बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6.6।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।6.6।।आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है यह बात कही गयी उसमें किन लक्षणोंवाला पुरुष तो ( आप ही ) अपना मित्र होता है और कौन ( आप ही ) अपना शत्रु होता है सो कहा जाता है उस जीवात्माका तो वही आप मित्र है कि जिसने स्वयमेव कार्यकरणके समुदाय शरीररूप आत्माको अपने वशमें कर लिया हो अर्थात् जो जितेन्द्रिय हो। जिसने ( कार्यकरणके संघात ) शरीररूप आत्माको अपने वशमें नहीं किया उसका वह आपही शत्रुकी भाँति शत्रुभावमें बर्तता है। अर्थात् जैसे दूसरा शत्रु अपना अनिष्ट करनेवाला होता है वैसे ही वह आप ही अपना अनिष्ट करनेमें लगा रहता है।