श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.6।।जो आत्मज्ञानी न होनेपर भी शास्त्रविहित कर्म नहीं करता उसका वह कर्म न करना बुरा है यह कहते हैं जो मनुष्य हाथ पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोककर इन्द्रियोंके भोगोंको मनसे चिन्तन करता रहता है वह विमूढात्मा अर्थात् मोहित अन्तःकरणवाला मिथ्याचारी ढोंगी पापाचारी कहा जाता है।

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।3.6।।कर्मेन्द्रियाणीति। कर्मेन्द्रियैश्चेन्न करोति अवश्यं तर्हि (S omits तर्हि) मनसा करोति प्रत्युत सः मूढाचारः (The expressions मूढाचारः and मिथ्याचारः are found hereinafter interchanged in the MSS. ) मानसानां कर्मणामत्यन्तमपरिहार्यत्वात्।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.6।। जो कर्मेन्द्रियों- (सम्पूर्ण इन्द्रियों-) को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.6।। जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है।।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.6।। कर्मेन्द्रियाणि हस्तादीनि संयम्य संहृत्य यः आस्ते तिष्ठति मनसा स्मरन् चिन्तयन् इन्द्रियार्थान् विषयान् विमूढात्मा विमूढान्तःकरणः मिथ्याचारो मृषाचारः पापाचारः सः उच्यते।।