अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।15.2।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।15.2।। --,अधः मनुष्यादिभ्यो यावत् स्थावरम् ऊर्ध्वं च यावत् ब्रह्मणः विश्वसृजो धाम इत्येतदन्तं यथाकर्म यथाश्रुतं ज्ञानकर्मफलानि? तस्य वृक्षस्य शाखा इव शाखाः प्रसृताः प्रगताः? गुणप्रवृद्धाः गुणैः सत्त्वरजस्तमोभिः प्रवृद्धाः स्थूलीकृताः उपादानभूतैः? विषयप्रवालाः विषयाः शब्दादयः प्रवालाः इव देहादिकर्मफलेभ्यः शाखाभ्यः अङ्कुरीभवन्तीव? तेन विषयप्रवालाः शाखाः। संसारवृक्षस्य परममूलं उपादानकारणं पूर्वम् उक्तम्। अथ इदानीं कर्मफलजनितरागद्वेषादिवासनाः मूलानीव धर्माधर्मप्रवृत्तिकारणानि अवान्तरभावीनि तानि अधश्च देवाद्यपेक्षया मूलानि अनुसंततानि अनुप्रविष्टानि कर्मानुबन्धीनि कर्म धर्माधर्मलक्षणम् अनुबन्धः पश्चाद्भावि? येषाम् उद्भूतिम् अनु उद्भवति? तानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके विशेषतः। अत्र हि मनुष्याणां कर्माधिकारः प्रसिद्धः।।यस्तु अयं वर्णितः संसारवृक्षः --,
।।15.2।।अपने उपादानकारणरूप सत्त्व? रज और तमइन तीनों गुणोंसे बढ़ी हुई -- स्थूलभावको प्राप्त हुई और विषयरूपी कोंपलोंवाली? उस वृक्षकी बहुतसी शाखाएँ? जो कि अपनेअपने कर्म और ज्ञानके अनुरूप -- कर्म और ज्ञानकी फलस्वरूपा योनियाँ हैं? नीचेकी ओर मनुष्योंसे लेकर स्थावरपर्यन्त और ऊपरकी ओर धर्म यानी विश्वकर्ता ब्रह्मापर्यन्त? वृक्षकी शाखाओंके समान फैली हुई हैं। कर्मफलरूप देहादि शाखाओंसे शब्दादि विषय? कोंपलोंके समान अङ्कुरितसे होते हैं? इसलिये वे शरीरादिरूप शाखाएँ विषयरूपी कोंपलोंवाली हैं। संसारवृक्षका परम मूल -- उपादानकारण पहले बतलाया जा चुका है। अब कर्मफलजनित रागद्वेष आदिकी वासनाएँ जो मूलके समान धर्माधर्मविषयक प्रवृत्तिका कारण और अवान्तरसे ( आगेपीछे ) होनेवाली हैं ( उनको कहते हैं )। वे मनुष्यलोकमें कर्मानुबन्धिनी वासनारूप मूलें देवादिकी अपेक्षा नीचे भी? अविच्छिन्नरूपसे फैली हुई हैं। पुण्यपापरूप कर्म जिनका अनुबन्ध यानी पीछेपीछे होनेवाला है? अर्थात् जिनकी उत्पत्तिका अनुवर्तन करनेवाला है? वे कर्मानुबन्धी कहलाती हैं। यहाँ मनुष्योंका ही विशेषरूपसे कर्ममें अधिकार प्रसिद्ध है ( इसलिये वे मूलें मनुष्यलोकमें कर्मानुबन्धिनी बतलायी गयी हैं )।