श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।6.13।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।6.13।।बाह्य आसनका वर्णन किया अब शरीरको कैसे रखना चाहिये सो कहते हैं काया शिर और गरदनको सम और अचल भावसे धारण करके स्थिर होकर बैठे। समानभावसे धारण किये हुए कायादिका भी चलन होना सम्भव है इसलिये अचलम् यह विशेषण दिया गया है। तथा अपनी नासिकाके अग्रभागको देखता हुआ यानी मानो वह उधर ही अच्छी तरह देख रहा है। इस प्रकार दृष्टि करके। यहाँ संप्रेक्ष्य के साथ इव शब्द लुप्त समझना चाहिये क्योंकि यहाँ अपनी नासिकाके अग्रभागको देखनेका विधान करना अभिमत नहीं है। तो क्या है बस नेत्रोंकी दृष्टिको ( विषयोंकी ओरसे रोककर ) वहाँ स्थापन करना ही इष्ट है। वह ( इस तरह दृष्टिस्थापना करना ) भी अन्तःकरणके समाधानके लिये आवश्यक होनेके कारण भी अभीष्ट है। क्योंकि यदि अपनी नासिकाके अग्रभागको देखना ही विधेय माना जाय तो फिर मन वहीं स्थित होगा आत्मामें नहीं। परंतु ( आगे चलकर ) आत्मसंस्थं मनः कृत्वा इस पदसे आत्मामें ही मनको स्थित करना बतलायेंगे। इसलिये इव शब्दके लोपद्वारा नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर लगाना ही संप्रेक्ष्य इस पदसे कहा गया। इस प्रकार ( नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर लगाकर ) तथा अन्य दिशाओंको न देखता हुआ अर्थात् बीचबीचमें दिशाओंकी ओर दृष्टि न डालता हुआ।

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

6.13 See Commentary under 6.14