पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।6.44।।पहले शरीरकी बुद्धिसे उसका संयोग कैसे होता है सो कहते हैं क्योंकि वह योगभ्रष्ट पुरुष परवश हुआ भी पूर्वाभ्यासके द्वारा अर्थात् जो पहले जन्ममें किया हुआ अभ्यास है उस अति बलवान् पूर्वाभ्यासके द्वारा योगकी ओर खींच लिया जाता है। यदि योगाभ्यासके संस्कारोंकी अपेक्षा अधिक बलवान् अधर्मादि कर्म न किये हों तो वह योगाभ्यासजनित संस्कारोंसे खिंच जाता है और यदि अधिक बलवान् अधर्म किया हुआ होता है तो उससे योगजन्य संस्कार भी दब ही जाते हैं। परंतु उस पापकर्मका क्षय होनेपर योगजन्य संस्कार स्वयं ही अपना कार्य आरम्भ कर देता है। बहुत बालतक दबे रहनेपर भी उसका नाश नहीं होता। जो योगका जिज्ञासु भी है अर्थात् जो योगके स्वरूपको जाननेकी इच्छा करके योगमार्गमें लगा हुआ योगभ्रष्ट संन्यासी है वह भी शब्दब्रह्मको अर्थात् वेदमें कहे हुए कर्मफलको अतिक्रम कर जाता है फिर जो योगको जानकर उसमें स्थित हुआ अभ्यास करता है उसका तो कहना ही क्या है। यहाँ प्रसंगकी शक्तिसे जिज्ञासुका अर्थ संन्यासी किया गया है।