तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्ितमान्मे प्रियो नरः।।12.19।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।12.19।। -- तुल्यनिन्दास्तुतिः निन्दा च स्तुतिश्च निन्दास्तुती ते तुल्ये यस्य सः तुल्यनिन्दास्तुतिः। मौनी मौनवान् संयतवाक्। संतुष्टः येन केनचित् शरीरस्थितिहेतुमात्रेण तथा च उक्तम् -- येन केनचिदाच्छन्नो येन केनचिदाशितः। यत्र क्वचनशायी स्यात्तं देवा ब्राह्मणं विदुः (महा0 शान्ति0 245।12) इति। किञ्च? अनिकेतः निकेतः आश्रयः निवासः नियतः न विद्यते यस्य सः अनिकेतः? अनागारे इत्यादिस्मृत्यन्तरात्। स्थिरमतिः स्थिरा परमार्थविषया यस्य मतिः सः स्थिरमतिः। भक्ितमान् मे प्रियः नरः।।
अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् (गीता 12।13) इत्यादिना अक्षरोपासकानां निवृत्तसर्वैषणानां संन्यासिनां परमार्थज्ञाननिष्ठानां धर्मजातं प्रक्रान्तम् उपसंह्रियते --,
।।12.19।। तथा --, जिसके लिये निन्दा और स्तुति दोनों बराबर हो गयी हैं? जो मुनि संयतवाक् है अर्थात् वाणी जिसके वशमें है तथा जो जिस किसी प्रकारसे भी शरीरस्थितिमात्रसे सन्तुष्ट है। कहा भी है कि जो जिस किसी ( अन्य ) मनुष्यद्वारा ही वस्त्रादिसे ढका जाता है? एवं जिस किसी ( दूसरे ) के द्वारा ही जिसको भोजन कराया जाता है और जो जहाँ कहीं भी सोनेवाला होता है उसको देवता लोग ब्राह्मण समझते हैं। तथा जो स्थानसे रहित है अर्थात् जिसका कोई नियत निवासस्थान नहीं है? अन्य स्मृतियोंमें भी अनागारः इत्यादि वचनोंसे यही कहा है? तथा जो स्थिरबुद्धि है -- जिसकी परमार्थविषयक बुद्धि स्थिर हो चुकी है? ऐसा भक्तिमान् पुरुष मेरा प्यारा है।