श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।4.2।।इस प्रकार क्षत्रियोंकी परम्परासे प्राप्त हुए इस योगको राजर्षियोंने जो कि राजा और ऋषि दोनों थे जाना। हे परंतप ( अब ) वह योग इस मनुष्यलोकमें बहुत कालसे नष्ट हो गया है। अर्थात् उसकी सम्प्रदायपरम्परा टूट गयी है। अपने विपक्षियोंको पर कहते हैं उन्हें जो शौर्यरूप तेजकी किरणोंके द्वारा सूर्यके समान तपता है वह पपातप यानी शत्रुओंको तपानेवाला कहा जाता है।

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।4.1 4.3।।एवमित्यादि उत्तमम् इत्यन्तम्। एतच्च गुरुपरम्पराप्राप्तमपि (S परम्परायातमपि K परम्परया प्राप्तमपि) अद्यत्वे नष्टमित्यनेन (S N अद्यत्वे तन्नष्ट) भगवान् अस्य ज्ञानस्य दुर्लभतां गौरवं च प्रदर्शयति। भक्तोऽसि मे सखा चेति। त्वं भक्तः मत्परमः सखा च। चशब्देन अन्वाचय उच्यते। तेन यथा भिक्षाटने भिक्षायां प्राधान्यं गवानयने त्वप्राधान्यम् एवं भक्तिरत्र गुरुं प्रति प्रधानं न सखित्वमपीति तात्पर्यार्थं।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।4.2।। हे परंतप ! इस तरह परम्परासे प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियोंने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।4.2।। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुये इस योग को राजर्षियों ने जाना, (परन्तु) हे परन्तप ! वह योग बहुत काल (के अन्तराल) से यहाँ (इस लोक में) नष्टप्राय हो गया।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।4.2।। एवं क्षत्रियपरम्पराप्राप्तम् इमं राजर्षयः राजानश्च ते ऋषयश्च राजर्षयः विदुः इमं योगम्। स योगः कालेन इह महता दीर्घेण नष्टः विच्छिन्नसंप्रदायः संवृत्तः। हे परंतप आत्मनः विपक्षभूताः परा इति उच्यन्ते तान् शौर्यतेजोगभस्तिभिः भानुरिव तापयतीति परंतपः शत्रुतापन इत्यर्थः।।दुर्बलानजितेन्द्रियान् प्राप्य नष्टं योगमिममुपलभ्य लोकं च अपुरुषार्थसंबन्धिनम्