यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।5.5।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।5.5।।एकका भी भली प्रकार अनुष्ठान कर लेनेसे दोनोंका फल कैसे पा लेता है इसपर कहा जाता है सांख्योगियोंद्वारा अर्थात् ज्ञाननिष्ठायुक्त संन्यासियोंद्वारा जो मोक्ष नामक स्थान प्राप्त किया जाता है वही कर्मयोगियोंद्वारा भी ( प्राप्त किया जाता है )। जो पुरुष अपने लिये ( कर्मोंका ) फल न चाहकर सब कर्म ईश्वरमें अर्पण करके और उसे ज्ञानप्राप्तिका उपाय मानकर उनका अनुष्ठान करते हैं वे योगी हैं उनको भी परमार्थज्ञानरूप संन्यासप्राप्तिके द्वारा ( वही मोक्षरूप फल ) मिलता है। यह अभिप्राय है। इसलिये फलमें एकता होनेके कारण जो सांख्य और योगको एक देखता है वही यथार्थ देखता है। पू0 यदि ऐसा है तब तो कर्मयोगसे कर्मसंन्यास ही श्रेष्ठ है फिर यह कैसे कहा कि उन दोनोंमें कर्मसंन्यासकी अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है उ0 उसमें जो कारण है सो सुनो तुमने केवल कर्मसंन्यास और केवल कर्मयोगके अभिप्रायसे पूछा था कि उन दोनोंमें कौनसा एक कल्याणकारक है उसीके अनुरूप मैंने यह उत्तर दिया कि ज्ञानरहित कर्मसंन्यासकी अपेक्षा तो कर्मयोग ही श्रेष्ठ है। क्योंकि ज्ञानसहित संन्यासको तो मैं सांख्य मानता हूँ और वही परमार्थयोग भी है।