतं ज्ञानरहितं न भवति इत्येकमेव वस्तु ज्ञानकर्मणी। तथाचोक्तम्।न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया।
ज्ञानक्रियाविनिष्पन्न आचार्यः पशुपाशहा।। इति तस्मात् ज्ञानान्तर्वर्ति कर्म अपरिहार्यम्। यतः परवश एव कायवाङ्मनसां परिस्पन्दात्मकत्वात् अवश्यं किञ्चित्करोति।
।।3.4।। मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।
।।3.4।। कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) प्राप्त करता है।।
।।3.4।। न कर्मणां क्रियाणां यज्ञादीनाम् इह जन्मनि जन्मान्तरे वा अनुष्ठितानाम् उपात्तदुरितक्षयहेतुत्वेन सत्त्वशुद्धिकारणानां तत्कारणत्वेन च ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण ज्ञाननिष्ठाहेतूनाम् ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः। यथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि (महा0 शान्ति0 204।8) इत्यादिस्मरणात् अनारम्भात् अननुष्ठानात् नैष्कर्म्यं निष्कर्मभावं कर्मशून्यतां ज्ञानयोगेन निष्ठां निष्क्रियात्मस्वरूपेणैव अवस्थानमिति यावत्। पुरुषः न अश्नुते न प्राप्नोतीत्यर्थः।।कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं नाश्नुते इति वचनात् तद्विपर्ययात् तेषामारम्भात् नैष्कर्म्यमश्नुते इति गम्यते। कस्मात् पुनः कारणात् कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं नाश्नुते इति उच्यते कर्मारम्भस्यैव नैष्कर्म्योपायत्वात्। न ह्युपायमन्तरेण उपेयप्राप्तिरस्ति। कर्मयोगोपायत्वं च नैष्कर्म्यलक्षणस्य ज्ञानयोगस्य श्रुतौ इह च प्रतिपादनात्। श्रुतौ तावत् प्रकृतस्य आत्मलोकस्य वेद्यस्य वेदनोपायत्वेन तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन (बृह0 उ0 4।4।22) इत्यादिना कर्मयोगस्य ज्ञानयोगोपायत्वं प्रतिपादितम्। इहापि च संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः (गीता 5।6) योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये (गीता 5।11) यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् (गीता 18।5) इत्यादि प्रतिपादयिष्यति।।ननु च अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् इत्यादौ कर्तव्यकर्मसंन्यासादपि नैष्कर्म्यप्राप्तिं दर्शयति। लोके च कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यमिति प्रसिद्धतरम्। अतश्च नैष्कर्म्यार्थिनः किं कर्मारम्भेण इति प्राप्तम्। अत आह न च संन्यसनादेवेति। नापि संन्यसनादेव केवलात् कर्मपरित्यागमात्रादेव ज्ञानरहितात् सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां ज्ञानयोगेन निष्ठां समधिगच्छति न प्राप्नोति।।कस्मात् पुनः कारणात् कर्मसंन्यासमात्रादेव केवलात् ज्ञानरहितात् सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां पुरुषो नाधिगच्छति इति हेत्वाकाङ्क्षायामाह