श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।4.1।।कर्मयोग जिसका उपाय है ऐसा जो यह संन्याससहित ज्ञाननिष्ठारूप योग पूर्वके दो अध्यायोंमें ( दूसरे और तीसरेमें ) कहा गया है जिसमें कि वेदका प्रवृत्तिधर्मरूप और निवृत्तिधर्मरूप दोनों प्रकारका सम्पूर्ण तात्पर्य आ जाता है आगे सारी गीतामें भी भगावन्को योग शब्दसे यही ( ज्ञानयोग ) विवक्षित है इसलिये वेदके अर्थको ( ज्ञानयोगमें ) परिसमाप्त यानी पूर्णरूपसे आ गया समझकर भगवान् वंशपरम्पराकथनसे उस ( ज्ञाननिष्ठारूप योग ) की स्तुति करते हैं श्रीभगवान् बोले जगत्प्रतिपालक क्षत्रियोंमें बल स्थापन करनेके लिये मैंने उक्त दो अध्यायोंमें कहे हुए इस योगको पहले सृष्टिके आदिकालमें सूर्यसे कहा था ( क्योंकि ) उस योगबलसे युक्त हुए क्षत्रिय ब्रह्मत्वकी रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं तथा ब्राह्मण और क्षत्रियोंका पालन ठीक तरह हो जानेपर ये दोनों सब जगत्का पालन अनायास कर सकते हैं। इस योगका फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस सम्यक् ज्ञाननिष्ठारूप योगका मोक्षरूप फल कभी नष्ट नहीं होता। उस सूर्यने यह योग अपने पुत्र मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बननेवाले इक्ष्वाकुसे कहा।
।।4.1 4.3।।एवमित्यादि उत्तमम् इत्यन्तम्। एतच्च गुरुपरम्पराप्राप्तमपि (S परम्परायातमपि K परम्परया प्राप्तमपि) अद्यत्वे नष्टमित्यनेन (S N अद्यत्वे तन्नष्ट) भगवान् अस्य ज्ञानस्य दुर्लभतां गौरवं च प्रदर्शयति। भक्तोऽसि मे सखा चेति। त्वं भक्तः मत्परमः सखा च। चशब्देन अन्वाचय उच्यते। तेन यथा भिक्षाटने भिक्षायां प्राधान्यं गवानयने त्वप्राधान्यम् एवं भक्तिरत्र गुरुं प्रति प्रधानं न सखित्वमपीति तात्पर्यार्थं।
।।4.1।। श्रीभगवान् बोले - मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा था। फिर सूर्यने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा।
।।4.1।। श्रीभगवान् ने कहा --- मैंने इस अविनाशी योग को विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा (सिखाया); विवस्वान् ने मनु से कहा; मनु ने इक्ष्वाकु से कहा।।
।।4.1।। इमम् अध्यायद्वयेनोक्तं योगं विवस्वते आदित्याय सर्गादौ प्रोक्तवान् अहं जगत्परिपालयितृ़णां क्षत्रियाणां बलाधानाय तेन योगबलेन युक्ताः समर्था भवन्ति ब्रह्म परिरक्षितुम्। ब्रह्मक्षत्रे परिपालिते जगत् परिपालयितुमलम्। अव्ययम् अव्ययफलत्वात्। न ह्यस्य योगस्य सम्यग्दर्शननिष्ठालक्षणस्य मोक्षाख्यं फलं व्येति। स च विवस्वान् मनवे प्राह। मनुः इक्ष्वाकवे स्वपुत्राय आदिराजाय अब्रवीत्।।