स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।5.27।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।5.27।।अब सम्यक् ज्ञानके अन्तरङ्ग साधनरूप ध्यानयोगको विस्तारपूर्वक कहूँगा यह विचारकर उस ध्यानयोगके सूत्रस्थानीय श्लोकोंका उपदेश करते हैं शब्दादि बाह्य विषयोंको बाहर करके यानी जो शब्दादि विषय श्रोत्रादि इन्द्रियोंद्वारा अन्तःकरणके भीतर प्रविष्ट कर लिये गये हैं उनका चिन्तन न करना ही बाह्य विषयोंको निकाल बाहर करना है इस प्रकार उनको बाहर करके एवं दोनों नेत्रों ( की दृष्टि ) को भृकुटिके मध्यस्थानमें स्थित करके तथा नासिका ( और कण्ठादि आभ्यन्तर भागों ) के भीतर विचरनेवाले प्राण और अपानको समान करके।