श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।13.3।।

 

English Commentary By Swami Sivananda

13.3 क्षेत्रज्ञम् the knower of the field, च and, अपि also, माम् Me, विद्धि know, सर्वक्षेत्रेषु in all fields, भारत O descendant of Bharata (Arjuna), क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः of the field and of the knower of the field, ज्ञानम्,knowledge, यत् which, तत् that, ज्ञानम् knowledge, मतम् is considered to be, मम My.

Commentary:
The fields are different but the knower of the field is one. The individual souls (Jivatmas) are different but the Supreme Soul (Paramatma) is one. Wherever there is mind, there are lifreath, egoism and the individual consciousness or reflected intelligence side by side. He who has the sense of duality will take birth again and again. This delusion of dulaity can only be removed by knowledge of the identity of the individual soul and the Absolute. I am happy, I am miserable, I am the doer of this action, and I am the enjoyer of this experience -- these are the experiences of all human beings. Therefore the individual soul is bound to Samsara and is subject to pleasure and pain, and the individual souls are in different bodies. But, the Supreme Soul is free from pleasure and pain. It is not bound to Samsara. It is eternally free. It is one without a second.If there is only one individual soul in all bodies, all should have the same experience at the same time. If Rama suffers from abdominal colic, Krishna also should experience the pain at the same time. If John experiences joy, Jacob also should have a similar experience. If Choudhury is stung by a scorpion, Banerjee also should suffer from the pain. But this is not the case. When Rama suffers, Krishna rejoices. When John is jubilan, Jacob is depressed. When Choudhury suffers from the sting of a scorpion, Banerjee is enjoying his breakfast. Fields are different, bodies are different, minds are different and the individual souls are different from each other. But the knower in all these fields is one. Pleasure and pain are the Dharmas (functions) of the mind only. The individual soul is in essence identical with the Supreme Soul.The knower of the field or the Self is not affected by pleasure and pain, virtue and vice. He is the silent witness only. Pleasure and pain are the functions of the mind. They are ascribed to the Self through ignorance. The ignorant man regards the physical body as the Self. He is swayed by the two currents of likes and dislikes, he does virtuous and vicious actions and reaps the fruits of these actions, viz., pleasure and pain, and takes birth again and again. But the sage who knows that the Kshetrajna or the knower of the field or the Self is distinct from the body is not swayed by likes and dislikes. He identifies himself with the pure, eternal, Absolute or the Supreme Self and is always happy and actionless, though he performs actions for the welfare of humanity.The disease of Timira (partial blindness) which causes perception of what is contrary to truth pertains to the eye but not to the man who perceives. If the disease is removed by proper treatment he perceives things in their true light. Even so ignorance, doubt, pleasure and pain, virtue and vice, likes and dislikes, false perceptions as well as their cause belong to the instrument (the mind) but not to the silent witness, the knower of the field, the Self.In the state of liberation wherein there is annihilation of the mind, there is no ignorance and the play of the two currents of likes and dislikes does not exist there. If false perception, ignorance, pleasure and pain, doubt, bondage, delusion, sorrow, etc., were the essential properties of the Self, just as heat is the essential property of fire, they could not be got rid of at any time. But there have been sages of Selfrealisation in the past like Sankara, Dattatreya, Jada Bharata and Yajnavalkya who possessed extraordinary supersensual or intuitional knowledge, who were free from false perception, doubt, fear, delusion, sorrow, etc. They were not conscious of Samsara but they had perfect awareness of the Self. Therefore, we will have to conclude that the Self is ever free, pure, perfect, eternal and that ignorance inheres in the instrument (the mind) and not in the Self.Ignorance born of Tamas acts as a veil and prevents man from knowing his essential nature as,the ExistenceKnowledgeBliss Absolute. It causes perception of what is ite the contrary of truth and causes doubt or nonperception of truth. As soon as knowledge of the Self dawns these three forms of ignorance vanish in toto. Therefore these three forms of ignorance are not the attributes of the Self. They belong to the mind, the organ or the instrument. Mind is only an effect or a product of ignorance.The wheel of Samsara or the worldprocess rotates on account of ignorance. It exists only for the ignorant man who perceives the world as it appears to him.There is no Samsara for a liberated sage. Any disease of the eye cannot in any way effect the sun (the dity presiding over the eye). The breaking of the pot will not in any way affect the ether or space in the pot. The water of the mirage cannot render the earth moist. Even so ignorance and its effecs cannot in the least affect the pure, subtle, attributeless, formless, limbless, partless and selfluminous Kshetrajna or the Self. Ignorance does not touch the Self. (Cf.X.20XIII.32XVIII.61)

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।13.3।।इस प्रकार कहे हुए क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या इतने ज्ञानसे ही जाने जा सकते हैं इसपर कहते हैं कि नहीं --, तू समस्त क्षेत्रोंमें उपर्युक्त लक्षणोंसे युक्त क्षेत्रज्ञ भी मुझ असंसारी परमेश्वरको ही जान। अर्थात् समस्त शरीरोंमें जो ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त अनेक शरीररूप उपाधियोंसे विभक्त हुआ क्षेत्रज्ञ है? उसको समस्त उपाधिभेदसे रहित एवं सत् और असत् आदि शब्दप्रतीतिसे जाननेमें न आनेवाला ही समझ। हे भारत जब कि क्षेत्र? क्षेत्रज्ञ और ईश्वरइनके यथार्थ स्वरूपसे अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञानका विषय शेष नहीं रहता? इसलिये ज्ञेयस्वरूप क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है -- जिस ज्ञानसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ प्रत्यक्ष किये,जाते हैं? वही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। मुझ ईश्वर -- विष्णुका यही मत -- अभिप्राय है। पू0 -- यदि समस्त शरीरोंमें एक ही ईश्वर है? उससे अतिरिक्त अन्य कोई भोक्ता नहीं है? ऐसा मानें? तो ईश्वरको संसारी मानना हुआ नहीं तो ईश्वरसे अतिरिक्त अन्य संसारीका अभाव होनेसे संसारके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है। यह दोनों ही अनिष्ट हैं क्योंकि ऐसा मान लेनेपर बन्ध? मोक्ष और उनके कारणका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं और प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे भी इस मान्यताका विरोध है। प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो सुखदुःख और उनका कारणरूप यह संसार दीख ही रहा है। इसके सिवा जगत्की विचित्रताको देखकर पुण्यपापहेतुक संसारका होना अनुमानसे भी सिद्ध होता है? परंतु आत्मा और ईश्वरकी एकता मान लेनेपर ये सबकेसब अयुक्त ठहरते हैं। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि ज्ञान और अज्ञानका भेद होनेसे यह सब सम्भव है। ( श्रुतिमें भी कहा है कि ) प्रसिद्ध जो अविद्या और विद्या हैं वे अत्यन्त विपरीत और भिन्न समझी गयी हैं तथा ( उसी जगह ) उन विद्या और अविद्याका फल भी श्रेय और प्रेय इस प्रकार परस्परविरुद्ध दिखलाया गया है? इनमें विद्याका फल श्रेय ( मोक्ष ) और अविद्याका प्रेय ( इष्ट भोगोंकी प्राप्ति ) है। वैसे ही श्रीव्यासजीने भी कहा है कि यह दोनों ही मार्ग है इत्यादि तथा यह दो ही मार्ग हैं इत्यादि और यहाँ गीताशास्त्रमें भी दो निष्ठाएँ बतलायी गयी हैं। इसके सिवा श्रुति? स्मृति और न्यायसे भी यही सिद्ध होता है कि विद्याके द्वारा कार्यसहित अविद्याका नाश करना चाहिये। इस विषयमें ये श्रुतियाँ यहाँ यदि जान लिया तो बहुत ठीक है और यदि यहाँ नहीं जाना तो बड़ी भारी हानि है उसको इस प्रकार जाननेवाला यहाँ अमृत हो जाता है परमपदकी प्राप्तिके लिये ( विद्याके सिवा ) अन्य मार्ग नहीं है विद्वान् किसीसे भी भयभीत नहीं होता। किन्तु अज्ञानीके विषयमें ( कहा है कि ) उसको भय होता है जो कि अविद्याके बीचमें ही प़ड़े हुए हैं जो ब्रह्मको जानता है वह ब्रह्म ही हो जाता है यह देव अन्य है और मैं अन्य हूँ इस प्रकार जो समझता है वह आत्मतत्त्वको नहीं जानता जैसे ( मनुष्योंका पशु होता है वैसे ही वह देवताओंका पशु है किन्तु जो आत्मज्ञानी है ( उसविषयमें ) वह यह सब कुछ हो जाता है यदि आकाशको चमक समान लपेटा जा सके इत्यादि सहस्रों श्रुतियाँ हैं। तथा ये स्मृतियाँ भी हैं -- ज्ञान अज्ञानसे ढका हुआ है? इसलिये जीव मोहित हो रहे हैं जिनका चित्त समतामें स्थित है उन्होंने यहीं संसारको जीत लिया है सर्वत्र समानभावसे देखता हुआ इत्यादि। युक्तिसे भी यह बात सिद्ध है। जैसे कहा है कि सर्प? कुशकंण्टक और तालाबको जान लेनेपर मनुष्य उनसे बच जाते हैं? किन्तु बिना जाने कई एक उनमें गिर जाते हैं? इस न्यायसे ज्ञानका जो विशेष फल है उसको समझ। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंसे यह ज्ञान होता है कि देहादिमें आत्मबुद्धि करनेवाला अज्ञानी रागद्वेषादि दोषोंसे प्रेरित होकर धर्मअधर्मरूप कर्मोंका अनुष्ठान करता हुआ जन्मता और मरता रहता है? किंतु देहादिसे अतिरिक्त आत्माका साक्षात् करनेवाले पुरुषोंके रागद्वेषादि दोष निवृत्त हो जाते हैं? इससे उनकी धर्माधर्मविषयक प्रवृत्ति शान्त हो जानेसे वे मुक्त हो जाते हैं। इस बातका कोई भी न्यायानुसार विरोध नहीं कर सकता।अतः यह सिद्ध हुआ कि जो वास्तवमें ईश्वर ही है उस क्षेत्रज्ञको अविद्याद्वारा आरोपित उपाधिके भेदसे संसारित्व प्राप्तसा हो जाता है? जैसे कि जीवको देहादिमें आत्मबुद्धि हो जाती है क्योंकि समस्त जीवोंका जो देहादि अनात्मपदार्थोंमें आत्मभाव प्रसिद्ध है? वह निःसंदेह अविद्याकृत ही है। जैसे स्तम्भमें मनुष्यबुद्धि हो जाती है? परंतु इतनेहीसे मनुष्यके धर्म स्तम्भमें और स्तम्भके धर्म मनुष्यमें नहीं आ जाते? वैसे ही चेतनके धर्म देहमें और देहके धर्म चेतनमें नहीं आ सकते। जरा और मृत्युके समान ही अविद्याके कार्य होनेसे सुखदुःख और अज्ञान आदि भी उन्हींकी भाँति आत्माके धर्म नहीं हो सकते। पू0 -- यदि ऐसा मानें कि विषम होनेके कारण यह दृष्टान्त ठीक नहीं है अर्थात् स्तम्भ और पुरुष दोनों ज्ञेय वस्तु हैं? उनमें अविद्यावश ज्ञाताद्वारा एकमें एकका अध्यास किया गया है परंतु देह और आत्मामें तो ज्ञेय और ज्ञाताका ही एक दूसरेमें अध्यास होता है? इसलिये यह दृष्टान्त सम नहीं है? अतः यह सिद्ध होता है कि देहका ज्ञेयरूप ( सुखदुःखादि ) धर्म भी ज्ञाता -- आत्मामें होता है। उ0 -- इसमें आत्माको जड़ मानने आदिका प्रसङ्ग आ जाता है? इसलिये ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि यदि ज्ञेयरूप शरीरादि -- क्षेत्रक सुख? दुःख? मोह और इच्छादि धर्म ज्ञाता ( आत्मा ) के भी होते हैं? तो यह बतलाना चाहिये कि ज्ञेयरूप क्षेत्रके अविद्याद्वारा आरोपित कुछ धर्म तो आत्मामें होते हैं और कुछ -- जरामरणादि नहीं होते? इस विशेषताका कारण क्या है बल्कि? ऐसा अनुमान तो किया जा सकता है कि जरा आदिके समान अविद्याद्वारा आरोपित और त्याज्य तथा ग्राह्य होनेके कारण ये सुखदुःखादि ( आत्माके धर्म ) नहीं हैं। ऐसा होनेसे यह सिद्ध हुआ कि कर्तृत्वभोक्तृत्वरूप यह संसार ज्ञेय वस्तुमें स्थित हुआ ही अविद्याद्वारा ज्ञातामें अध्यारोपित है? अतः उससे ज्ञाताका कुछ भी नहीं बिगड़ता? जैसे कि मूर्खोंद्वारा अध्यारोपित तलमलिनतादिसे आकाशका ( कुछ भी नहीं बिगड़ता )। अतः सब शरीरोंमें रहते हुए भी भगवान्क्षेत्रज्ञ ईश्वरमें संसारीपनके गन्धमात्रकी भी शङ्का नहीं करनी चाहिये क्योंकि संसारमें कहीं भी अविद्याद्वारा आरोपित धर्मसे किसीका भी उपकार या अपकार होता नहीं देखा जाता। तुमने जो यह कहा था कि ( स्तम्भमें मनुष्यके भ्रमका ) दृष्टान्त सम नहीं है सो ( यह कहना ) भूल है। पू0 -- कैसे उ0अविद्याजन्य अध्यासमात्रमें ही दृष्टान्त और दार्ष्टान्तकी समानता विवक्षित है। उसमें कोई दोष नहीं आता। परंतु तुम जो यह मानते हो कि ज्ञातामें दृष्टान्त और दार्ष्टान्तकी विषमताका दोष आता है? तो उसका भी अपवाद? जरामृत्यु आदिके दृष्टान्तसे दिखला दिया गया है। पू0 -- यदि ऐसा कहें कि अविद्यायुक्त होनेसे क्षेत्रज्ञको ही संसारित्व प्राप्त हुआ? तो उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि अविद्या? तामस प्रत्यय है। तामस प्रत्यय? चाहे विपरीत ग्रहण करनेवाला,( विपर्यय ) हो? चाहे संशय उत्पन्न करनेवाला ( संशय ) हो और चाहे कुछ भी ग्रहण न करनेवाला हो? आवरणरूप होनेके कारण वह अविद्या ही है? क्योंकि विवेकरूप प्रकाशके होनेपर वह दूर हो जाता है तथा आवरणरूप तमोमय तिमिरादि दोषोंके रहते हुए ही अग्रहण आदिरूप तीन प्रकारकी अविद्याका अस्तित्व उपलब्ध होता है। पू0 -- यदि यह बात है तब तो अविद्या ज्ञाताका धर्म हुआ उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि तिमिररोगादिजन्य दोष चक्षु आदि करणोंमें ही देखे जाते हैं ( ज्ञाता आत्मामें नहीं )। जो तुम ऐसा मानते हो कि अविद्या ज्ञाताका धर्म है और अविद्यारूप धर्मसे युक्त होना ही उसका संसारित्व है? इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि ईश्वर ही क्षेत्रज्ञ है और वह संसारी नहीं है सो तुम्हारा ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि नेत्ररूप करणमें विपरीत ग्राहकता आदि दोष देखे जाते हैं तो भी वे विपरीतादि ग्रहण या उनके कारणरूप तिमिरादि दोष ज्ञाताके नहीं हो जाते ( उसी प्रकार देहके धर्म भी आत्माके नहीं हो सकते )। तथा जैसे आँखका संस्कार करके तिमिरादि प्रतिबन्धको हटा देनेपर ग्रहीता पुरुषमें वे दोष नहीं देखे जाते? इसलिये वे ग्रहीता पुरुषके धर्म नहीं हैं? वैसे ही अग्रहण? विपरीतग्रहण और संशय आदि प्रत्यय तथा उनके कारणरूप तिमिरादि दोष भी सर्वत्र किसीनकिसी करणके ही हो सकते हैं -- ज्ञाता पुरुषके अर्थात् क्षेत्रज्ञके नहीं। इसके सिवा वे जाननेमें आनेवाले ( ज्ञानके विषय ) होनेसे भी दीपकके प्रकाशकी भाँति ज्ञाताके धर्म नहीं हो सकते क्योंकि वे ज्ञेय हैं? इसलिये अपनेसे अतिरिक्त किसी अन्यद्वारा जाननेमें आनेवाले हैं। सभी आत्मवादी समस्त करणोंसे आत्माका वियोग होनेके उपरान्त कैवल्य अवस्थामें आत्माको अविद्यादि दोषोंसे रहित मानते हैं? इससे भी ( उपर्युक्त सिद्धान्त ही सिद्ध होता है ) क्योंकि यदि अग्निकी उष्णताके समान ये ( सुखदुःखादि दोष ) क्षेत्रज्ञ आत्माके अपने धर्म हों तो उनसे उसका कभी वियोग नहीं हो सकेगा। इसके सिवा आकाशकी भाँति सर्वव्यापक? मूर्तिरहित? निर्विकार आत्माका किसीके साथ संयोगवियोग होना सम्भव नहीं है? इससे भी क्षेत्रज्ञकी नित्य ईश्वरता ही सिद्ध होती है। तथा अनादित्वान्िनर्गुणत्वात् इत्यादि भगवान्के वचनोंसे भी क्षेत्रज्ञका नित्य ईश्वरत्व हि सिद्ध होता है। पू0 -- ऐसा मान लेनेपर तो संसार और संसारित्वका अभाव हो जानेके कारण शास्त्रकी व्यर्थता आदि दोष उपस्थित होंगे उ0 -- नहीं क्योंकि यह दोष तो सभीने स्वीकार किया है। सभी आत्मवादियोंद्वारा स्वीकार किये हुए दोषका किसी एकके लिये ही परिहार करना आवश्यक नहीं है।

, पू0 -- इसे सबने कैसे स्वीकार किया है उ0 -- सभी आत्मवादियोंने मुक्त आत्मामें संसार और संसारीपनके व्यवहारका अभाव माना है? परंतु ( इससे ) उनके मतमें शास्त्रकी अनर्थकता आदि दोषोंकी प्राप्ति नहीं मानी गयी। जैसे समस्त द्वैतवादियोंके मतसे बन्धावस्थामें ही शास्त्र आदिकी सार्थकता है मुक्तअवस्थामें नहीं? वैसे ही हमारे मतमें भी जीवोंकी ईश्वरके साथ एकता हो जानेपर यदि शास्त्रकी व्यर्थता होती हो तो हो? अविद्यावस्थामें तो उसकी सार्थकता है ही। पू0 -- हम सब द्वैतवादियोंके सिद्धान्तसे तो आत्माकी बन्धावस्था और मुक्तावस्था वास्तवमें ही सच्ची है। अतः वे हेय? उपादेय हैं और उनके सब साधन भी सत्य हैं। इस कारण शास्त्रकी सार्थकता हो सकती है। परंतु अद्वैतवादियोंके सिद्धान्तसे तो द्वैतभाव अविद्याजन्य और मिथ्या है? अतः आत्मामें बन्धावस्था भी वास्तवमें नहीं है? इसलिये शास्त्रका कोई विषय न रहनेके कारण शास्त्र आदिकी व्यर्थताका दोष आता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्माके अवस्थाभेद सिद्ध नहीं हो सकते? यदि ( आत्मामें इनका होना ) मान भी लें तो आत्माकी ये बन्ध और मुक्त दोनों अवस्थाएँ एक साथ होनी चाहिये या क्रमसे स्थिति और गतिकी भाँति परस्परविरोध होनेके कारण दोनों अवस्थाएँ एक साथ तो एकमें हो नहीं सकतीं। यदि क्रमसे होना मानें तो बिना निमित्तके बन्धावस्थाका होना माननेसे तो उससे कभी छुटकारा न होनेका प्रसङ्ग आ जायगा और किसी निमित्तसे उसका होना मानें तो स्वतः न होनेके कारण वह मिथ्या ठहरती है। ऐसा होनेपर स्वीकार किया हुआ सिद्धान्त कट जाता है। इसके सिवा बन्धावस्था और मुक्तावस्थाका आगापीछा निरूपण किया जानेपर पहले बन्धावस्थाका होना माना जायगा तथा उसे आदिरहित और अन्तयुक्त मानना पड़ेगा सो यह प्रमाणविरुद्ध है? ऐसे ही मुक्तावस्थाको भी आदियुक्त और अन्तरहित प्रमाणविरुद्ध ही मानना पड़ेगा। तथा आत्माकी अवस्थावाला और एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें जानेवाला मानकर उसका नित्यत्व सिद्ध करना भी सम्भव नहीं है। जब कि आत्मामें अनित्यत्वके दोषका परिहार करनेके लिये बन्धावस्था और मुक्तावस्थाके भेदकी कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिये द्वैतवादियोंके मतसे भी शास्त्रकी व्यर्थता आदि दोष अबाध्य ही हैं। इस प्रकार दोनोंके लिये समान होनेके कारण इस दोषका परिहार केवल अद्वैतवादियोंद्वारा ही किया जाना आवश्यक नहीं है। ( हमारे मतानुसार तो वास्तवमें ) शास्त्रकी व्यर्थता है भी नहीं क्योंकि शास्त्र लोकप्रसिद्ध अज्ञानीका ही विषय है। अज्ञानियोंका ही फल और हेतुरूप अनात्मवस्तुओंमें आत्मभाव होता है? विद्वानोंका नहीं। क्योंकि विद्वान्की बुद्धिमें फल और हेतुसे आत्माका पृथक्त्व प्रत्यक्ष है? इसलिये उसका उन (अनात्मपदार्थों ) में यह मैं हूँ ऐसा आत्मभाव नहीं हो सकता। अत्यन्त मूढ़ और उन्मत्त आदि भी जल और अग्निकी? या छाया और प्रकाशकी एकता नहीं मानते? फिर विवेकीकी तो बात ही क्या है सुतरां फल और हेतुसे आत्माको भिन्न समझ लेनेवाले ज्ञानीके लिये विधिनिषेधविषयक शास्त्र नहीं है। जैसे हे देवदत्त तू अमुक कार्य कर इस प्रकार किसी कर्ममें ( देवदत्तके ) नियुक्त किये जानेपर वहीं खड़ा हुआ विष्णुमित्र उस नियुक्तिको सुनकर भी? यह नहीं समझता कि मैं नियुक्त किया गया हूँ। हाँ? नियुक्तिविषयक विवेकका स्पष्ट ग्रहण न होनेसे तो ऐसा समझना ठीक हो सकता है? इसी प्रकार फल और,हेतुमें भी ( अज्ञानियोंकी आत्मबुद्धि हो सकती है )। पू0 -- फल और हेतुसे आत्माके पृथक्त्वका ज्ञान हो जानेपर भी? स्वाभाविक सम्बन्धकी अपेक्षासे शास्त्रविषयक इतना बोध होना तो युक्तियुक्त ही है कि मैं शास्त्रद्वारा अनुकूल फल और उसके हेतुमें तो प्रवृत्त किया गया हूँ और प्रतिकूल फल और उसके हेतुसे निवृत्त किया गया हूँ? जैसे कि पितापुत्र आदिका आपसमें एक दूसरेको भिन्न समझते हुए भी एक दूसरेके लिये किये हुए नियोग और प्रतिषेधको अपने लिये समझना देखा जाता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्माके पृथक्त्वका ज्ञान होनेसे पहलेपहले ही फल और हेतुमें आत्माभिमान होना सिद्ध है। नियोग और प्रतिषेधके अभिप्रायको भली प्रकार जानकर ही मनुष्य फल और हेतुसे आत्माके पृथक्त्वको जान सकता है? उससे पहले नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि विधिनिषेधरूप शास्त्रकेवल अज्ञानीके लिये ही है। पू0 -- (इस सिद्धान्तके अनुसार ) स्वर्गकी कामनावाला यज्ञ करे मांस भक्षण न करे इत्यादि विधिनिषेधबोधक शास्त्रवचनोंमें आत्माका पृथक्तव जाननेवालोंकी और केवल देहात्मवादियोंकी भी प्रवृत्ति न होनेसे कर्ताका अभाव हो जानेके कारण शास्त्रके व्यर्थ होनेका प्रसङ्ग आ जायगा उ0 -- यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि प्रवृत्ति और निवृत्तिका होना लोकप्रसिद्धिसे ही प्रत्यक्ष है। ईश्वर और जीवात्माकी एकता देखनेवाला ब्रह्मवेत्ता कर्मोंमें प्रवृत्त नहीं होता तथा आत्मसत्ताको न माननेवाला देहात्मवादी भी परलोक नहीं है ऐसा समझकर शास्त्रानुसार नहीं बर्तता यह ठीक है परंतु लोकप्रसिद्धिसे यह तो हम सबको प्रत्यक्ष है ही कि विधिनिषेधबोधक शास्त्रश्रवणकी दूसरी तरह उपपत्ति न होनेके कारण जिसने आत्माके अस्तित्वका अनुमान कर लिया है? एवं जो आत्माके असली तत्त्वका ज्ञाता नहीं है जिसकी कर्मोंके फलमें तृष्णा है? ऐसा मनुष्य श्रद्धालुताके कारण ( शास्त्रानुसार कर्मोंमें ) प्रवृत्त होता है। अतः शास्त्रकी व्यर्थता नहीं है। पू0 -- विवेकशील पुरुषोंकी प्रवृत्ति न देखनेसे उनका अनुकरण करनेवालोंकी भी ( शास्त्रविहित कर्मोंमें ) प्रवृत्ति नहीं होगी? अतः शास्त्रव्यर्थ हो जायगा। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि किसी एकको ही विवेकज्ञान प्राप्त होता है। अर्थात् अनेक प्राणियोंमेंसे कोई एक ही विवेकी होता है जैसा कि आजकल ( देखा जाता है )। इसके सिवा मूढ़लोग विवेकियोंका अनुकरण भी नहीं करते क्योंकि प्रवृत्ति रागादि दोषोंके अधीन हुआ करती है। ( प्रतिहिंसाके उद्देश्यसे किये जानेवाले जारणमारण आदि ) अभिचारोंमें भी लोगोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है तथा प्रवृत्ति स्वाभाविक है। यह कहा भी है कि स्वभाव ही बर्तता है। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि संसार अविद्यामात्र ही है और वह अज्ञानियोंका ही विषय है। केवलशुद्ध क्षेत्रज्ञमें अविद्या और उसके कार्य दोनों ही नहीं हैं। तथा मिथ्याज्ञान परमार्थवस्तुको दूषित करनेमें समर्थ भी नहीं है। क्योंकि जैसे ऊसर भूमिको मृगतृष्णिकाका जल अपनी आर्द्रतासे कीचड़युक्त नहीं कर सकता? वैसे ही अविद्या भी क्षेत्रज्ञका कुछ भी ( उपकार या अपकार ) करनेमें समर्थ नहीं है? इसीलिये क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि और अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् यह कहा है। पू0 -- तो फिर यह क्या बात है कि संसारी पुरुषोंकी भाँति पण्डितोंको भी मैं ऐसा हूँ यह वस्तु मेरी ही है ऐसी प्रतीत होती है। उ0 -- सुनो? यह पाण्डित्य बस इतना ही है जो कि क्षेत्रमें ही आत्माको देखना है परंतु यदि मनुष्य क्षेत्रज्ञको निर्विकारी समझ ले तो फिर मुझे अमुक भोग मिले या मैं अमुक कर्म करूँ ऐसी आकाङ्क्षा नहीं कर सकता? क्योंकि भोग और कर्म दोनों विकार ही तो हैं। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि फलेच्छुक होनेके कारण अज्ञानी कर्मोंमें प्रवृत्त होता है परंतु विकाररहित आत्माका साक्षात् कर लेनेवाले ज्ञानीमें फलेच्छाका अभाव होनेके कारण? उसकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं? अतः कार्यकरणसंघातके व्यापारकी निवृत्ति होनेपर उस ( ज्ञानी ) में निवृत्तिका उपचार किया जाता है। किसीकिसीके मतमें यह एक प्रकारकी विद्वत्ता और भी हो सकती है कि? क्षेत्रज्ञ तो ईश्वर ही है और उस क्षेत्रज्ञके ज्ञानका विषय क्षेत्र उससे अलग है तथा मैं तो ( उन दोनोंसे भिन्न ) संसारी और सुखीदुःखी भी हूँ। मुझे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके ज्ञान और ध्यानद्वारा ईश्वररूप क्षेत्रज्ञका साक्षात् करके उसके स्वरूपमें स्थित होनारूप साधनसे संसारकी निवृत्ति करनी चाहिये। जो ऐसा समझता है या दूसरेको ऐसा समझाता है कि वह ( जीव ) क्षेत्रज्ञ ( ब्रह्म ) नहीं है तथा जो यह मानता है कि मैं ( इस प्रकारके सिद्धान्तसे ) संसार? मोक्ष और शास्त्रकी सार्थकता सिद्ध करूँगा? वह पण्डितोंमें अधम है। तथा वह आत्महत्यारा? शास्त्रके अर्थकी सम्प्रदायपरम्परासे रहित होनेके कारण? श्रुतिविहित अर्थका त्याग और वेदविरुद्ध अर्थकी कल्पना करके स्वयं मोहित हो रहा है और दूसरोंको भी मोहित करता है। सुतरां जो शास्त्रार्थकी परम्पराको जाननेवाला नहीं है? वह समस्त शास्त्रोंका ज्ञाता भी हो तो भी मूर्खोंके समान उपेक्षणीय ही है। और जो यह कहा था कि ईश्वरकी क्षेत्रज्ञके साथ एकता माननेसे तो ईश्वरमें संसारीपन आ जाता है और क्षेत्रज्ञोंकी ईश्वरके साथ एकता माननेसे कोई संसारी न रहनेके कारण संसारके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है? सो विद्या और अविद्याकी विलक्षणताके प्रतिपादनसे इन दोनों दोषोंका ही परिहार कर दिया गया। पू -- कैसे उ0 -- अविद्याद्वारा कल्पित किये हुए दोषसे तद्विषयक पारमार्थिक ( असली ) वस्तु दूषित नहीं होती? इस कथनसे पहली शङ्काका निराकरण किया गया और वैसे ही यह दृष्टान्त भी दिखलाया कि मृगतृष्णिकाके जलसे ऊसर भूमि पङ्कयुक्त नहीं की जा सकती। तथा संसारीका अभाव होनेसे संसारके अभावके प्रसङ्गका जो दोष बतलाया था? उसका भी संसार संसारित्वकी अविद्याकल्पित उपपत्तिको स्वीकार करके निराकरण कर दिया गया। पू0 -- क्षेत्रज्ञका अविद्यायुक्त होना ही तो संसारित्वरूप दोष है? क्योंकि उससे होनेवाले दुःखित्व आदि दोष प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं? क्योंकि जो कुछ ज्ञेय है -- जाननेमें आता है? वह सब क्षेत्रका ही धर्म है? इसलिये,उसके किये हुए दोष ज्ञाता क्षेत्रज्ञके नहीं हो सकते। तू क्षेत्रज्ञपर वास्तवमें बिना हुए ही जो कुछ भी दोष लाद रहा है? वे सब ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्रके ही धर्म हैं? क्षेत्रज्ञके नहीं। उनसे क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) दूषित नहीं हो सकता? क्योंकि ज्ञेयके साथ ज्ञाताका संसर्ग नहीं हो सकता। यदि उनका संसर्ग मान लिया जाय तो (ज्ञेयका) ज्ञेयत्व ही सिद्ध नहीं हो सकता। अभिप्राय यह है कि यदि अविद्यायुक्त होना और दुखी होना आदि आत्माके धर्म हैं तो वे प्रत्यक्ष कैसे दीखते हैं और वे क्षेत्रज्ञके धर्म हो भी कैसे सकते हैं क्योंकि जो कुछ भी ज्ञेय वस्तु है वह सब क्षेत्र है और क्षेत्रज्ञ ज्ञाता है? ऐसा सिद्धान्त स्थापित किये जानेपर फिर अविद्यायुक्त होना और दुखी होना आदि दोषोंको क्षेत्रज्ञके धर्म बतलाना और उनकी प्रत्यक्ष उपलब्धि भी मानना? यह सब अज्ञानमात्रके आश्रयसे केवल विरुद्ध प्रलाप करना है। पू0 -- वह अविद्या किसमें है उ0 -- जिसमें दीखती है उसीमें। पू0 -- किसमें दीखती है उ0 -- अविद्या किसमें दीखती है -- यह प्रश्न ही निरर्थक है। पू0 -- किस प्रकार उ0 -- यदि अविद्या दीखती है तो उससे जो युक्त है उसको भी तू अवश्य देखता ही होगा फिर अविद्यावान्की उपलब्धि हो जानेपर वह अविद्या किसमें है? यह पूछना ठीक नहीं है। क्योंकि गौवालेको देख लेनेपर यह गौ किसकी है यह पूछना सार्थक नहीं हो सकता। पू0 -- तुम्हारा यह दृष्टान्त विषय है। गौ और उसका स्वामी तो प्रत्यक्ष होनेके कारण उनका सम्बन्ध भी प्रत्यक्ष है इसलिये ( उनके सम्बन्धके विषयमें ) प्रश्न निरर्थक है? परंतु उनकी भाँति अविद्यावान् और अविद्या तो प्रत्यक्ष नहीं हैं? जिससे कि यह प्रश्न निरर्थक माना जाय उ0 -- अप्रत्यक्ष अविद्यावान्के साथ अविद्याका सम्बन्ध जान लेनेसे तुम्हें क्या मिलेगा पू0 -- अविद्या अनर्थकी हेतु है? इसलिये उसका त्याग किया जा सकेगा। उ0 -- जिसमें अविद्या है? वह उसका स्वयं त्याग कर देगा। पू0 -- मुझमें ही तो अविद्या है। उ0 -- तब तो तू अविद्या और उससे युक्त अपने आपको जानता है। पू0 -- जानता तो हूँ परंतु प्रत्यक्षरूपसे नहीं। उ0 -- यदि अनुमानसे जानता है तो ( तुझ ज्ञाता और अविद्याके ) सम्बन्धका ग्रहण कैसे हुआ क्योंकि उस,समय ( अविद्याको अनुमानसे जाननेके कालमें ) तुझ ज्ञाताका ज्ञेयरूप अविद्याके साथ सम्बन्ध ग्रहण नहीं किया जा सकता? कारण यह है कि ज्ञाताका विषय मानकर ही अविद्याका उपयोग किया गया है। तथा ज्ञाता और अविद्याके सम्बन्धको जो ग्रहण करनेवाला है वह तथा उस ( अविद्या और ज्ञाताके सम्बन्ध ) को विषय करनेवाला कोई दूसरा ज्ञान ये दोनों ही सम्भव नहीं हैं। क्योंकि ऐसा होनेसे अनवस्थादोष प्राप्त होता है अर्थात् यदि ज्ञाता और ज्ञेयज्ञाताका सम्बन्ध ये भी ( किसीके द्वारा ) जाने जाते हैं? ऐसा माना जाय तो उसका ज्ञाता किसी औरको मानना होगा। फिर उसका भी दूसरा और उसका भी दूसरा ज्ञाता मानना होगा? इस प्रकार यह अनवस्था अनिवार्य हो जायगी। पंरतु ज्ञेय चाहे अविद्या हो अथवा और कुछ हो? ज्ञेय ज्ञेय ही रहेगा ( ज्ञाता नहीं हो सकता ) वैसे ही ज्ञाता भी ज्ञाता ही रहेगा? ज्ञेय नहीं हो सकता? जब कि ऐसा है तो अविद्या या दुःखित्व आदि दोषोंसे ज्ञाता -- क्षेत्रज्ञका कुछ भी दूषित नहीं हो सकता। पू0 -- यही उसका दोष है जो कि वह दोषयुक्त क्षेत्रका ज्ञाता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा विज्ञानस्वरूप और अविक्रिय है? उसमें ( इस ) ज्ञातापनका उपचारमात्र किया जाता है? जैसे कि उष्णतामात्र स्वभाव होनेसे अग्निमें तपानेकी क्रियाका उपचार किया जाता है। जैसे भगवान्ने यहाँ ( इस प्रकरणमें ) यह दिखाया है कि आत्मामें स्वभावसे ही क्रिया? कारक और फलात्मत्वका अभाव है? केवल अविद्याद्वारा अध्यारोपित होनेके कारण क्रिया? कारक आदि आत्मामें उपचरित होते हैं? वैसे ही? जो इसे मारनेवाला जानता है प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब कर्म किये जाते हैं ( वह विभु ) किसीके पापपुण्यको ग्रहण नहीं करता इत्यादि प्रकरणोंमें जगहजगह दिखाया गया है और इसी प्रकार हमने व्याख्या भी की है? तथा आगेके प्रकरणोंमें भी हम दिखलायेंगे। पू0 -- तब तो आत्मामें स्वभावसे क्रिया? कारक और फलात्मत्वका अभाव सिद्ध होनेसे तथा ये सब अविद्याद्वारा अध्यारोपित सिद्ध होनेसे यही निश्चय हुआ कि कर्म अविद्वान्को ही कर्तव्य है? विद्वान्को नहीं। उ0 -- ठीक यही सिद्ध हुआ। इसी बातको हम न हि देहभृता शक्यम् इस प्रकरणमें और सारे गीताशास्त्रके उपसंहारप्रकरणमें दिखलायेंगे। तथा सामसेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा इस श्लोकके अर्थमें विशेषरूपसे दिखायेंगे। बस? यहाँ अब और अधिक विस्तारकी आवश्यकता नहीं है? इसलिये उपसंहार किया जाता है।

English Translation By Swami Adidevananda

13.3 And know Me also as the Field-Knower in all Fields, O Arjuna. The knowledge of the Field and its knower is, in My view, the true knowledge.

English Translation By Swami Sivananda

13.3 Do thou also know Me as the knower of the field in all fields, O Arjuna. Knowledge of both the field and the knower of the field is considered by Me to be the knowledge.

English Translation By Swami Gambirananda

13.3 And, O scion of the Bharata dynasty, under-stand Me to be the 'Knower of the field' in all the fields. In My opinion, that is Knowledge which is the knowlege of th field and the knower of the field.